लोकप्रियतावाद के ख़तरे

शिवेंद्र राणा

प्रख्यात संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप राजनीतिज्ञ शब्द को निम्न प्रकार परिभाषित करतें हैं- ‘हमें उस व्यक्ति को राजनीतिज्ञ कहना चाहिए, जो राजनीति में सक्रिय भाग लेता हो, भले ही उसे राजनीति विज्ञान के प्राथमिक सिद्धांतों का भी ज्ञान न हो।’

भारतीय राजनीति के वर्तमान नेतृत्व वर्ग के लिए यह सटीक परिभाषा है। भाजपा की राजनीतिक समायोजन की परम्परा के अंतर्गत एक नयी कड़ी जुड़ी है। चर्चा है कि कवि कुमार विश्वास और लोक गायिका मालिनी अवस्थी को भाजपा अपने कोटे से उत्तर प्रदेश विधान परिषद् भेजेगी। यूनानी दार्शनिक प्लेटो आदर्श राज्य की प्राप्ति के लिए शासन योग्य, कुशल, ज्ञानी एवं स्वार्थहीन दार्शनिक शासकों की परिकल्पना की है। राजनीति एक प्रकार की साधना है। परन्तु भारतीय राजनीति की दशा विचित्र है। यहाँ नेतृत्व-योग्यता का कोई प्रतिमान ही तय नहीं है। सिनेमाई कलाकार, व्यवसायी, क्रिकेट खिलाडिय़ों और उनकी पत्नियाँ ही नहीं, बल्कि सोशल मिडिया इंफ्लूएंसर से लेकर नेताओं के चारण, भाट तक जनप्रतिनिधि बनने को उद्यत हैं। विभिन्न राजनीतिक दलों के उच्च नेतृत्व द्वारा ऐसे आसमानी नेताओं के लिए ज़मीनी स्तर के नेताओं, कार्यकर्ताओं को हटाकर नेपथ्य में धकेला जा रहा है। अत: देश में राजनीतिक नेतृत्व के गिरते बौद्धिक स्तर पर बहुत आश्चर्यचकित होने की आवश्यकता नहीं है।

इसका बेहतर विश्लेषण पूर्व गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी अपनी आत्मकथा ‘मेरा देश मेरा जीवन’ में करते हैं- ‘अपने राजनीतिक जीवन में मैं बहुत जल्दी ही समझ गया था कि राजनीति भारत में एक ऐसा उद्यम है, जिसमें लिप्त लोगों को मिलने वाली ख्याति, शक्ति, सम्मान और पहचान का अकसर उसके नैसर्गिक गुणों से कोई सम्बन्ध नहीं होता। किसी व्यक्ति के राजनीति में प्रवेश करते ही उसे नेता मान लिया जाता है। शीघ्र ही मीडिया में उसकी इतनी चर्चा होने लगती है कि अन्य पेशों में लगे व्यक्तियों, जो उनसे कहीं अधिक प्रतिभाशाली हैं और समाजसेवा में जिनका रिकॉर्ड उनसे श्रेष्ठतर रहा हो; की ईष्र्या का कारण बन जाए। यदि कोई व्यक्ति एक नेता होने के साथ-साथ भीड़ को उकसाने या दंगा-फ़साद कराने की क्षमता भी रखता है, तो उसका और अधिक प्रसिद्ध हो जाना निश्चित है; क्योंकि कुख्याति दुर्भाग्यवश राजनीति में सुनिश्चित लाभ देती है।’

जैसे रजाकर गैंग के उत्तराधिकारी ओवैसी बंधु। अफ़सोस कि इस देश में चपरासी से लेकर अफ़सर तक बनने के कड़े मानक तय हैं; लेकिन नेता बनने के लिए कोई मानक नहीं है। इसके लिए किसी राजनीतिक या धनवान परिवार में पैदा होना ज़रूरी नहीं है; लेकिन चरम-प्रसिद्धि पाने के अलावा किसी भी तरह धनवान होना ज़रूरी है। भले ही उसका तरीक़ा सही हो या ग़लत हो, सभ्य हो या भौंडा हो।

लोकप्रियतावाद की इस क्षुद्रता ने राजनीति को हास्यास्पद बना दिया है। किसी व्यक्ति की लोकप्रियता उसकी सामाजिक संवेदनशीलता, गम्भीर राजनीतिक विमर्श, मूलभूत सामाजिक मुद्दों पर चिन्तन एवं उसकी नेतृत्व योग्यता का प्रमाण नहीं हो सकती। लेकिन वर्तमान दौर की भारतीय राजनीति ज़मीनी काम के बजाय हवाई लोकप्रियता से अधिक प्रभावित है। नेतृत्व की योग्यता जनकार्य की निष्ठा नहीं, बल्कि फेसबुक-ट्विटर के फॉलोवर से निर्धारित होती है। वैसे भी यह भाजपा का शीर्षस्थ-काल है, जिसने बर्बादियों में भी यूरोप-अमेरिका के सपने दिखाये हैं। हालाँकि उसका दावा है कि वह एकमात्र भारतीय धर्म-संस्कृति की रक्षक है।

सिनेमाई कलाकारों का चुनावी राजनीति में प्रचार कार्य को समझा भी जा सकता है; लेकिन जनप्रतिनिधित्व की ज़िम्मेदारी देना उचित नहीं, जब तक कि वे पूर्ण समर्पण से एक निर्धारित समय तक जनसेवा में गम्भीर और वास्तविक योगदान न करें। देश जहाँ पहले से ही नौकरशाही की ख़ामियों से परेशान है, वहीं अब ऐसे बाचाल प्रकृति के लोगों को राजनीतिक नेतृत्व थमाकर राजनीतिक दल क्या संदेश देना चाहते हैं। सिर्फ़ पार्टी नेतृत्व की गणेश परिक्रमा कीजिए, उनके सही-ग़लत कार्यों का बचाव कीजिए और मौक़ा मिलते ही उन्हें महानतम् शख़्सियत बताइए। अगर आलोचना से परे दिव्य व्यक्ति साबित कर सके, तो और बेहतर। असल में भारत की राजनीति पब्लिक ट्रांसपोर्ट की बस जैसी हो गयी है, बस टिकट के पैसे हों, तो हाथ दीजिए और चढ़ जाइए। न योग्यता साबित करने की ज़रूरत है और न ही श्रेष्ठ गुणों से परिपूर्ण होने की आवश्यकता है। बस नकारात्मक तरीक़ों से चर्चा में बने रहने की कला में माहिर होना ज़रूरी है।

राजनीति में इस अनीतिपूर्ण भर्ती से अतीत में कई प्रभावशाली जननेताओं को अपमानित होना पड़ा है। हेमवती नंदन बहुगुणा और राम नाईक जैसे ज़मीनी क़द्दावर नेता क्रमश: अमिताभ बच्चन और गोविंदा अभिनेताओं से हार गये; लेकिन यह परम्परा अब भी गतिशील है। अभिनेता धर्मेंद्र बीकानेर से सांसद निर्वाचित हुए फिर कार्यकाल समाप्त होते ही वापस अपने मुंबइया जीवन में लौट गये। ऐसे ही गोविंदा आये और ग़ायब हो गये। पर इन महानुभावों का राजनीतिक जनसेवा में क्या योगदान रहा है? ये अब भी जानना, समझना बाक़ी है। कई नेता चुने जाने के बाद ऐश-ओ-आराम और फोटो शूट के कारण अधिक सुर्ख़ियों में रहते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर भी यही आरोप लगते रहते हैं। वह कभी चुनावी सभाओं में, तो कभी विदेश यात्राओं में दिखायी देते रहते हैं। गुरुदासपुर से सांसद सनी देओल मुंबई प्रवासी हैं और गम्भीरता से अपने सिनेमा करियर में व्यस्त रहते हैं, उनके संसदीय क्षेत्र में गुमशुदगी के पर्चे तक लगाये गये थे। समझ नहीं आता कि ये लोग अपनी सामाजिक-राजनीतिक ज़िम्मेदारियाँ कैसे पूर्ण करते होंगे?

राज्यसभा के लिए चयनित सचिन तेंदुलकर और अभिनेत्री रेखा ने तो सदन में अनुपस्थित रहने का रिकॉर्ड क़ायम कर दिया। इन्हें न सदन की कार्यवाहियों में रुचि थी, न लोकनीतियों में योगदान की। उस दौरान उपजे विवाद में बहुत-से लोगों ने इन्हें सदस्यता से हटाने की माँग की। प्रश्न है कि जिन्हें सदन में उपस्थित होने में ही रुचि न हो, उन्हें जनसरोकार की ज़िम्मेदारी क्यों सौंपी जाती है? ये लोग जनता के पैसों पर ऐश करते हैं, सांसद, विधायक बनने पर भी और बाद में मुफ़्त की पेंशन व अन्य सुविधाएँ लेकर। पंजाब सरकार ने इस मामले में बिलकुल ठीक ही किया। बौद्धिक जनप्रतिनिधित्व के नाम पर जनता की गाढ़ी कमायी का लुफ़्त उठाने की इजाज़त किसी को भी नहीं दी जानी चाहिए। दूसरे, ऐसे सदस्यों की नियुक्ति के पश्चात् इनके कार्य का मूल्यांकन किया जाना चाहिए और कर्तव्य निर्वहन में कोताही पर वापस बुलाया जाना चाहिए। लेकिन ऐसा  करे कौन, सब एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं।

लोक गायिका मालिनी अवस्थी

राजनीतिक दलों के पास अपने कृत्यों के लिए तर्क सदैव उपलब्ध होते हैं। अगर तर्क संवैधानिक नियमों से परिपुष्ट होता हो, तब इनकी ढिठाई और बढ़ जाती है। भारतीय संविधान बग़ैर निर्वाचन चयनित प्रतिनिधित्व का प्रावधान करता है। संविधान के अनुच्छेद-80(1) के अंतर्गत राष्ट्रपति राज्यसभा के लिए 12 ऐसे व्यक्तियों को नामनिर्दिष्ट करता है, जिन्होंने साहित्य, कला, विज्ञान और सामाजिक विषयों में विशेष ज्ञान या व्यावहारिक अनुभव अर्जित किया है। इसी प्रकार अनुच्छेद-168 के तहत राज्यों में विधान परिषद् के सृजन का प्रावधान है। यह भी राज्यसभा की भाँति आंशिक नामनिर्दिष्ट निकाय है। इसके छठे भाग के लिए वे सदस्य राज्यपाल द्वारा चयनित होते हैं, जिन्हें साहित्य, कला सहकारिता आन्दोलन और समाज सेवा का अनुभव हो। हालाँकि इसका अस्तित्व राज्य विधानसभाओं के निर्णय पर आधारित है (अनुच्छेद 169। इसे ऐक्षिक रखने के पीछे संविधान सभा का तर्क था कि निर्धन राज्यों को अपने राजकोष से अनावश्यक व्यय नहीं करना पड़ेगा। वैसे भी इसे देरी कराने वाला और ख़र्चीला सदन कहा जाता है। इसी के चलते बंगाल और पंजाब ने सन् 1969 में तथा आंध्र प्रदेश ने सन् 1985 में और तमिलनाडु ने सन् 2005 में अपने विधान परिषदों को नष्ट कर दिया। लेकिन सन् 2005 में आंध्र प्रदेश सन् 2010 में तमिलनाडु ने पुन: इसका सृजन कर लिया।

मनोनीत सदस्यों के राज्यसभा अथवा विधान परिषद् भेजने का संवैधानिक पहलू इस विचार पर आधारित है कि ऐसे लोग जो प्रत्यक्ष चुनाव का सामना नहीं कर सकते, उन्हें संवैधानिक प्रमुखों द्वारा उपरोक्त सदनों हेतु मनोनीत किया जाता है, ताकि वे देश और राज्य संचालित करने वाली पंचायतों को अपने बौद्धिकता एवं अनुभव से क़ानून और नीतियाँ निर्धारण करने में योग्य सलाह दे सकें। लेकिन यथार्थ का सैद्धांतिक पहलू से कोई मेल नहीं। राजनीतिक दल अपनी जो भी संवैधानिक मजबूरियाँ बताते हों, किन्तु यथार्थ में इसके पीछे इस लोकप्रिय वर्ग के सहारे येन-केन प्रकारेण जन-भावनाओं को रिझाकर वोट बटोरकर सत्ता सुख पाने की चाहत होती है।

योग्यता के बजाय लोकप्रियता के माध्यम से उभरे नेतृत्व द्वारा राष्ट्रीय हितों के लिए कितना बड़ा संकट पैदा हो सकता है, इसका बेहतरीन उदाहरण भूतपूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ. केनेडी हैं। उनका उभार अमेरिकी राजनीति में रॉक स्टार की तरह हुआ। उनके पिता जोसफ केनेडी एक समय राष्ट्रपति पद के प्रबल दावेदार थे; लेकिन रूजवेल्ट के लम्बे राजनीतिक करियर और व्यक्तित्व के सामने वह दबकर रह गये। द्वितीय विश्व युद्ध के समय ब्रिटेन में अमेरिका के राजदूत रहते हुए उन्होंने अप्रत्यक्ष रूप से हिटलर का समर्थन किया था, जिसके कारण उनका राजनीतिक जीवन समाप्त हो गया। अपनी उसी महत्त्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए उन्होंने अपने छोटे बेटे जैक को सुनियोजित तरीक़े से राजनीति में लॉन्च किया। यही जॉन केनेडी मीडिया और हॉलीवुड के बीच बड़ा लोकप्रिय था। केनेडी राष्ट्रपति चुने जाने से पूर्व भी मीडिया के प्रभाव से बड़े लोकप्रिय थे, किन्तु राष्ट्रपति की कुर्सी पर बैठते ही इस अनुभवहीन ग्लैमर बॉय अमेरिकी प्रशासन का बंटाधार कर दिया। शीतयुद्ध के दौरान रूसी राष्ट्रपति ख़ुश्चेव ने उसे अपने राजनीतिक कुशलता से बिलकुल बौना साबित किया। सन् 1962 के क्यूबा मिसाइल संकट के समय केनेडी ने दुनिया के सामने चाहे जितने तेवर भरे बयान जारी किये; लेकिन परदे के पीछे चल रहे कूटनीतिक युद्ध में ख़ुश्चेव ने उसे घुटने पर ला दिया। केनेडी ने किसी भी तरीक़े से रूस से गुपचुप समझौता करके मामले को रफ़ा-दफ़ा किया गया। अमेरिकी राजनीतिक इतिहास की वास्तविकता यही है कि केनेडी देश के सबसे अयोग्य राष्ट्र प्रमुख रहे हैं। आज भी एक बड़ा बौद्धिक वर्ग ऐसा मानता है कि अमेरिकी हितों के लिए केनेडी ने जो विघटन पैदा किया, उसकी वजह से सी.आई.ए. ने ही उनकी हत्या करायी होगी। ऐसा दूसरा उदाहरण तो प्रत्यक्ष रूप से यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की ही है। एक मसख़रे के रूप में अर्जित लोकप्रियता से राष्ट्रपति पद तक पहुँचने में सफल रहे जेलेंस्की का सामना जब रूसी राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन जैसे तपे-परखे और कठोर निर्णयन के लिए प्रसिद्ध नेता से हुआ, तो यूक्रेन अपना अस्तित्व गँवाने के कगार तक पहुँच गया। राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध अनुभवहीन फ़ैसले लेने वाले जेलेंस्की ने यह मुसीबत ख़ुद बुलायी है। विदेश नीति में उनकी स्तरहीनता का एक पक्ष देखिए कि भारत से मदद की गुहार लगाने वाले यूक्रेन ने वैश्विक मोर्चे पर भारतीय हितों के विरुद्ध सदैव पाकिस्तान और उसके अधिप्रचार का साथ दिया है।

कहने का तात्पर्य यह है कि चुनाव जिताऊ एवं लोकरंजकता के आधार पर नेतृत्व की कसौटी निर्धारित करना राष्ट्र को अंधे रास्ते की तरफ़ धकेल सकता है। टीवी-मीडिया, सिनेमा, संगीत, सामाजिक गतिविधियों आदि से अर्जित प्रसिद्धि राष्ट्रीय नेतृत्व हेतु चयन का आधार नहीं हो सकता। राज्यकर्म संचालन की योग्यता से हीन उम्मीदवार राजनीतिक नेतृत्व हेतु अयोग्य होते हैं। देश की राजनीति ही नहीं, बल्कि आम भारतीय जनता को भी समझना होगा कि शासन-सत्ता का कार्य एवं जनप्रतिनिधित्व विवेकशीलता चिन्तन पर आधारित कार्य है, जिसे लोकप्रियता की कसौटी पर संचालित करना राष्ट्र के प्रति अक्षम्य अपराध है।

(लेखक राजनीति व इतिहास के जानकार हैं। ये उनके अपने विचार हैं।)