एक पुरानी कहावत याद आ रही है अपने देश के संदर्भ में कि कोस-कोस पर पानी बदले और पांच कोस पर बानी. मन करता है तो इसमें कुछ जोड़ दिया जाए और कुछ ऐसे इसे कहा जाए कि यहां हर पल बदले किस्से कहानी, कोस-कोस पर पानी और पांच कोस पर बानी. दरअसल हमारे देश की वाचिक परंपरा का एक लंबा इतिहास है. इसी के चलते कई बार इतिहास, इतिहास न रहकर किस्से-कहानी में तब्दील हो गया, कहीं-कहीं तो किस्सों को ही इतिहास का अंश मान लिया गया है. हालत यह है कि इतिहास विरोधी इतिहास के भीतर की विविधता को स्वीकार करने तक को तैयार नहीं होते और प्रमाणिक तीन सौ रामायणों की जगह सिर्फ एक रामायण और रामचरित मानस को ही इतिहास मान लेते हैं और बाकी सबको भी जबरन मनवाने पर तुल भी गए हैं. शंका करने वालों के लिए वह बकौल फिल्म पीके के एक पात्र के अनुसार त्रिशूल-तलवार लिए फिर रहे हैं. खैर…
आधुनिक भारत में इन इतिहास विरोधी तत्वों को गांधी, भगत सिंह और बाबा साहेब अंबेडकर से सबसे ज्यादा डर लगता है. इसीलिए यह सबसे ज्यादा इन महान व्यक्तित्वों के खिलाफ किस्से-कहानी, गल्प कथाएं और बातें गढ़ते रहते हैं. मजबूरी का नाम महात्मा गांधी जैसे जुमले इनकी खीज और चिढ़ का प्रमाण है. दरअसल यह अतार्किक और अवैज्ञानिक जीवन शैली के इतने गुलाम होते हैं कि इससे बाहर आकर समय, इतिहास, दर्शन और संस्कृति आदि की शिनाख्त नहीं कर पाते हैं. कूएं के मेंढकों की तरह, एक सीमित दुनिया और सोच में ही पूरा जीवन गुजार देते हैं. हालांकि इनकी कई जुमलेबाजी एक खास रणनीति का हिस्सा भी होती हैं. हाल ही में सत्ताधारी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष द्वारा अपने सर्वमान्य नेता के चुनावी वादों को जुमला कहकर जन भावना के उबाल पर जो छींटे डाले गए हैं वो इसी किस्म की रणनीति की ओर इशारा करते हैं. खैर…
हुआ ये कि अपन को एक दिन इस जम्बूद्वीप के किसी अनाम स्थान पर स्थित एकल विद्यालय में पढ़ानेवाले स्वनामधन्य स्वाध्यायी टकरा गए. वे बेहद परेशान थे. उनकी अपनी सरकार ने सुभाष चंद्र बोस से जुड़े दस्तावेजों को सार्वजनिक करने में पुरानी भ्रष्ट और देशद्रोही सरकार की तर्ज पर मना कर दिया था. उनके पाचन तंत्र में खासी उथल-पुथल मची हुई थी. वह लगातार मुंह से थूक निकालते-निगलते कह रहे थे. यह गांधी की बदमाशी है. उसी ने हमारी सरकार के हाथ बांध रखे हैं. उसने ही अंग्रेजो से समझौता किया था कि सुभाष बाबू यानी सुभाष चंद्र बोस को देश में अगले 50 वर्ष तक आने नहीं देंगे, इस एवज में तुम हमें आजाद कर दो. गरचे सुभाष ने इससे पहले देश में कदम रखा तो तुम हमें फिर से गुलाम बना लेना. उन्होंने यह बात इतने विश्वास से कही जैसे कि यह सब उन्हीं के सामने घटा हो. अपन यह वाचिक इतिहास सुनकर सकते में आ गए. लगा, क्या ऐसे भी समझौते होते हैं देश को आजाद कराने के लिए. गर ऐसे ही देश आजाद होना था तो इतना सत्याग्रह और आंदोलन करने की क्या जरूरत थी, पहले ही कर लेते वादा-समझौता. देशभक्ति के नाम पर सुभाष बाबू पहले ही यह कुर्बानी दे देते. इतना तो अपन को पक्का भरोसा था. फिर जब गांधी की इच्छा का मान रखने के लिए वो कांग्रेस अध्यक्ष का पद छोड़ सकते थे तो देश के लिए तो वह कुछ भी कर देते. बेकार ही आजाद हिंद फौज बनाई, नारा दिया कि ‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा’. अभी दिमाग में यह सब चल रहा था कि वो अपने श्रीमुख से बताने लगे कि यह बात सन् 1947 की है. महात्मा गांधी (यह संबोधन हमारा है, उन्होंने तो कुछ और ही बोला था) ने अपनी राजनीतिक दुश्मनी के चलते देश के सपूत को देश निकाला दिलवा दिया. आज अगर सुभाष बाबू की फाइलें सार्वजनिक हो जाएं तो सारी बात सामने आ जाएगी. खैर अपन ने जैसे-तैसे उनसे जान छुड़ाई और पहुंचे सीधे अपने पड़ोस के सार्वजनिक पुस्तकालय, यह जानने स्वाध्यायी महाराज की बात में इतिहास कितना है, तथ्य कितने हैं और गप कितनी है.
गौर फरमाएं
पुस्तकालय में पहुंच आजादी के आंदोलन से जुड़ी इतिहास की किताबों के पन्ने पलटने के बाद किसी में भी और कहीं इस बात का जिक्र तक नहीं मिला कि गांधी ने अंग्रेजो से ऐसा कोई वादा किया था. वहीं यह मालूम हुआ कि तमाम मतभेदों के बावजूद गांधी और सुभाष एक-दूसरे का सम्मान करते थे. कुछ तथ्य ऐसे भी मिले कि वो सुभाष ही थे जो गांधी को राष्ट्रपिता कहकर संबोधित करते थे. 1944 में रंगून (म्यांमार) में अपने एक भाषण में गांधी को वह बाकायदा राष्ट्रपिता कहकर संबोधित करते हैं. इसके अलावा देश की आजादी से पहले ही 18 अगस्त 1945 में उनकी हवाई दुर्घटना में मृत्यु की घोषणा की जा चुकी थी. ऐसे में गांधी और अंग्रेजों के बीच ऐसे काल्पनिक वादे का कोई औचित्य समझ नहीं आता. खैर, बातें हैं और बोलनेवालों का मुंह बंद नहीं किया जाता सो इनका आनंद लें.