आज भले ही वे दो ध्रुवों पर हों, लेकिन एक समय था जब वे एक ही धुरी पर घूमते थे. भाजपा से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी और वडोदरा लोकसभा सीट पर उन्हें चुनौती देने उतरे कांग्रेस महासचिव मधुसूदन मिस्त्री, दोनों का ही संघ से पुराना नाता रहा है. मोदी 80 के दशक में संघ से राजनीति में आए तो मिस्त्री ने तब राजनीति का दामन थामा जब 1995 में शंकर सिंह बाघेला ने गुजरात भाजपा से बगावत की और राष्ट्रीय जनता पार्टी बनाई. 1999 में इसका कांग्रेस में विलय हो गया और मिस्त्री भी कांग्रेस में आ गए. साझा अतीत के अलावा दोनों विरोधियों में और भी कई समानताएं हैं. मोदी और मिस्त्री दोनों ही जमीनी राजनीति और चुनावी प्रबंधन में माहिर हैं. यही नहीं, गुरु गुड़ ही रहा और चेला शक्कर हो गया की कहावत को दोनों ने चरितार्थ किया है. मोदी, अपने राजनीतिक गुरू लालकृष्ण आडवाणी को पीछे छोड़ चुके हैं और मिस्त्री वाघेला को.
लोकसभा चुनाव के रण में पहली बार और वह भी प्रधानमंत्री पद की महत्वाकांक्षा लिए उतर रहे मोदी के लिए वडोदरा शायद सबसे जोखिम रहित सीट है. 1996-98 के अपवाद को छोड़ दें तो 1991 से लेकर आज तक यह उनकी पार्टी के पास ही रही है. 1991 में यहां से भाजपा ने दीपिका चिखलिया को मैदान में उतारा था जो तब तक रामानंद सागर के धारावाहिक रामायण में सीता की भूमिका करके काफी मशहूर हो चुकी थीं. राम मंदिर लहर ने सीता मैय्या को संसद पहुंचाया और वडोदरा को लंबे समय के लिए भाजपा के पाले में. 2009 में पार्टी के बालकृष्ण शुक्ला ने यह सीट करीब डेढ़ लाख वोटों के विशाल अंतर से जीती थी. वडोदरा में पड़ने वाली 10 विधानसभा सीटों में से नौ भाजपा के पास हैं. शहर के भाजपाई कहने भी लगे हैं कि वाराणसी और वडोदरा, दोनों की स्पेलिंग वी से शुरू होती है इसलिए मोदी के लिए वी से ही शुरू होने वाली विक्टरी यानी विजय तय हो गई है.
लेकिन क्या ऐसा वास्तव में है? वडोदरा से पहले कांग्रेस ने नरेंद्र रावत को टिकट दिया था. वे पार्टी विकेंद्रीकरण के लिए चलाई जा रही राहुल गांधी की खास कवायद प्राइमरीज के जरिये चुनकर आए थे. लेकिन जब मोदी ने यहां से उम्मीदवारी की घोषणा कर दी तो रावत ने दौड़ से हटने का फैसला कर लिया. माना जा रहा है कि कांग्रेस यह संदेश नहीं देना चाहती थी कि वह मोदी को आसान लड़ाई दे रही है इसलिए उसने मिस्त्री को मैदान में उतारा है. राहुल गांधी के काफी करीबी माने जाने वाले मिस्त्री को चुनाव प्रबंधन की कला में भी माहिर माना जाता है. 2011 में केरल और 2013 में कर्नाटक विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की जीत का श्रेय उनकी रणनीतियों को दिया जाता है. बताते हैं कि 2004 में गुजरात की साबरकांठा लोकसभा सीट पर मिस्त्री को हराने के लिए मोदी और उनके सबसे विश्वस्त सिपहसालार अमित शाह की जोड़ी ने पूरा जोर लगा दिया था, लेकिन वे नाकामयाब रहे. हालांकि 2009 में यह जोड़ी मिस्त्री पर भारी पड़ी. इस बार क्या होगा, देखना दिलचस्प होगा. टिकट मिलने के बाद मिस्त्री का कहना था, ‘मैं काफी सालों से इस मौके का इंतजार कर रहा था. मोदी को वडोदरा से चुनाव लड़ने दीजिए. मैं भी वहां से लडूंगा और उन्हें हराऊंगा.’
लेकिन उत्तरी गुजरात के साबरकांठा या बनासकांठा जैसे आदिवासी इलाकों में मजबूत पकड़ रखने वाले मिस्त्री वडोदरा जैसे शहरी इलाके में कितने वोट खींच पाएंगे? अहमदाबाद में सामाजिक कार्यकर्ता और राजनीतिक विश्लेषक हरिणेश पंड्या एक अखबार से बातचीत में कहते हैं, ‘ अब मुद्दा यह नहीं है कि वडोदरा में कौन जीतेगा या हारेगा, बल्कि यह है कि अब यहां वास्तव में एक मुकाबला होगा जिसे मोदी को भी गंभीरता से लेना होगा. अब यहां उन्हें वॉकओवर जैसी स्थिति नहीं रही.’ अब वाराणसी और वडोदरा, दोनों ही मोर्चों को मोदी हलके में नहीं ले सकते. यहां उन्हें पहले से ज्यादा ऊर्जा खर्च करनी पड़ेगी जिसका असर देश में बाकी जगहों पर उनके अभियान पर पड़ेगा.
यह भी दिलचस्प है कि भाजपा से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी और कांग्रेस महासचिव मधुसूदन मिस्त्री की भिड़ंत कई तरह से हो रही है. वडोदरा में दोनों सीधे लड़ रहे हैं तो कई मोर्चों पर उनकी लड़ाई अप्रत्यक्ष है. मिस्त्री पर दिल्ली की गद्दी के लिए अहम माने जाने वाले उस उत्तर प्रदेश में भी कांग्रेस की नैय्या पार लगाने का जिम्मा है जहां से लोकसभा की 80 सीटें आती हैं. इसी सूबे में भाजपा की जिम्मेदारी उन अमित शाह ने संभाली हुई है जिन पर आज मोदी सबसे ज्यादा भरोसा करते हैं. वे कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के नेतृत्व वाली पांच सदस्यीय चुनाव समन्वय समिति में भी हैं. इसलिए उत्तर प्रदेश ही नहीं, बल्कि पूरे देश में कांग्रेस के टिकट वितरण पर उनका अहम प्रभाव रहा है. उधर, देश भर में भाजपा पर छाए मोदी प्रभाव पर तो शायद ही किसी को शक हो. यानी लड़ाई के कई पहलू हैं तो नतीजों के भी होंगे ही.