राजे को रास नहीं आएँगे और आसमाँ

बक़ौल एक विश्लेषक वसुंधरा राजे ने कभी भी राजस्थान की राजनीति से बाहर क़दम रखने की ख़्वाहिश नहीं की। अलबत्ता राजनीति उनका ख़ास शगल है। सूत्रों की मानें, तो इस बार उन्हें विधानसभा चुनावों में अगुवाई से अलग रखा जा रहा है। वजह कहा जाता है कि भाजपा आलाकमान इन सियासी अक्षरों की इबारत को मिटाना चाहता है कि राजस्थान में भाजपा को चुनावी फ़तेह सिर्फ़ वसुंधरा का चेहरा ही दिला सकता है।

बतौर सूत्र, इस मसले में सिर्फ़ वसुंधरा को ही हुनरमंद माना जाना है। पिछले दिनों तब वसुंधरा को राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाया गया, तो उनके समर्थक ख़ुशियों से उछल पड़े। लेकिन हक़ीक़त समझ में आयी, तो इबारत कुछ और निकली कि उन्हें अब संगठन में काम करने भेज दिया गया है। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नड्डा के मुताबिक, संगठन में शामिल नेता चुनाव नहीं लड़ सकेंगे। उन्हें सिर्फ़ राज्यों का चुनावी प्रबंध देखना होगा। दिलचस्प बात है कि चुनावी प्रबंध का दायित्व भी वसुंधरा को अन्य राज्यों का सौंपा गया है। सूत्र कहते हैं कि राजस्थान का चुनावी प्रबंध देखने के दौरान राजे अपने लिए कोई गली निकाल सकती हैं।

विश्लेषकों का कहना है कि वसुंधरा के अतीत के पन्नों को टटोला जाए, तो समझ में आ जाएगा कि उन्हें सत्ता की सियासत से दरकिनार कर हाशिये पर डालना आसान नहीं है। हालाँकि भाजपा के उच्च पदस्थ सूत्रों का कहना है कि उन्हें चुनावी अगुवाई से परे करने का मक़सद सचिन पायलट की सम्भावित तीरंदाज़ी से बचना है। लेकिन राजे को यह ख़ुराक हज़म नहीं हो रही। सूत्रों का कहना है कि आइंदा 15 दिनों में राजे कोई नया गुल खिला सकती हैं। लेकिन क्या?

विश्लेषकों का कहना है कि यह सब कहते हुए राजे एक बार फिर अबूझ पहेली की तरह नज़र आयीं। लेकिन एक ख़ामोश एहसास ज़रूर उनके चेहरे पर हावी होता नज़र आया। जानकारों का कहना है कि हाल की चन्द घटनाओं का गणित समझें, तो भाजपा नेतृत्व और वसुंधरा राजे के बीच राजनीतिक टकराव की चिंगारी भडक़ चुकी है। भाजपा के कार्यकारी अध्यक्ष नड्डा और राजे के बीच आपस में गहराते संकट की अफ़वाहों का बाज़ार किस क़दर तप चुका है? राजे राजनीतिक ताक़त के रूप में अपनी अहमियत किस क़दर गँवा चुकी हैं? इसका अंदाज़ा नड्डा के दो-टूक लफ्ज़ों से हो जाता है कि आपको किसी सूबे का गवर्नर बना दिया जाए? अथवा आप चाहें, तो केंद्रीय राजनीति में आपको सक्रिय कर दिया जाए?

विश्लेषकों का कहना है कि राजे कोई नौसिखिया राजनेता नहीं हैं। इस बात का तो सपने में भी गुमान नहीं किया जा सकता कि राजे भाजपा की बदली हुई राजनीतिक संस्कृति न समझ पायी हों? और अब तक अपने अँगूठे को ही घायल करती रही हों? ऐसा क़तई नहीं था। उन्होंने ‘क्या’ और ‘क्या नहीं’ के बीच सीमा रेखा खींचते हुए कहा कि मैं पार्टी के हर फ़ैसले के साथ हूँ; किन्तु स्वाभिमान से समझौता नहीं कर सकती। उन्होंने राजनीतिक विरोधाभास का ख़ुलासा करते हुए कहा कि प्रदेश के कुछ नेता पदाधिकार मिलने के साथ ही पार्टी की रीति-नीति भूल गये। क्यों हुआ ऐसा? क्या उन्हें अनुशासन का पाठ नहीं पढ़ाना चाहिए?

इस बयान में राजे का इशारा किसकी तरफ़ था? किसके टटके और अनगढ़ तौर-तरीक़े सशंकित करने वाले थे? आख़िर राजे का विराट असमंजस क्या था? कांग्रेस के सियासी संग्राम की फ़िज़ाँ में भाजपा के अदृश्य दाँव-पेंच में राजे की चुप्पी का रहस्य क्या था? हालाँकि राजे ने अपनी चुप्पी को सावन मास में पूजा-अर्चना की ख़ातिर धौलपुर प्रवास को वजह बताया। लेकिन सूत्र कहते हैं कि राजे का अतीत इसकी पुष्टि नहीं करता। अनेक मौक़ों पर अपने दमख़म का परिचय दे चुकी राजे की चुप्पी ज़िम्मेदारी से दूर भागने की कहानी तो नहीं हो सकती। राजे के स्पष्टीकरण में किसी धारावाहिक से कम नाटकीयता नहीं थी। उनके हर सवाल उनकी जवाबतलबी की बजाय प्रदेश भाजपा अध्यक्ष सतीश पूनिया, विधानसभा में उपनेता राजेन्द्र सिंह राठौड़ और भाजपा के घटक दल के राष्ट्रीय लोकतांत्रिक मोर्चा के नागौर सांसद हनुमान बेनीवाल को कटघरे में खड़ा कर रहे थे।

सूत्रों की मानें, तो राजस्थान में जिस तरह भाजपा की संगठनात्मक गतिविधियाँ बदल रही हैं। तमाम तरह की राजनीतिक गतिविधियों पर पूनिया की पकड़ मज़बूत होती जा रही है? राजे को इस खेल कोई तवज्जो मिल पाएगी? सोचना भी $गलत है। सूत्र कहते हैं कि अपने दर्द और स्वाभिमान से इत्तिफ़ाक़ रखने वाली राजे गर्दन झुका लेंगी? सम्भव ही नहीं। विश्लेषकों का कहना है कि राजे को राजस्थान की राजनीति से बेदख़ल करना एक दु:स्वप्न तो हो सकता है; हक़ीक़त नहीं। मोदी और शाह पिछले साल भर से राजे से कन्नी काटे हुए हैं। क्या शाह फिर राजे को मिलने का मौक़ा देंगे? इसके कोई आसार ही नहीं हैं। स्वाभिमानी राजे के पास एक ही आख़िरी हथियार बचा है- ‘थर्ड फ्रंट।’

दिल्ली की बेख़ुदी बेसबब भी तो नहीं, कुछ तो पर्दादारी है। आख़िर इस दोहरे खेल का क्या मतलब है कि एक तरफ़ तो प्रदेश कार्यकारिणी में वसुंधरा समर्थकों को फटकने तक नहीं दिया। दूसरी तरफ़ वसुंधरा को कोर कमेटी में शामिल कर लिया गया है। विश्लेषकों का कहना है कि यह ख़बरों के सिलसिले को अपने हिसाब से फेंटने और लगातार आ रही बुरी ख़बरों से ध्यान भटकाने की कोशिश भी हो सकती है। अलबत्ता यह कोई साधारण सियासी गणित नहीं है। इस गणिताई के जो भी मायने रहे हों? वसुंधरा ने कोर कमेटी की बैठक में जाना तो दूर, उधर रुख़ भी नहीं किया। भले ही पूर्व प्रदेश अध्यक्ष सतीश पूनिया अपने दफ़्तर में अपनी पीठ ठोकने की मुद्रा में बैठे हों; लेकिन उनकी कार्रवाइयों में षड्यंत्र की छाया छिपाये नहीं छिपती। विश्लेषकों का कहना है कि भाजपा नेतृत्व और वसुंधरा राजे के बीच यह लुकाछिपी का खेल विधानसभा चुनावों में भाजपा की पराजय के बाद से ही चल रहा है। इस सियासी पतंग की डोर आरएसएस के हाथों में है।

सूत्रों की मानें, तो संघ वसुंधरा को सक्रिय राजनीति या चुनावी राजनीति में देखना ही नहीं चाहता। नतीजतन लाख प्रतिरोध के बावजूद वसुंधरा राजे को नेता प्रतिपक्ष नहीं बनने दिया गया। कई असहमतियों के बावजूद एक दूरदर्शी फ़ैसले के तहत गुलाबचंद कटारिया को यह पद सौंप दिया गया। जिस वक़्त नेता प्रतिपक्ष पद पर कटारिया की ताजपोशी की जा रही थी, वसुंधरा के चेहरे पर खीझ के भाव साफ़ नज़र आ रहे थे। टीम वसुंधरा के गठन की पटकथा अनायास ही नहीं लिख दी गयी। संभवत: यह मकर संक्रांति की पूर्व संध्या थी, जब वसुंधरा के बेहद ख़ास माने जाने वाले भाजपा विधायक प्रताप सिंह सिंघवी के घर वसुंधरा गुट के तमाम विधायकों और सांसदों की गुप्त बैठक हुई। यह बैठक विधायकों, सांसदों का जमावड़ा अधिक लग रही थी। इस बैठक में वसुंधरा राजे ख़ुद भी वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग से वर्चुअली जुड़ी हुई थीं। अधिकांश की राय थी कि वसुंधरा राजे अपना अलग राजनीतिक बनाये और अगले विधानसभा चुनावों की तैयारियाँ शुरू कर दें।

वसुंधरा को लेकर संघ के ‘थिंक टैंक’ की अनेक आशंकाएँ हैं। संघ के पदाधिकारियों का मानना है कि वसुंधरा शक्तिपुंज बनकर फिर अधिनायकवाद को बढ़ावा दे सकती हैं। तब भाजपा की रीति-नीति के विरुद्ध एक अटपटा परिदृश्य उभर आएगा। एक आशंका यह भी है कि कालांतर में पार्टी में धृतराष्ट्र, भीष्म और गांधारियों का बोलबाला हो जाएगा। इसकी परिणति इस परिदृश्य में हो सकती है कि वसुंधरा का आचरण एहसान करने जैसा हो जाएगा कि उन्हीं के नेतृत्व में भाजपा बहुमत लेकर आयी। अन्यथा किसमें इतनी सामथ्र्य थी? वसुंधरा की वापसी को लेकर पार्टी नेतृत्व भी विश्वास की लीक खींचने को तैयार नहीं है। वसुंधरा का रोचक राजनीतिक रोजनामचा बाँच चुके रणनीतिकार अनेक दृष्टांत गिनाते हैं।

प्रधानमंत्री मोदी से तो राजे के रिश्तों में तब खटास आ गयी थी, जब वसुंधरा प्रतिगामी राजनीति की पटरी पर चल पड़ी थीं। विश्लेषकों ने तो यहाँ तक कह दिया था कि वसुंधरा को राज्य की नयी गवर्नेंस का सूत्रधार होना चाहिए था। वह अचानक मोदी मॉडल की सबसे कमज़ोर कड़ी बन गयी हैं। आईपीएल के पूर्व कमिश्नर ललित मोदी को लेकर पासपोर्ट विवाद ने भाजपा नेतृत्व को कितनी मुश्किलों से दो-चार होना पड़ा था। कहने की ज़रूरत नहीं है। इस मुद्दे को लेकर पार्टी में सुलग रही आग आज भी नही बुझी है। ‘राजमहल’ होटल विवाद ने भाजपा नेतृत्व को क्या कुछ नहीं भुगतना पड़ा था? कहने की ज़रूरत नहीं है।

अतीत के पन्ने पलटें, तो राज्य में समग्र बदलाव का खाका खींचने के लिए केंद्रीय नेतृत्व ने राजे को विकल्प भी दिया था कि आम चुनाव जीतने के बाद विधानसभा सीटों से इस्तीफ़ा दिलाकर उनके बेटे दुष्यंत को चुनाव लड़वाया जाए, ताकि राज्य की सियासत में युवा सक्रिय भूमिका निभा सके। लेकिन राजे ने केंद्रीय नेतृत्व के दाँव पर खेलने से साफ़ इनकार कर दिया। राजे लोकसभा चुनाव लडऩे के लिए इसलिए भी तैयार नहीं थी, क्योंकि इससे उनके बेटे दुष्यंत की उम्मीदवारी ख़तरे में पड़ जाती, जो इस समय झालावाड़ से सांसद है। राजे के निकटवर्ती सूत्रों का कहना है कि वह इस व्यवस्था के पीछे छिपा संदेश पढ़ चुकी थी। उन्होंने इस बात को भी समझ लिया था कि उन्हें सियासत की किस धुरी पर स्थापित किया जाएगा?

सूत्र कहते हैं कि राजे इस मुद्दे पर भी नाराज़गी भरी चुप्पी साधे रही है कि उन्हें पार्टी संगठन में उपाध्यक्ष का ओहदा तो बख़्श दिया; लेकिन लोकसभा चुनावों के लिए बनायी गयी 17 समितियों में से उन्हें एक में भी जगह क्यों नहीं दी गयी? जबकि इन समितियों में केंद्रीय मंत्रियों, संगठन के पदाधिकारियों और हिन्दी भाषी राज्यों के नेताओं को प्रमुखता से जगह दी गयी।

राजे के निकटवर्ती सूत्रों का कहना है कि उन्हें यह कहकर उपाध्यक्ष बनाया गया था कि उन जैसी जनाधार वाली और सक्रिय नेता के दिल्ली जाने से पार्टी को राष्ट्रीय स्तर पर मज़बूती मिल सकती थी । उनकी तेज़-तर्रार नेता की छवि और अनुभव का फायदा पार्टी को आम चुनावों में राजस्थान समेत अन्य राज्यों को मिल सकता है, तो फिर समितियों से दूरी क्यों?