इन दिनों देश की राजनीतिक हवा एक बवंडर का रुख़ अख़्तियार कर चुकी है। यह बवंडर राजनीतिक दुश्मनी के साथ-साथ गृह युद्ध को बढ़ावा देने वाला है। ऐसा लगता है कि इस राजनीतिक बवंडर में कई नेता उड़ जाएँगे और कई नेता सत्ता के पटल पर और चमकेंगे। हालाँकि कौन हमेशा के लिए उड़ जाएगा और कौन स्थापित होकर चमकेगा? यह अभी शतरंज के खेल की तरह उत्साह और उलझाव की गर्त में है, जिसके लिए इंतज़ार के सिवाय हमारे पास कुछ नहीं है। अभी पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों का कोलाहल थमा है और परिणाम का इंतज़ार है। इसके साथ ही आगामी लोकसभा चुनाव का कोलाहल शुरू हो चुका है। विधानसभाओं के बाद लोकसभा चुनाव में जीत की तिकड़में भिडऩे लगी हैं। सभी को इन दोनों चुनावों में बड़े परिवर्तन की उम्मीद है।
परिणामों की बेसब्री जनता को भी है और नेताओं को भी। क्योंकि ये चुनाव परिणाम तय करेंगे कि देश की राजनीति में किसकी क्या गति होने वाली है। हक़ीक़त में चुनाव जीतकर सत्ता में पहुँचने का यह राजनीतिक बवंडर एक-दूसरे का राजनीतिक करियर समाप्त करके आगे बढऩे की होड़ के चलते उठा है। लेकिन आश्चर्य यह है कि इस बवंडर के उठने से राजनीतिक रूप से ताक़तवर चेहरों पर घबराहट साफ़ दिखायी दे रही है। यह घबराहट राजनीतिक पलटवार से ज़्यादा जनाक्रोश के चलते पैदा हुई है। इस जनाक्रोश के चलते पासे पलटते हुए नज़र आ रहे हैं। राजनीतिक दाँव भी उलटे पडऩे लगे हैं। प से पप्पू की जगह प से पनौती अर्थ बन गया है। अति भत्र्सना और भाषायी छिछोरेपन के सारे हमले उलट पड़ चुके हैं। जनता की चौतरफ़ा नाराज़गी ने कुछ लोगों को अति-आत्मविश्वास की तंद्रा से जगाकर उनका आत्ममुग्धता का भ्रम तोडक़र रख दिया है। ऊपर से चुनावी परिणामों के पूर्व के अनुमानित आँकड़ों (एग्जिट पोल) ने एक बड़ा झटका दिया है।
चुनाव परिणामों को लेकर सामने आये अनुमानित आँकड़े बता रहे हैं कि हाल ही में हुए पाँच राज्यों के चुनाव परिणाम सबसे ज़्यादा कांग्रेस के पक्ष में आने वाले हैं। हालाँकि अधिकतर एजेंसियों ने ज़्यादातर राज्यों में भाजपा और कांग्रेस के बीच काँटे की टक्कर का अनुमान जताया है। अगर नतीजे एग्जिट पोल के हिसाब से आये, तो एक बड़ा झटका देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी को लगेगा और अगले वर्ष होने वाले लोकसभा चुनावों पर इसका बहुत गहरा असर पड़ेगा।
यह तो तय है कि आने वाले दिनों में देश के राजनीतिक समीकरण बदलेंगे। इन समीकरणों को बदलने के पीछे सबसे बड़ा काम ज़मीनी मुद्दे करेंगे। पिछले कुछ वर्षों से देश के ज़्यादातर लोगों का ध्यान धर्म और वादों से हटा है और अब वे सत्ता से अपने हित में काम करने की इच्छा लेकर राजनीति में आने वालों के पक्ष में मतदान करने का मन बना चुके हैं।
यह पहली बार हुआ है कि देश का एक बड़ा तबका वादों और जुमलों के चंगुल से बाहर निकलकर ज़मीनी स्तर पर काम की माँग कर रहा है और उसका तुरन्त फ़ायदा भी चाहता है। उसे दिखायी गयी तरक्क़ी को वह ज़मीन पर उतरते देखना चाहता है। उसे अपने घर की ज़रूरतें पूरी करने के लिए काम चाहिए। उसे ख़ाली पेट भाषणों की खुराक नहीं चाहिए; भरपेट भोजन चाहिए।
यह जनता की सोच कोई नयी नहीं है; लेकिन उसमें यह जागृति देश में कुछ राज्य सरकारों के ज़मीनी स्तर पर काम करने के बाद का$फी प्रबल होकर उभरी है। यादों के पन्ने पलटें, तो देखेंगे कि सन् 2012 से सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी को समाप्त करने की कोशिशों के बीच दिल्ली में एक ऐसी पार्टी ने जन्म लिया, जिसने काम करने की इच्छा से आगे बढक़र देश की जनता को दो बड़े मुद्दे दिये। एक- मूलभूत सुविधाएँ मुफ़्त देना और दूसरा- काम के लिए वोट माँगना। हालाँकि ईमानदारी से भ्रष्टाचारमुक्त सरकार चलाना इस पार्टी का एक और मुद्दा भी रहा, जिस पर कुछ विवादों के चलते विवाद जारी है। लेकिन इन मुद्दों का जनता पर इतना असर हुआ है कि कोई भी राजनीतिक पार्टी अब इन मुद्दों से बच नहीं पा रही है। न चाहते हुए भी सभी पार्टियों को जनता के लिए मूलभूत सुविधाएँ मुफ़्त देने का वादा करना पड़ रहा है। काम करने की बात करने पड़ रही है। यह राजनीतिक बदलाव बदला लेने और एक-दूसरे को समाप्त करने की राजनीति पर भारी पड़ रहा है।
इस तरह कई मुद्दों और राजनीतिक दाँवपेच का जो बवंडर अब देश में उठा है, उसका नतीजा देश देखना चाहता है। हो सकता है कि ये राजनीतिक बवंडर एक भ्रष्टाचारमुक्त ईमानदार राजनीति को जन्म दे। लेकिन इससे भ्रष्टाचार की दलदल में गले तक धँसे हुए नेता फँस गये हैं। भ्रष्टाचार करने वाले समझते हैं कि जनता को राजनीतिक समझ उस स्तर की नहीं है, जिस स्तर की वे राजनीति खेल करते हैं। लेकिन ये नेता भूल गये कि जनता इतनी भी अंधी नहीं है कि कुछ भी न देख सके।