रणछोड़!

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2009 यानी पिछले लोकसभा चुनावों के दौरान भाजपा की अगुवाई वाले एनडीए ने सत्ताधारी यूपीए के सामने एक दिलचस्प चुनौती रखी थी. चुनौती यह थी कि जिस तरह अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव के दौरान राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार टीवी पर आकर सीधी बहस में हिस्सा लेते हैं उसी तरह मनमोहन सिंह भी बहस के मैदान में उतरें. यूपीए ने यह चुनौती खारिज कर दी थी. इसके बाद एनडीए ने लगभग सभी चुनावी रैलियों में इसे मनमोहन सिंह की कमजोरी के रूप में प्रचारित किया था. प्रधानमंत्री पद के दावेदारों के बीच खुली बहस का सवाल उठाने वाली जमात में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी भी उस वक्त खूब जोर-शोर से सक्रिय थे. उस दौरान मोदी ने समाचार चैनलों को जितने भी साक्षात्कार दिए उनमें अधिकांश मौकों पर उन्होंने इस ‘सीधी बहस’ की तरफदारी की थी.

पांच साल बाद आज देश फिर आम चुनावों की चपेट में है और एनडीए की अगुवाई इस बार खुद नरेंद्र मोदी कर रहे हैं. लेकिन पांच साल पहले तक प्रधानमंत्री पद के दावेदारों के बीच खुली बहस की हिमायत करने वाले मोदी इस बार अपनी बारी आने पर इस विचार से पूरी तरह पलटी मारते दिख रहे हैं. पीएम उम्मीदवार घोषित होने के बाद से देश भर में रैलियां करते मोदी भले ही एकतरफा संवाद अदायगी से दावे और वादों की झड़ी लगाने में जुटे हैं, लेकिन प्रधानमंत्री पद के दावेदारों के बीच खुली बहस के सवाल के सामने उनका अश्वमेध अभियान बुरी तरह हांफता नजर आता है. इस तरह की खुली बहस तो दूर की बात है, वे समाचार चैनलों द्वारा आयोजित किए जा रहे इंटरव्यू और ऐसे परिचर्चा कार्यक्रमों तक में भाग लेने से बच रहे हैं जिनमें आम जनता को बतौर भागीदार शामिल किया जा रहा है.

पिछले दिनों एक ऐसे ही कार्यक्रम में इंटरव्यू देने की हामी भरने के बावजूद ऐन मौके पर वे इससे कन्नी काट गए. यह इंटरव्यू सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक और यूट्यूब चैनल न्यूजलॉन्ड्री द्वारा बनाए गए कार्यक्रम ‘कैंडिडेट्स 2014’ के लिए किया जाना था. इस कार्यक्रम में आने के लिए मोदी पहले राजी थे. इस बात की तस्दीक खुद  ‘कैंडिडेट्स 2014’ की प्रस्तोता मधु त्रेहन ने कार्यक्रम के पहले एपिसोड में की. चार मार्च को अरविंद केजरीवाल के साथ किए गए उस कार्यक्रम की शुरुआत में ही मधु ने कहा कि, ‘नरेंद्र मोदी ने पहले हामी भरने के बाद, बाद में किसी कारणवश शो में आने से मना कर दिया.’ कार्यक्रम के दौरान मधु त्रेहन ने मोदी को एक बार फिर से सोचने और कार्यक्रम में शामिल होने के लिए दुबारा न्योता भी दिया. इससे पहले उनके चैनल न्यूजलॉन्ड्री ने भी प्रेस रिलीज के जरिए नरेंद्र मोदी के नहीं आने की जानकारी सार्वजनिक कर दी थी. प्रेस रिलीज के मुताबिक न्यूज लांड्री ने तीन मार्च, 2014 को होने वाले पहले इंटरव्यू के लिए नरेंद्र मोदी को महीने भर पहले ही तैयार कर लिया था. 19 फरवरी से कार्यक्रम के प्रोमो भी चलाए जा रहे थे और हजारों सवाल भी आ चुके थे. लेकिन कार्यक्रम से ठीक दो दिन पहले मोदी की ओर से कुछ शर्तें रख दी गईं. इन शर्तों को लेकर न्यूजलॉन्ड्री के इनकार के बाद मोदी ने इंटरव्यू रद्द कर दिया. इस घटनाक्रम के बीच ‘कैंडिडेट्स 2014’ नाम का यह कार्यक्रम लगातार जारी है और इसमें ममता बनर्जी से लेकर अखिलेश यादव तक जनता से सीधा संवाद कर चुके हैं. इनके अलावा दूसरे दलों के नेता भी आने वाले दिनों में इस मंच पर आकर जनता के सवालों से सीधे मुखातिब होंगे.

तो आखिर चुनावी समर में एनडीए के सेनापति घोषित हो चुके नरेंद्र मोदी इस शो में आने को लेकर क्यों कन्नी काट गए. उनका टीवी इंटरव्यू में आने से कतराना इसलिए भी चौंकाता है कि देश भर के सभी राजनीतिक धड़ों में सिर्फ वही एक शख्स हैं जिसे प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया गया है.  सितंबर 2013 में बीजेपी के पीएम कैंडिडेट घोषित होने के बाद मोदी ने एक भी टीवी इंटरव्यू नहीं दिया है. जबकि तबसे लेकर अब तक वे देश भर में घूम कर सैकड़ों रैलियां कर चुके हैं जिनके जरिए वे यूपीए को तो कोस ही रहे हैं साथ ही खुद को प्रधानमंत्री पद का सबसे श्रेष्ठ उम्मीदवार भी बता रहे हैं. ऐसे में यह जानना बेहद जरूरी हो जाता है कि खुद को पीएम पद के लिए सबसे मुफीद घोषित कर चुका यह राजनीतिक लड़ाका मीडिया के अखाड़े में आकर जनता के सीधे सवालों से आखिर क्यों बचना चाह रहा है.

जानकारों के मुताबिक मोदी के मीडिया मिलन का पिछला ट्रैक रिकॉर्ड खंगाला जाए तो इन सवालों का जवाब आसानी से मिल जाता है. इस बात की गहराई में जाने पर मालूम पड़ता है कि मीडिया से बात करने के लिए पहले हामी भरना और फिर पलटी मारना नरेंद्र मोदी की स्वाभाविक प्रवृत्ति रही है. पिछले कुछ सालों के दौरान मीडिया के साथ उनके सीधे संवादों की संख्या वैसे ही बहुत ही सीमित रही है. इस पर भी गजब यह कि इनमें से बहुत-से मौकों पर वे अहम सवालों का जवाब देने के बजाय या तो उन्हें गोल-मोल घुमाते रहे हैं या फिर इंटरव्यू को बीच में ही छोड़ कर खत्म कर चुके हैं.

नरेंद्र मोदी और टीवी इंटरव्यू को लेकर उनके रणछोड़ बनने की घटनाओं का जिक्र किए जाने के क्रम में सबसे पहले 2007 के दौर में चलते हैं. अंग्रेजी समाचार चैनल सीएनएन-आईबीएन के कार्यक्रम ‘डेविल्स एडवोकेट’ के लिए वरिष्ठ पत्रकार करण थापर ने उस साल नरेंद्र मोदी का साक्षात्कार किया था. इंटरव्यू शुरू होने के कुछ ही समय बाद करण थापर ने गुजरात दंगों पर माफी मांगने संबंधी सवाल मोदी के सामने दाग दिया. इस सवाल से भौंचक मोदी पहले तो इधर-उधर की बातें करते रहे, लेकिन जब उन्हें लगा कि थापर अपने सवाल पर अड़े हुए हैं तो पानी मांगने के बहाने मोदी ने इंटरव्यू बीच में ही छोड़ दिया. यह इंटरव्यू साढ़े तीन मिनट तक ही रिकॉर्ड हो पाया था. इस बारे में करण थापर का कहना था कि साढ़े तीन मिनट की रिकॉर्डिंग के बाद लगभग घंटे भर तक वे मोदी को समझाते रहे कि इंटरव्यू पूरा नहीं होने की सूरत में इसे एक खबर की तरह न्यूज बुलेटिन में दिखाया जाएगा. लेकिन बावजूद इसके मोदी ने इंटरव्यू पूरा करने से इनकार कर दिया. इसके बाद सीएनएन-आईबीएन ने अगले दिन लगभग 40 बार अपने चैनल पर इस अधूरे इंटरव्यू को समाचार बुलेटिनों के जरिए प्रसारित किया. तब से अब तक इंटरनेट पर इस वीडियो को लाखों बार देखा जा चुका है, जिसको लेकर मोदी की काफी किरकिरी भी होती रही है. इस बारे में वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी कहते हैं, ‘गुजरात दंगों के भूत से पीछा छुड़ाने की जुगत में लगे मोदी के सामने जब यह सवाल एक बार फिर आया तो उनका असहज होना स्वाभाविक था क्योंकि उनके पास इसका कोई जवाब नहीं है. यह भी एक वजह है कि इसके बहुत बाद तक भी मोदी टीवी पर आने से कतराते रहे हैं.’

इस संदर्भ में इसके दो साल बाद की एक और घटना का जिक्र प्रासंगिक है. अप्रैल, 2009 में टेलीविजन चैनल एनडीटीवी के लिए वरिष्ठ पत्रकार विजय त्रिवेदी ने नरेंद्र मोदी का इंटरव्यू किया था. उस वक्त लोकसभा चुनाव के चलते नरेंद्र मोदी गुजरात में धुआंधार रैलियां कर रहे थे. त्रिवेदी अहमदाबाद से मोदी के साथ हेलिकॉप्टर में बैठे और उन्होंने इंटरव्यू शुरू कर दिया. एक समाचार वेबसाइट के साथ बातचीत में विजय त्रिवेदी कहते हैं, ‘शुरुआती सवाल- जवाब  के लगभग 5-7 मिनट बाद जब इंटरव्यू कुछ गंभीर सवालों की तरफ बढ़ने लगा तो मोदी थोड़े असहज दिखने लगे. इसके बाद जब मैने गुजरात दंगों का जिक्र छेड़ा तो मोदी बुरी तरह असहज हो गए और बिना कोई जवाब दिए इंटरव्यू रोकने का इशारा करने लगे.’ इस वाकये की रिकॉर्डिंग देखने पर पता चलता है कि इस बार भी मोदी ने इंटरव्यू खत्म करने के लिए पानी मांगने का वही पुराना पैंतरा आजमाया था.  बकौल विजय त्रिवेदी, ‘इंटरव्यू बंद होने के 10-15 मिनट तक मोदी और मैं अगल-बगल बिना एक-दूसरे की तरफ देखे चुपचाप बैठे रहे.’ इस तरह नरेंद्र मोदी ने दूसरी बार किसी इंटरव्यू को बीच में ही अटका दिया. बताया जाता है कि इंटरव्यू से पहले यह तय किया गया था कि त्रिवेदी को इंटरव्यू खत्म होने के बाद हेलिकॉप्टर से वापस छोड़ा जाएगा. लेकिन हेलीकॉप्टर से उतरते ही नरेंद्र मोदी उनकी वापसी के लिए एक गाड़ी की व्यवस्था की बात कह कर चलते बने. इस तरह देखा जाए तो मोदी ने इस बार सिर्फ इंटरव्यू को ही नहीं बल्कि इंटरव्यू लेने वाले पत्रकार को भी लटका दिया था.

मीडिया के सामने मोदी के असहज होने की एक और घटना 2012 में भी हुई. यह वाकया स्वामी विवेकानंद की 150वीं जयंती पर गुजरात सरकार द्वारा निकाली गई ‘विवेकानंद युवा विकास यात्रा’ के दौरान हुआ. सीएनएन-आईबीएन के पत्रकार राजदीप सरदेसाई इस यात्रा के दौरान गुजरात भर में घूम रहे मोदी के साथ उनके रथ में सवार थे. इंटरव्यू की शुरुआत में सरदेसाई ने उनसे लोकसभा चुनावों और गुजरात मॉडल को लेकर बातचीत शुरू की. राजदीप के सवालों का जवाब मोदी बड़ी बेबाकी से दे रहे थे. इस बीच राजदीप ने सवालों का स्टीयरिंग गोधरा दंगों की तरफ मोड़ दिया. दरअसल सोनिया गांधी ने गुजरात की एक चुनावी रैली में नरेंद्र मोदी को ‘मौत का सौदागर’ कहा था. राजदीप ने मोदी से इस बाबत सवाल किया, लेकिन कोई भी जवाब देने के बजाय मोदी ने पहले तो चुप्पी साध ली और फिर रथ से उतर कर जनता के बीच चले गए. उसके बाद दुबारा शुरू हुए इंटरव्यू के आखिर में राजदीप ने जब मोदी से गोधरा दंगों पर माफी मागने को लेकर सवाल पूछा तो मोदी ‘बहुत- बहुत धन्यवाद’ कह कर पूरी तरह खामोश हो गए.

2007,- 2009 और 2012 में घटी इन घटनाओं की तुलना की जाए तो एक बात साफ तौर पर यह निकलती है कि तीनों ही मौकों पर मोदी गुजरात दंगों के सवाल पर असहज हुए थे. लेकिन अब जबकि इन दंगों को लेकर वे बहुत-से मामलों में क्लीन चिट पा चुके हैं, ऐसे में टीवी इंटरव्यू से बचने की और क्या वजहें हो सकती हैं. वरिष्ठ पत्रकार राजीव नयन बहुगुणा इसे मोदी द्वारा हाल के समय में अपने भाषणों में की गई तथ्यात्मक गलतियों और विकास के गुजरात मॉडल की आलोचना से जोड़ते हैं. वे कहते हैं, ‘जिस तरह की भयंकर तथ्यात्मक गलतियां मोदी इन दिनों लगातार अपनी चुनावी रैलियों के दौरान कर रहे हैं, उन्हें देखते हुए मोदी को डर है कि टीवी इंटरव्यू अथवा जनता की भागीदारी वाले कार्यक्रमों में उनसे इन गलतियों को लेकर सवाल किए जा सकते हैं. इसके अलावा गुजरात के विकास मॉडल को लेकर जो तमाम तरह की मीडिया रिपोर्टें हालिया समय में सामने आई हैं उन पर भी मोदी की घिग्घी बंध सकती है.’ इससे सहमति जताते हुए ओम थानवी कहते हैं, ‘पिछले दिनों आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने गुजरात जाकर नरेंद्र मोदी से 16 सवालों का जवाब मांगा था जिसको लेकर न तो मोदी और न ही उनकी पार्टी कोई जवाब दे पाई है. ऐसे में समझा जा सकता है कि मीडिया को लेकर मोदी के मन में किस तरह का डर है क्योंकि इतना साफ है कि मीडिया के सवाल भी केजरीवाल के सवालों जितने कड़े हो सकते है.’

यह बात बहुत हद तक सही मालूम पड़ती है. मोदी के गुजरात मॉडल को लेकर उनसे सवाल पूछे जाने शुरू हो गए हैं. केजरीवाल के अलावा ममता बनर्जी भी उनके इस मॉडल पर हाल ही में उसी ‘कैंडिडेट्स 2014’ के मंच पर आकर सवाल कर चुकी हैं जिस मंच पर मोदी ने आने से इनकार कर दिया था.

हालांकि नरेंद्र मोदी के मीडिया से बचते रहने की घटनाओं को लेकर वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई एक दूसरा नजरिया भी सामने रखते हैं. वे कहते हैं, ‘भारत की चुनावी प्रक्रिया में चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों और मीडिया के बीच सवाल-जवाब की न तो कोई बाध्यता है और न ही यह उम्मीदवारों की काबिलियत का एक-मात्र घोषित पैमाना है. किसी नेता का मीडिया के सामने आकर अपनी बात कहना या न कहना पूरी तरह उसकी निजी इच्छा पर निर्भर करता है. इसके अलावा इन चुनावों में अपने वोट बैंक को लेकर जिस कदर नरेंद्र मोदी गदगद हैं उसे देखते हुए भी वे शायद यह मान बैठे हैं कि मीडिया के साथ सवाल-जवाब करने या न करने से उनकी छवि पर कोई नकारात्मक असर नहीं पड़ेगा.

लेकिन एकबारगी यदि यह मान भी लिया जाए कि मोदी अपने पक्ष में उमड़ रहे जनसमर्थन के दम पर मीडिया के सवालों से बेपरवाह हैं, तब भी यह सवाल तो उठता ही है कि प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार को अहम सवालों का सामना करना चाहिए या नहीं. इस पर किदवई खुद कहते हैं, ‘टीवी कैमरा फेस करने या न करने के स्वैच्छिक विकल्प के बावजूद यह बात भी उतनी ही तर्कसंगत है कि प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार घोषित हो चुके नेताओं को जनता के सीधे सवालों का जवाब देने की परंपरा शुरू करनी चाहिए. लेकिन यह भी कोई छुपा तथ्य नहीं है कि कुछ सवालों पर मोदी हमेशा से असहज रहते आए हैं, लिहाजा जब तक संभव हो वे मीडिया से सीधे संवाद से बचना ही चाहेंगे.’

इस सबके बीच एक तथ्य यह भी है कि इस दौरान नरेंद्र मोदी ने कुछ पूरे इंटरव्यू भी किए हैं. लेकिन इन इंटरव्यू को लेकर बहुत-से जानकारों का यह भी मानना है कि इनमें पूछे जाने वाले सवालों को लेकर फिक्सिंग की आशंका से इनकार नहीं किया जाना चाहिए. ओम थानवी कहते हैं, ‘भाजपा का मीडिया मैनेजमेंट इस तरह के कामों में बेहद पारंगत है. और समय-समय पर यह पार्टी अपनी सहूलियत वाले पत्रकार साथियों के जरिए लाभ भी लेती रही है.’

उर्दू पत्रिका नई दुनिया के संपादक और पूर्व सांसद शाहिद सिद्दीकी ने जुलाई, 2012 में नरेंद्र मोदी का इंटरव्यू किया था. इस इंटरव्यू को लेकर हुए कुछ वाकयों से भी थानवी की बातों का मतलब समझा जा सकता है. एक समाचार वेबसाइट के साथ बातचीत करते हुए शाहिद सिद्दीकी का कहना था कि इंटरव्यू लिए जाने से पहले उनसे सवालों की सूची मांगी गई थी, लेकिन उन्होंने ऐसा करने से इंकार कर दिया. हालांकि सिद्दीक़ी के इनकार के बाद मोदी ने उन्हें इंटरव्यू दे दिया था, लेकिन उन्होंने इस पूरे इंटरव्यू की खुद भी वीडियो रिकॉर्डिंग करवाई थी. इस घटनाक्रम से इतना तो समझा ही जा सकता है कि मीडिया द्वारा पूछे जाने वाले सवालों को लेकर मोदी कितने आशंकित रहते हैं.

नरेंद्र मोदी की जीवनी ‘नरेंद्र मोदी: द मैन द टाइम्स’ लिखने वाले पत्रकार निलंजन मुखोपाध्याय ने भी इसकी भूमिका में लिखा है कि अपनी जीवनी लिखे जाने को लेकर नरेंद्र मोदी शुरुआती दौर में सहयोगात्मक मुद्रा में नहीं थे. उन्हें लगता था कि किताब में किए जाने वाले कुछ उल्लेख उनकी छवि को असहज कर सकते हैं. मुखोपाध्याय के मुताबिक हालांकि यह किताब मोदी की जीवनी है फिर भी वे गुजरात दंगों और अपनी पारिवारिक जिंदगी जैसे कठिन सवालों पर जवाब देने से बचते नजर आए हैं. गौरतलब है कि इस किताब में नरेंद्र मोदी की पत्नी जसोदा बेन का खूब जिक्र है. इसके अलावा मोदी द्वारा इस तथ्य को छिपाए जाने को लेकर भी कई जानकारियां इस किताब में हैं. जानकार मानते हैं कि इस तरह के कई दूसरे सवाल जो कि अभी तक पब्लिक डोमेन में नहीं हैं उनसे बचने के लिए भी मोदी मीडिया का सामना नहीं करना चाहते. ओम थानवी कहते हैं, ‘क्या मोदी चाहेंगे कि कोई पत्रकार सीधे इंटरव्यू में उनसे उनकी पत्नी के बारे में सवाल पूछे.’

हालांकि ऐसा नहीं है कि मीडिया से भागने, बचने वाली जमात में नरेंद्र मोदी एकमात्र राजनेता हैं. देश भर के लगभग सभी राजनीतिक दलों में ऐसे बहुत-से नेता हैं जो मीडिया के सीधे सवालों से हमेशा बचते रहे हैं. यह भी एक गौर करने वाला तथ्य है कि खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपने 10 साल के कार्यकाल के दौरान तीन-चार बार ही मीडिया से रूबरू हुए हैं. इसके अलावा कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने भी पिछले दस साल के दौरान हाल ही में अपना पहला टीवी इंटरव्यू दिया. लेकिन नरेंद्र मोदी का मामला इस लिए इन सबसे अलग है कि देश भर के तमाम चुनावी सर्वेक्षणों में उन्हें प्रधानमंत्री पद पर जनता की सबसे बड़ी पसंद के रूप में प्रचारित किया जा रहा है. ऐसे में देश के मूलभूत मुद्दों को लेकर उनकी राय और उस पर सवाल-जवाब जैसी चीज बहुत जरूरी और अहम हो जाती है. तब भी वे इंटरव्यू से भागने वाली जमात के प्रतिनिधि बने हुए हैं. राजीव नयन बहुगुणा कहते हैं, ‘कोई भी नेता अगर अंदर से साफ हो तो उसे मीडिया के सवालों का सामना करने में किसी भी तरह की दिक्कत नहीं होनी चाहिए. लेकिन चूंकि मोदी खुद अंदर से साफ नहीं हैं इसलिए चोर की दाढ़ी में तिनके वाली कहावत के जरिए उनकी स्थिति को समझा जाना चाहिए.’

कुल मिलाकर देखा जाए तो मीडिया के सवालों से बेपरवाह नरेंद्र मोदी का चुनावी अभियान लगातार जारी है. चुनाव सर्वेक्षणों में बाजी मार चुके मोदी को सट्टा बाजार में भी नंबर वन बताया जा रहा है. लेकिन इस सबके बावजूद यह सवाल बना हुआ है कि क्या मोदी कभी उन बहुत सारे सवालों का सामना करने को तैयार होंगे जिनका जवाब उनसे हर कीमत पर पूछे जाने की जरूरत है. मसलन सिकंदर के बिहार आने का वाकया और शहीद भगत सिंह को अंडमान जेल में डाले जाने का जिक्र उन्होंने किस किताब में पढ़ा था?