छत्तीसगढ़ में 2013 का विधानसभा चुनाव ऐतिहासिक रूप से याद किया जाएगा. इसकी दो वजहें हैं. पहली तो यह कि चुनाव आयोग के नए नियम और कई मामलों में बरती गई सख्ती ने इसे अब तक का सबसे अनुशासित चुनाव बना दिया तो दूसरी यह कि सुरक्षाबलों की रणनीति के चलते राज्य के इतिहास में इसे अब तक का सबसे रक्तहीन चुनाव कहा जा सकता है.
इन दिनों हुए पांच राज्यों के चुनाव में अकेला छत्तीसगढ़ ही ऐसा था जहां चुनाव आयोग ने दो चरणों में चुनाव करवाने का फैसला लिया था. इसके साथ ही वोटिंग मशीन में पहली बार नोटा (नन ऑफ द अबव) का प्रयोग यहीं से शुरू हो रहा था. इस बीच आयोग के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी कि कैसे माओवादियों के बहिष्कार के बीच उनके संभावित हमले को रोका जाए और यह सुनिश्चित किया जाए कि मतदाता बेखौफ होकर मतदान का प्रयोग कर पाएं. राजनीतिक दलों के उम्मीदवारों के खर्चों और आचार-व्यवहार में नकेल कसना भी आयोग के सामने किसी चुनौती से कम नहीं था. अब चुनाव संपन्न होने के बाद साफ हो रहा है कि आयोग की इन चुनौतियों को इसबार सूबे के प्रशासनिक, पुलिस और अर्धसैनिक बलों के अफसरों ने सर-आंखों पर लिया. न केवल सारे प्रयोगों को सफलता से लागू किया गया बल्कि माओवाद को ठेंगा दिखाते हुए उनकी मांद में घुसकर मतदाताओं को सुरक्षा भी दी.
इस पूरी प्रक्रिया में पहली भूमिका छत्तीसगढ़ के मुख्य निर्वाचन अधिकारी सुनील कुजूर और उनकी टीम में शामिल निधि छिब्बर, एलेक्स पॉल मेनन जैसे आईएएस अफसरों की थी. उन्होंने राजनीतिक दलों और उनके प्रत्याशियों को चुनाव के पहले ही सख्ती से याद दिला दिया था कि आयोग की उनपर पूरी नजर है. इस कड़ी में निर्वाचन आयोग ने स्वतंत्र एवं निष्पक्ष मतदान के लिए 3,000 सीसीटीवी कैमरे भी लगाए थे. नतीजा, इसबार राज्य में आचार संहिता उल्लंघन की कोई बड़ी घटना सामने नहीं आई. छत्तीसगढ़ के मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी सुनील कुजूर बताते हैं, ‘ हमारे प्रेक्षकों की पूरे समय प्रत्याशियों पर नजर थी और प्रचार के दौरान इसका असर भी दिखा. इसके अलावा स्वीप प्लान (सिस्टेमैटिक वोटर्स एजुकेशन ऐंड इलेक्टोरल पार्टीसिपेशन) ने भी मतदाताओं को जागरूक करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.’
छत्तीसगढ़ के अतीत के देखते हुए जहां तक संभव हो सके चुनाव को रक्तहीन बनाना दूसरा बड़ा मोर्चा था. इसके लिए सीआरपीएफ के आईजी हरप्रीत सिंह सिद्धू, अन्य अर्धसैनिक बल, छत्तीसगढ़ पुलिस के महानिदेशक रामनिवास और उनकी टीम में शामिल रायपुर आईजी जीपी सिंह, बस्तर आईजी अरुणदेव गौतम की चुस्ती व सतर्क रणनीति काफी कारगर रही. पहले चरण में ही धुर नक्सल प्रभावित क्षेत्रों की 18 सीटों पर संपन्न चुनाव में 67 फीसदी मतदान दर्ज किया गया. दोनों चरणों के मतदान के आधार पर पूरे प्रदेश में कुल 77 फीसदी मतदान दर्ज हुआ जो वर्ष 2008 (71.09) की तुलना में छह फीसदी ज्यादा था. सुरक्षा को लेकर चुनाव आयोग कितना संवेदनशील था यह इसी बात से समझा जा सकता है कि चुनाव में एक लाख से ज्यादा सुरक्षाकर्मी तैनात किए गए थे. इसमें अलग से बुलाई गई अर्धसैनिक बलों की 566 कंपनियां, छत्तीसगढ़ आर्म्ड फोर्स की 60 कंपनियां और डिस्ट्रिक्ट फोर्स की 100 कंपनिया भी शामिल थीं. सीआरपीएफ, बीएसएफ, सीआईएसएफ, इंडियन रिजर्व फोर्स, आईटीबीपी समेत अर्धसैनिक बलों के अलग-अलग दल बनाकर उन्हें जीपीएस से लैस किया गया था. राज्य चुनाव आयोग ने इस बार राज्य के नक्सल प्रभावित बस्तर क्षेत्र के सात जिलों तथा राजनांदगांव जिले में आने वाले 167 मतदान केंद्रों के स्थान को भी परिवर्तित किया था. इनमें वे मतदान केंद्र शामिल हैं जो अंदरूनी क्षेत्रों में आबादी से दूर थे. इन्हें साप्ताहिक बाजार, पुलिस थानों के करीब तथा स्कूल जैसी जगहों पर स्थानांतरित किया गया.
सुरक्षा के लिए उठाए गए इन कदमों की वजह से 2008 के मुकाबले में 2013 में अर्धसैनिक बलों के जवानों ने माओवादियों को कोई बड़ी वारदात करने का मौका नहीं दिया. वह भी ऐसे वक्त में जब ऐन चुनाव के पहले दंडकारण्य जोनल कमेटी के सचिव रमन्ना ने एक पत्र जारी करके विधानसभा चुनाव का बहिष्कार करने का एलान किया था. 2008 के विधानसभा चुनाव में जहां माओवादियों ने 35 एवीएम लूट ली थीं. वहीं चुनाव के दौरान हुई नक्सल हिंसा में 28 लोगों की मौत हो गई थी. जबकि इसबार नक्सली एक भी ईवीएम नहीं लूट पाए. हालांकि अलग-अलग घटनाओं में चार लोगों की मौत जरूर हुई. जो लोग शहीद हुए उनमें दंतेवाड़ा के नयानार में बीएसएफ का एक और सुकमा में सीआरपीएफ के तीन जवान शामिल हैं. इसके साथ ही दूसरे चरण के मतदान के दौरान बेमेतरा जिले के साजा विधानसभा क्षेत्र के भेंडरवानी मतदान केंद्र पर सीआरपीएफ के एक जवान की गोली से भी एक व्यक्ति की मौत हुई. बावजूद इसके अपनी सफलता को लेकर चुनाव आयोग और पुलिस के आला अफसर उत्साहित हैं. सीआरपीएफ के आईजी हरप्रीत सिद्धू कहते हैं, ‘ हमारे जवानों ने उस आखिरी मतदान केंद्र तक मतदाताओं को सुरक्षा मुहैया करवाई, जहां पहुंचना बेहद मुश्किल होता है. जवानों ने लगातार सर्चिंग कर हर बड़ी वारदात को ना केवल नाकाम किया, बल्कि जान माल को नुकसान से भी बचाया.’ वहीं छत्तीसगढ़ पुलिस महानिदेशक रामनिवास बताते हैं कि पुलिस व अर्धसैन्य बलों के साथ सहयोग करके सकारात्मक माहौल बनाने की उन्होंने पूरी कोशिश की थी. वे कहते हैं, ‘ और इसके बाद मतदाताओं को बढ़चढ़कर मतदान में भाग लेना ही था. ‘
पूरे देश की नजरें छत्तीसगढ़ के चुनाव पर ही ज्यादा लगी हुई थीं क्योंकि इसी साल के मई में माओवादियों ने जीरम घाटी में कांग्रेस के 30 नेताओं को मौत की नींद सुला दिया था. यह पहला मौका था जब सरकारी तंत्र पर निशाना साधने वाले नक्सलियों ने सामूहिक रूप से किसी राजनीतिक दल को निशाना बनाया था. ऐसे में सबकी चिंता यही थी कि प्रदेश में विधानसभा चुनाव कैसे शांतिपूर्वक संपन्न हो पाएगा. क्या नेता चिंतामुक्त प्रचार कर पाएंगे? क्या मतदाता सुरक्षित मतदान कर पाएंगे? लेकिन चुनाव आयोग, सीआरपीएफ समेत अन्य सुरक्षा बलों और पुलिस मुख्यालय की कुशल रणनीति और साहसी जज्बे ने इन सारे सवालों के जवाबों को ‘हां’ में बदल दिया.