कभी-कभी मैं चाहता हूं कि किसी शाम आपको चाय पर बुलाऊं और हम किस्लोस्की की कोई फिल्म देखें. शायद ‘अ शॉर्ट फिल्म अबाउट किलिंग’. हम देखें कि खामोशी में कैसे जीवन बसता है,और कैसे मृत्यु. मुझे ‘द रिटर्न’ अक्सर याद आती है, एक रूसी फिल्म, जिसकी ‘घटनाविहीनता’ से ऊबकर मैं उसे बीच में ही छोड़ देने वाला था मगर वह कोई अच्छा दिन था कि मैंने ऐसा नहीं किया. एक पिता, बरसों से छूटे हुए दो बेटे. वह लौटता है एक दिन और उन्हें घुमाने ले जाता है, और जीवन सिखाने. वह सख्त दिखता है और दोनों बच्चे नहीं जाना चाहते. वह उनका पिता है, यह एक सूचना जैसा है उनके लिए. लेकिन फिल्म के उन एक सौ पांच मिनटों के बाद नहीं.
जापानी फिल्म ‘स्टिल वॉकिंग’ में ऐसे ही अपनी पत्नी के साथ एक जवान बेटा लौटता है कस्बे में माता-पिता के पास. और एक दिन बिताता है. उस एक दिन में आपकी आत्मा की कुछ बूंदें छूट जाती हैं. वे जो रंग होते हैं फिल्म के परदे पर, या समंदर की लहरें बस. या बस, उसमें से पीछे झांकते दो लोग या ना भी झांकते, क्या फर्क पड़ता है.
ईरानी फिल्मकार जफर पनाही की फिल्म ‘दायरे’ बहती हुई एक औरत से दूसरी औरत तक जाती है,इस्लामिक शासन वाले ईरान में उन्हें दिखाती हुई. कोई बड़े शब्दों वाली बौद्धिकता नहीं, लेकिन बात बड़ी. यही’क्रिमसन गोल्ड’ करती है जब उसका मुख्य पात्र शुरुआत में ही खुद को गोली मार लेता है. जफर को ईरान सरकार ने छह साल की सजा सुनाई है, सरकार विरोधी फिल्में बनाने के जुर्म में. और बीस साल तक कुछ भी लिखने या फिल्म बनाने पर प्रतिबंध भी लगाया है. कोई इंटरव्यू देने पर भी.
साजिद खान जब किसी इंटरव्यू में ‘फिल्म’ शब्द बोलते हैं तो क्या उसका वही अर्थ होता है, जो जफर पनाही बोलते तो होता, अगर उन्हें बोलने दिया जाता? कभी साजिद खान और जफर पनाही कहीं मिले तो क्या बातें करेंगे? और अजय देवगन और ‘रेजिंग बुल’ के रॉबर्ट डी नीरो? नहीं, नहीं, वह दूर की बात है. अजय देवगन मनोज वाजपेयी या नवजुद्दीन सिद्दीकी से मिलेंगे, तो? या खुद से भी. जख्म और ओमकारा वाले खुद से.’हिम्मतवाला’ का शेर कभी ‘लाइफ ऑफ पाई’ के शेर से मिलेगा तो शेरांवाली मां और गुलशन कुमार के बारे में बात करेगा क्या?
एक सुंदर स्पैनिश प्रेमकहानी है, ‘लवर्स ऑफ द आर्कटिक सर्कल’. संयोगों और दुर्योगों के बीच, याद में कल्पना के रास्ते घुसते दो प्रेमी. उसे हम रात के खाने के वक्त देखेंगे. कभी हम ‘अबाउट ऐली’ के असगर फरहदी की सी बेचैनी से अपनी दुनिया की किसी ऐली को जाते देखेंगे और कोई बच्चा उसे ऐसे खोजेगा जैसे’बाल (शहद)’ नाम की एक तुर्की फिल्म में एक गांव का बच्चा अपने पिता को जंगल में खोजता है. एक-एक पत्ती की आवाज वहां आप साफ सुन सकते हैं.
दुनिया अच्छी है. नहीं है तो हमें उसे अच्छा बनाना है. पर इसके लिए जरूरी है कि हम ‘हिम्मतवाला’ के बारे में कोई बात ना करें.
– गौरव सोलंकी