शाहरुख अपनी जीवनी लिखने की प्रक्रिया में हैं और जब दो साल पहले मेरी उनसे मुलाकात हुई थी तब उन्होंने पहली बार अपनी जीवनी के कुछ बहुत-ही मार्मिक अंश मुझसे साझा किए थे. हम आज की इस बातचीत का स्वरुप सपनों के इस सौदागर के निजी और सार्वजनिक जीवन के इर्द-गिर्द ही बुनने की कोशिश करेंगे. शाहरुख आपने पिछली बार अपनी किताब के जो अंश मुझे पढ़कर सुनाए थे वे मूलतः आपके माता-पिता के बारे में थे. हालांकि आपके माता-पिता बहुत अलग-अलग इंसान थे लेकिन आपका व्यक्तित्व ढालने में दोनों की ही बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही है. एक ओर जहां आपके आदर्शवादी लेकिन गरीब पिता ने स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लिया था वहीं आपकी मां बहुत व्यावहारिक थीं. क्या आप हमें बता सकते हैं कि आपके माता-पिता ने आपके जीवन को किस तरह प्रभावित किया और आज आप उन्हें कैसे याद करते हैं?
जब मैंने इंडस्ट्री में पांच साल पूरे कर लिए थे तभी मुझे विश्वास हो गया था कि मैं यहां एक दशक तक टिकने वाला हूं. तब मैंने सोचा था कि मैं एक किताब लिखूंगा जिसका नाम होगा ‘ट्वेंटी इयर्स इन अ डेकेड’. यह नाम इसलिए कि मुझे पता था कि मैं 20 सालों को एक दशक में जीने वाला हूं. अब मुझे यहां काम करते हुए 22 साल गुजर गए हैं, लेकिन किताब अभी तक पूरी नहीं हो पाई है. किताब के जो अंश मैंने शोमा को पढ़कर सुनाए थे उनमें मेरे निजी जीवन के बारे में विस्तार से लिखा है. मैं अपने पिता को हमेशा एक सफलतम ‘असफलता’ के तौर पर देखता रहा हूं. मुझे उन पर हमेशा बहुत नाज रहा है. मैं उन्हें हमेशा ही एक खूबसूरत और विनम्र व्यक्ति के तौर पर याद करता हूं. वे छह फुट लंबे थे. उनके बालों का रंग गहरा भूरा था और आंखें गेहुंए रंग की थीं. वह एक बहुत हैंडसम पठान लगते थे. मुझे आज भी याद है जब मैं उनके साथ आखिरी बार पेशावर गया तब सिर्फ 14 साल का था. मेरे पिता मुझे दिल्ली के कमानी ऑडिटोरियम के सामने बने चौराहे के पास ले गए और कहा कि यारां, यहीं बैठेंगे और गाड़ियों को आते-जाते देखेंगेवहां हमारे परिवार के सभी लोग 6 फुट 2 इंच से ज्यादा ही लंबे थे और बहुत गोरे थे. वे सभी पंजाबी लहजे में बात करते थे. उन्होंने मुझे देखते ही कहा – ‘ऐन्नू की हो गया ! ऐ तो पठान लगदा ही नहीं है.’ तो मैं ऐसा पठान था. उन्होंने मुझे बहुत कुछ सिखाया और जब मैं 15 साल का था तब वो गुजर गए. मुझे याद है एक बार वो मुझे फिल्म दिखाने ले गए थे. तब हमारे पास पैसे नहीं थे. उन्होंने मुझे यह नहीं बताया कि हमारे पास पैसे नहीं हैं और फिल्म दिखाने के बजाय वो मुझे दिल्ली के कमानी ऑडिटोरियम के सामने बने चौराहे के पास ले गए. मेरे हाथों में मूंगफली पकड़ाते हुए वो अपने पंजाबी लहजे में बोले, ‘यारां, यहीं बैठेंगे और गाड़ियों को आते-जाते देखेंगे. यही सबसे अच्छा होता है.’ इसके उलट मेरी मां ज्यादा व्यावहारिक थीं और उन्होंने बाद में नाराज होते हुए कहा भी कि पैसे नहीं थे तो फिल्म दिखाने के बजाए सिर्फ मूंगफली खिला कर वापस ले आए. वो हैदराबाद से थीं और मेरे पिता से ज्यादा मुखर और बातूनी थीं. मेरे पिता के गुजरने के बाद जैसे उनकी जिंदगी का एकमात्र उद्देश्य हमारी अच्छे से परवरिश करना बन गया था. मेरे पिता पेशे से वकील थे लेकिन उन्होंने कभी वकालत नहीं की क्योंकि उन्हें लगता था कि वो कभी झूठ नहीं बोल पाएंगे. दूसरी तरफ मेरी मां एक मजिस्ट्रेट थीं और बहुत ही उत्साहित रहती थीं. मेरे पिता के जाने के बाद उन्होंने उनके सपने को आगे बढ़ाया. उनका कहना था कि हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि बच्चों को अच्छी शिक्षा मिले. अगर उन्हें अच्छी शिक्षा मिल गई तो जिंदगी उनके लिए ठीक रहेगी. मुझे लगता है कि मैंने अपने पिता से असफलता के लिए डर विकसित किया है. मैं कभी उनकी तरह असफल नहीं होना चाहता. मैं चाहता हूं कि यदि मैं अपने बच्चे को एक फिल्म दिखाने का वादा करूं तो मैं उसे एक फिल्म ही दिखाऊं, ऑडिटोरियम के बाहर बैठकर सिर्फ गाड़ियां न दिखाऊं. मेरी मां बहुत ऊर्जावान महिला थीं और मैंने उनसे सीखा कि हमें किस तरह मेहनत से पैसा कमाना चाहिए ताकि हम अपने बच्चों की परवरिश ठीक से कर सकें. मुझे लगता है कि मैंने उनसे जो भी शिक्षा ली है उसने मुझे एक व्यावहारिक और साथ ही एक व्यावसायिक इंसान के रूप में ढाला है.
सुबह तीन या चार बजे आप जो ट्वीट करते हैं, उनसे आपके व्यक्तित्व का वह हिस्सा झलकता जो आमतौर पर हमें कभी स्टेज या स्क्रीन पर दिखाई नहीं देता. आपने यह भी बताया था कि आपकी बहन का अस्तित्व आपको हर रोज इस बात की याद दिलाता रहता है कि आपको अपने पिता की तरह असफल नहीं होना है. क्या आप अपनी जिंदगी के उस मुश्किल दौर पर कुछ रोशनी डालते हुए हमें यह बताएंगे कि आपके पिता के गुजर जाने का आपकी बहन पर क्या प्रभाव पड़ा ? मैं आपसे यह सब इसलिए पूछ रही हूं कि इन बातों का आपको सुपर स्टार बनाने में बड़ा योगदान है.
मेरे पिता की मृत्यु कैंसर की वजह से हुई थी. कैंसर जो पहले उनके गले में हुआ था और फिर लीवर तक फैल गया. मुझे याद है बाद के दिनों में वे बोल नहीं पाते थे. तब वह लिखकर हमें अपनी बातें बताते. फिर उन्होंने लिखना भी बंद कर दिया और इशारों में हमसे बातें करने लगे. सभी पिताओं की तरह उन्हें भी अपनी बेटी से बहुत प्रेम था. मेरी बहन बहुत सुंदर थी, हमारे घर के सभी लोग बहुत सुंदर हैं. वे अस्पताल में भरती थे. जब एक दिन मैं अस्पताल पहुंचा तो पता चला कि वो गुजर चुके हैं. उनके पैर बहुत ठंडे थे. वो बहुत शांत दिखाई दे रहे थे. कदम दुबले और कमजोर-से, अब वो उस ‘हैंडसम पठान’ की तरह बिल्कुल नहीं लग रहे थे जिसे मैं अपने पिता के तौर पर देखता आया था. अस्पताल से निकलकर मैं और मेरी मां कार में बैठे और मैं गाड़ी चलाकर उन्हें घर ले आया. उस वक्त मैं सिर्फ 15 साल का था और मैंने उसी दिन पहली बार गाड़ी चलाई थी. तब मेरी मां ने मुझसे पूछा कि तुमने गाड़ी चलाना कब सीखा. तो मैंने कहा कि अभी. उस वक्त मेरी बहन लेडी श्रीराम कॉलेज में पढ़ती थी. मैं उसे कॉलेज से लेकर आया और पापा के पास ले गया. मुझे याद है कि मेरी बहन मेरे पिता के पार्थिव शरीर के सामने खड़ी थी. उसने उन्हें देखा. वह न रोई, न ही कुछ बोली बस सीधे मुंह के बल फर्श पर गिर गई. उसके बाद अगले दो साल तक वह कभी सामान्य नहीं हो पाई. बस खामोश रहती थी और स्पेस में देखती रहती थी. हालांकि अब वो बेहतर है दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे के निर्माण के दौरान वह फिर से बहुत बीमार हो गई. डॉक्टरों ने कहा कि अब उसे बचाया नहीं जा सकता. फिर मैं उसे इलाज के लिए स्विट्जरलैंड ले गया और वह ठीक होने लगी. लेकिन वह कभी अपने पिता को खो देने के गम से नहीं उबर पाई. फिर 10 साल बाद हुई मेरी मां की मृत्यु ने उसके लिए चीजें और मुश्किल कर दीं. मां के जाने के बाद हम वो हो गए जिसे मुसलमानों में ‘यतीम’ और ‘यसीर’ कहते हैं. मेरी बहन बेहद जहीन, इंटेलीजेंट पढ़ी-लिखी और समझदार है. लेकिन वह अपने पिता के जाने के गम से कभी नहीं उबर पाई और इस बीच मैंने अपने अंदर कहीं एक विरक्ति, भड़कीलापन, झूठी वाहवाही और सेंस ऑफ ह्यूमर विकसित कर लिया जिसे लोग बहुत पसंद करते हैं. लेकिन यह सब कुछ मैंने अपने अंदर के दुख और डिप्रेशन को छुपाने के लिए किया. मैं अपनी बहन की तरह नहीं बनना चाहता था. मेरी बहन बहुत अच्छी है, वह मुझसे भी अच्छी है. मेरे बच्चे उसे अपने माता-पिता से ज्यादा प्यार करते हैं. वह ईश्वर की बच्ची है और हम सबसे कहीं बेहतर इंसान है. मैं बहुत खुश हूं कि वह हमारी जिंदगी का हिस्सा इस तरह से है, मुझे उस पर बहुत नाज है. लेकिन मुझमें इतनी हिम्मत नहीं कि मैं उस की तरह दुखी और निश्चल रहूं. मैं इतना अच्छा और बेहतर इंसान नहीं कि उसकी तरह दुख को इतने लंबे समय तक जी सकूं. इसलिए मैंने चौबीसों घंटे काम करना शुरू कर दिया. मैं अपने ही कामों का मजाक उड़ाता, हंसी-मजाक करता रहा लेकिन फिर भी काम करता रहा. क्योंकि अगर मैंने काम करना बंद कर दिया तो मुझे भी उसी की तरह डिप्रेशन हो जाएगा. तो मैंने अपने -आप को जिंदा रखने के लिए और डिप्रेशन से दूर रखने के लिए पागलों की तरह काम किया. यह पैसा कमाने, विज्ञापन करने और संपत्ति जुटाने से कहीं बड़ी चीज है. और यही मेरा सच है. मुझे नहीं लगता कि मैं कभी भी अपने जीवन में इससे ज्यादा ईमानदार रहा हूं.
शाहरुख, आपकी शिक्षा और आपके स्कूल-कॉलेज के दिन, आपके जीवन का दूसरा अनछुआ पक्ष है. आपके जीवन के शुरुआती साल दिल्ली में बीते और फिर आप मुंबई आ गए. इन सालों ने आपको कैसे प्रभावित किया और इनकी आपके व्यक्तित्व निर्माण में क्या भूमिका रही? आपने अपने-आप को एक सुपरस्टार के तौर पर कैसे बनाया ?
(हंसते हुए) अरे, मैं हमेशा से ही ऐसा था. बहुत सजीला और बेहद शिक्षित. सेंट-स्टीफन वाले चाहते थे कि मैं उनके यहां पढूं लेकिन मैंने कहा नहीं! मैं कैसे समझाऊं, अगर यहां दिल्ली वाले लोग हैं तो वो समझ जाएंगे. मैं बिल्कुल दिल्ली वाला लड़का हूं. हंसी-मजाक में एक सही बात कहूं तो मैं एक टिपिकल दिल्ली वाला गुंडा हूं ! दिल्ली में जो भी पैदा होते हैं, बड़े होते हैं वो गुंडे ही होते हैं. तो मेरी पैदाइश और परवरिश पर दिल्ली की संस्कृति का बहुत गहरा असर है. हां, लेकिन मेरी पढ़ाई दिल्ली के ‘आयरिश ब्रदर स्कूल’ में हुई और वहां का माहौल बिल्कुल अलग था. सभी बेहद अंग्रेजीदां भाषा में बात करते थे और अंग्रेजीदां सलीके से रहते थे. वहां सब मुझे मिस्टर शाह बुलाते थे. असल में हमारे यहां जब तक बच्चा 18 साल का न हो जाए तब तक अपने नाम के आगे खान नहीं लगा सकता. इसलिए मेरे स्कूल में सभी को लगता था कि मेरा नाम मिस्टर शाह और मेरे पिता का नाम रुख है ! तो अपनी जिंदगी के बड़े हिस्से तक लोग मुझे गुजराती समझते रहे (हंसते हुए ). लेकिन जैसे ही मैं मुंबई आया मेरी यहां खूब लड़ाइयां होने लगीं. स्टारडम मुझे समझ में नहीं आता था और हम दिल्ली वाले ऐसे ही होते हैं. वैसे हम बहुत सभ्य हैं, ठीक से बात कर रहे हैं लेकिन बदतमीजी समझ में नहीं आती. उस दौरान एक मैगजीन ने यह छाप दिया कि मेरे अपनी फिल्म की अभिनेत्री के साथ संबंध हैं. इस झूठ पर मुझे बहुत गुस्सा आया और मैं सीधा उस पत्रिका के दफ्तर चला गया. वहां काफी मारपीट हुई और फिर मुझे जेल जाना पड़ा. मैं अपनी पत्नी को तब से जानता था जब वह सिर्फ 14 साल की थी. अभी वह सिर्फ 22 साल की थी और हमारी नई-नई शादी हुई थी. उसे बिल्कुल समझ में नहीं आ रहा था कि ये क्या हो रहा है, फिल्मस्टार क्या करते हैं, कैसे जीते हैं और फिल्मों के सिवा क्या-क्या करते हैं? ऐसे बातों से वो बहुत परेशान हो जाती थी और मैं दुखी. हम लोग तब बहुत नए थे. तो मैं दिल्ली वाली अपनी पुरानी आदत के तहत लड़ने लगा. अगले दिन जब मैं अपनी फिल्म ‘कभी हां, कभी ना’ की शूटिंग कर रहा था तभी पुलिस मुझे लेने आई. बाद में नाना-पाटेकर ने जमानत देकर मुझे छुड़वाया और मैंने तय किया मैं फिर कभी ऐसा नहीं करूंगा क्योंकि मेरी बीवी बहुत परेशान हो जाती थी. फिर मैंने सभ्य लोगों की तरह रहने का मन बनाया और तब से मैं दिल्ली विश्वविद्यालय में हॉकी खेलने वाले गुंडों के बजाय अपने आयरिश ब्रदर स्कूल वालों की तरह रहा हूं! (हंसते हुए).