पार्टी के महाधिवेशन के दौरान निकले जुलूस में समर्थकों की भारी संख्या, उनके जज्बे और अनुशासन ने लोगों को हैरान किया. यह ताकत चुनावी राजनीति में क्यों आपके पक्ष में नहीं बदल पा रही?
यह सही है कि चुनावी राजनीति में कम्युनिस्ट पार्टी और बाकी वाम दलों का प्रदर्शन जिस तरह का होना चाहिए, वह नहीं हो पा रहा. लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी का काम सिर्फ चुनावी परिणामों से ही नहीं मापा जा सकता. लोगों को संगठित करने, समस्याओं पर उन्हें उतारने, संघर्ष के लिए उन्हें तैयार करने की शक्ति पार्टी में आज भी बरकरार है. बेशक कुछ विभेदकारी आंदोलनों ने मसलन संप्रदायवाद, जातिवाद, प्रादेशिकता की राजनीति आदि ने क्षति पहुंचाई है, लेकिन हम देख रहे हैं कि एक बार फिर नवयुवक पार्टी की तरफ आ रहे हैं. अब कम्युनिस्ट पार्टी में सिर्फ सफेद बाल- दाढ़ीवाले नहीं दिख रहे हैं. उम्मीद है कि दो-एक वर्षों में पार्टी फिर उठ खड़ी होगी.
यह तो अपनी कमी का दोष दूसरे पर मढ़ना हुआ कि क्षेत्रवाद, जातीयता, सांप्रदायिक राजनीति ने कमजोर कर दिया!
हमारी कमी यही रही कि हम इन सबके खिलाफ सही रणनीति के साथ संघर्ष नहीं कर सके.
आप आंदोलनों में उम्मीद देख रहे हैं. देखा गया है कि कम्युनिस्ट पार्टियों ने रूस, चीन, क्यूबा आदि में युवा अवस्था में ही क्रांति की. भारत में कम्युनिस्ट पार्टी अब 90 पार की है और समाजवाद अब भी सपना…!
भारत उन देशों की तरह नहीं है. यहां की भाषा, संस्कृति, जाति, मजहब, जीवनशैली आदि में व्यापक विविधता है. इसमें कई विभेदकारी तत्व भी हैं इसलिए यहां वैसी क्रांति संभव नहीं और उन देशों की तरह कम समय में तो कतई नहीं.
बुरे वक्त में एक बार फिर से वाम दलों के एकीकरण की बात कही जा रही है.
एकीकरण से अगर आपका अभिप्राय एक हो जाने का है तो हम समझते हैं कि उस तरह के एकीकरण की फिलहाल कोई संभावना नहीं है. लेकिन ज्वाइंट एक्शन, जनता के मसले पर आंदोलन, जनविरोधी नीतियों का विरोध आदि हम दोनों कम्युनिस्ट पार्टियां साथ मिलकर करंे, जिसकी बहुत जरूरत है.
बंगाल में सीपीएम श्रेष्ठताबोध की राजनीति करती है. बिहार में भाकपा माले खुद को श्रेष्ठ मानती है. एक-दूजे का स्पेस मारने की होड़ है. क्या ऐसी राजनीति करते हुए वाम दलों में साझे अभियान की गुंजाइश है?
जब तक ये पार्टियां अलग-अलग हैं, तब तक चुनावी अखाड़े में कई बार एक-दूसरे की दुश्मन बनकर भी उतरती रहेंगी. वे भी लाल झंडे लेकर उतरते हैं, हम भी. लोगों में लाल झंडे को लेकर भ्रम भी होता है. यह दुर्भाग्यपूर्ण है. हम चाहते हैं कि टकराव कम हो.
महाराष्ट्र के जैतापुर में आप परमाणु संयंत्र का विरोध कर रहे हैं और तमिलनाडु के कोडनकुलम में इसे शीघ्र शुरू करने की मांग कर रहे हैं. यह द्वंद्व क्यों?
यह सही है कि तमिलनाडु में सीपीआई और सीपीएम दोनों यह चाहते हैं कि अगर न्यूक्लियर पावर प्लांट तमाम सुरक्षा उपायों के साथ शुरू हो तो कोई हर्ज नहीं है. लेकिन इसे लेकर अभी भी एक राय नहीं है. जो फंडामेंटलिस्ट हैं वे समझते हैं कि परमाणु ऊर्जा होनी ही नहीं चाहिए. कुछ समझते हैं कि हर किस्म की सावधानी बरतने के बाद यदि हो तो कोई दिक्कत नहीं. इसके बारे में एक राय नहीं बन सकी है. लेकिन इस संबंध में एक राय है कि जोर-जबरदस्ती सरकार ना करे. स्थानीय लोगों की राय को तरजीह दे.
संघर्ष और आंदोलन ही यदि आपकी ताकत है तो हिंदी पट्टी में पिछले कई सालों से संभावनाओं के बावजूद आप कोई बड़ा आंदोलन क्यों नहीं खड़ा कर पा रहे?
मैं इसे स्वीकारता हूं. हम भी उसी बात पर मंथन कर रहे हैं कि जन आंदोलन क्यों नहीं खड़ा कर पा रहे हैं.
वाम दलों की एकजुटता के अलावा किसी और मोर्चे की बात भी की जा रही है?
मैं तीसरे मोर्चे जैसी किसी अवधारणा विरोध करता रहा हूं. इस तरह के मोरचे में कई दफा यही होता है कि कुछ विरोधी पार्टियां एक जगह बैठती हैं और कुछ सीटों का आदान-प्रदान कर लेती हैं. उसमें जनता की समस्याएं कहां हैं, उसमें क्या भूमिका होगी, इन बातों पर चर्चा नहीं होती. कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा जोड़कर कुनबा बनाने के पक्ष मंे मैं नहीं हूं. इसलिए तीसरा मोर्चा न कहते हुए वाम जनवादी मोर्चे की बात कर रहे हैं जिसके मिलान का आधार संघर्ष होगा. तब जनता को विश्वास होगा कि ये हमारे सवालों पर लड़ने वाले हैं. वरना यह संदेश साफ जाएगा कि सारी लड़ाई सत्ता के लिए ही है.
क्या यह भी मानें कि आगे सत्ता के लिए ही कोई वैकल्पिक मोर्चा जैसा बनता है तो आप उसमें शामिल नहीं होंगे?
जब बनेगा, तब देखेंगे.
हालिया चुनाव में गोवा में भाजपा के टिकट से छह ईसाई विधायक बने. पंजाब में अकालियों ने हिंदुओं को टिकट दिया और वे अच्छी संख्या में जीते भी. यह एक नयी परिघटना मानी जा रही है. क्या राजनीति में सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता के मसले की प्रासंगिकता कम हो रही है?
सिर्फ चंद ईसाइयों को गोवा में भाजपा द्वारा टिकट देने से या पंजाब में चंद हिंदुओं को अकालियों द्वारा टिकट देने से उनका जो सांप्रदायिक चरित्र है, वह बदलता नहीं है. वैसे तो भाजपा में भी केंद्रीय स्तर पर दो-चार मुसलमान दिखते ही हैं. इसका मतलब यह नहीं है कि वे हिंदू-मुसलमान या मंदिर-मस्जिद में झगड़ा नहीं लगाएंगे. वे तो लोगों को लड़ाने के लिए हर मौके की तलाश में लगे रहते हैं. उनकी राजनीति की यही मूल रणनीति भी है और वे समझते हैं कि उनके वोट बैंक का आधार भी यही है.
आपने क्षेत्रवाद की बात की. लेकिन अब तो उसी का जोर है. ममता सिर्फ बंगाल सोचती हैं, नरेंद्र मोदी सिर्फ गुजरात, नीतीश सिर्फ बिहार आदि-आदि. राष्ट्रीय राजनीति तो हाशिये पर है. भविष्य में इसका असर कैसा होगा?
क्षेत्रीय राजनीति में और क्षेत्रीय पार्टियों की इन भावनाओं के पीछे कुछ आंशिक सत्य भी है. केंद्र का दोहरा रवैया अपनाने से ऐसा होता है. कुछ यह भी सच है कि पूंजीवादी व्यवस्था में विकास हमेशा असमतल होता है. महाराष्ट्र को ही देखिए. विदर्भ और मराठवाड़ा अपने हाल में रह गए लेकिन मुंबई में सारा विकास हो गया. यह पूंजीवादी विकास का मार्ग है, इसकी वजह से क्षेत्रीय पार्टियों का और क्षेत्रवाद का उभरना स्वाभाविक है. लेकिन यह पूरी तरह सच भी नहीं है. मैं यह चाहता हूं कि ये जो क्षेत्रीय पार्टियां हैं, वे सारे देश के हित और स्वार्थ को भी ध्यान में रखें. कटु भावनाएं पैदा न करें. बिहारी-बंगाली न करें.
चीन के समाजवादी माडॉल पर क्या कहेंगे?
चीन तो कभी हमारा माॅडल रहा ही नहीं है. हमने तो बहुत पहले ही उसे खारिज कर दिया था. एक समय में पार्टी में बात चली थी कि रूस या चीन का मार्ग अपनाया जाए लेकिन तभी हम लोगों ने मजबूती के साथ कहा था कि न हमको उनका मार्ग अपनना है न इनका. हमें अपने देश के इतिहास, उसकी खूबसूरती, आंदोलन आदि के आधार पर ही आगे बढ़ना है.
देखा तो यह जा रहा है कि कट्टर माओवादी धारा ने लोकतांत्रिक वामपंथ को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया!
आप बिल्कुल सही कह रहे हैं. बंदूक की नोक पर लोग समाजवाद की ओर अग्रसर नहीं होंगे बल्कि यह चेतना और जनजागृति के आधार पर ही संभव होगा. अब हो यह रहा है कि वे एक बंदूक दिखाते हैं तो शासक दल जवाब में दस बंदूक निकालते हैं. दोनों के बीच में लोगों पर दमन बढ़ता है.
झारखंड जैसे राज्य में तो दो दर्जन माओवादी संगठन बन गए हैं. क्या आप मानते हैं कि माओवादियों का चरित्र भी कई जगह अपराधियों जैसा होता जा रहा है?
यह डीजेनेरेशन की प्रक्रिया है. आप लोगों के हाथ में बंदूक थमा देंगे और यह भावना पैदा कर देंगे कि बंदूक की नोक पर सब होता है तो इससे आगे चलकर फिरौती, डकैती, अपहरण, धमकी, वसूली आदि की प्रवृत्तियां पैदा होंगी ही.
मीडिया से वाम दलों को बहुत शिकायत रहती है, लेकिन कहीं न कहीं मीडिया आज एक ताकत के रूप में है. आपके पास लाखों कैडर हैं. बड़ा संगठन है. क्यों नहीं अपना वैकल्पिक मीडिया खड़ा कर पा रहे हैं?
मीडिया की भूमिका बहुत बड़ी है और बढ़ी भी है. लेकिन यह भी सच है कि मीडिया में अब कॉरपोरेट घराने आगे आ गए हैं. मीडिया की जो स्वतंत्रता थी, धीरे-धीरे उसका क्षय हो रहा है. रही बात हमारी तो इस वक्त हमारे पांच दैनिक चल रहे हैं पांच राज्यों में. हिंदी इलाके में एक भी नहीं है, यह अफसोस की बात है. हम चाह रहे हैं कि वहां भी एक दैनिक शुरू करें.
हिंदी इलाके में तो पार्टी का अस्तित्व ही दांव पर लगा दिखता है.
हां यह सही है, लेकिन हमने अपना सम्मेलन इस बार हिंदी इलाके के गढ़ पटना में किया है तो इसे भी एक कदम ही मानिए. हिंदी इलाके में कम्युनिस्ट को बढ़ाने के लिए प्लान और संकल्प दोनों है.
आरोप लग रहे हैं कि बिहार में सम्मेलन होने के बावजूद सीपीआई बिहार के ठोस मुद्दे इसलिए नहीं उठा रही क्योंकि कल को नीतीश यदि भाजपा का साथ छोड़ेंगे तो आप साथ होंगे.
नहीं, ऐसा नहीं होगा. कम्युनिस्ट पार्टी अपने दम पर, अपनी शक्ति जुटाकर पुराने तेवर में आएगी.