जिस समाज में छायाकारों को आमंत्रित करके समारोहात्मक रूप से अपने यौनांगों की तस्वीरें उतरवाने के लिए बेताब विदुषियां हों वहां एक पुलिस अधिकारी द्वारा स्त्री परिधान पर कर दी गई टिप्पणी से ऐसी और इतनी हलातोल मच सकती है कि उसकी अनुगूंजें पश्चिमी समाज की नारी स्वतंत्रता की पक्षधर बिरादरी में भी ऊंचे तारत्व पर सुनाई देने लगें. दरअसल ऑस्ट्रेलिया के एक पुलिस अधिकारी ने कुछेक स्त्रियों के ‘देह दर्शना परिधान में सार्वजनिक स्थल पर विचरण‘ को स्लट वॉक कह दिया. कथन का क्वथनांक इतना बढ़ा कि यहां के स्थानीय अखबारों के नारी केंद्रित पृष्ठों पर भी अभिव्यक्ति का तापमान बढ़ गया. नारीवादी चिंतक भी तैश में आ गए.
विगत में कर्नाटक उच्च-न्यायालय के पूर्व और संप्रति उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति माननीय सीरिएक जोसेफ को भी उनके इस वक्तव्य पर चौतरफा घेर लिया गया था कि ‘ऐसे देह-दर्शना परिधानों में पूजास्थलों पर युवतियों का आगमन श्रेयस्कर नहीं है क्योंकि ऐसे वस्त्रों से छेड़छाड़ की घटनाएं घटती हैं.’ यह निश्चय ही समाज के एक वरिष्ठ नागरिक की सामान्य और सदाशयी टिप्पणी थी. वह न्यायघर की कुर्सी पर बैठ कर दिया गया कोई फैसलाकुन कथन नहीं था. दरअसल उनका आशय कदाचित कम कपड़ों से स्त्री के स्त्रीत्व से कौन-सा काम लिया जा रहा है इसकी ओर ही उनका सहज संकेत था. बेशक वह कोई असावधान भाषा में की गई मर्दवादी टिप्पणी नहीं थी. लेकिन स्त्रीवादियों ने आपत्ति उठाते हुए प्रश्न किया कि आखिर स्त्री क्या पहने और क्या न पहने इसको तय करने वाले पुरुष कौन होते हैं. ऐसी टिप्पणियां स्त्री की स्वतंत्रता का हनन करती हैं.
अब हम थोड़ा-सा स्त्री परिधान की स्थिति का आकलन कर लें. हमारे यहां खासकर उदारीकरण के बाद पश्चिमी वस्त्रों ने स्त्री पहनावे में ऐसा उलटफेर कर दिया कि परंपरागत जातीय परिधान को लेकर उनमें हीनताबोध छा गया है. वह पूरा पहनावा ही उनके लिए लज्जास्पद बन गया है. अमूमन इस तरह के परिधान -प्रसंग में लगे हाथ प्रिंट और इलेक्ट्राॅनिक मीडिया कुरुक्षेत्र में कूद पड़ता है. वह परिधान के मुद्दे को लगे हाथ कट्टरवादियों की हरकत बताता हुआ आग उगलने पर उतारू हो जाता है.
बहरहाल देह-दिखाऊ वस्त्रों को लेकर आपत्ति प्रकट करने वालों को लगे हाथ सीधे-सीधे ‘ड्रेस कोड के पक्षधर फासिस्टों’ की जमात में शामिल कर दिया जाता है. इसमें उभर कर आया, फैशन की डगर पर तेजी से चलता नया पश्चिमी वस्त्र-व्यवसाय भी अपनी ‘साम-दाम’ वाली अप्रत्यक्ष भूमिका अदा करने लगता है. अंत में सारी उठापटक का ‘विसर्जन’ इस निष्कर्ष पर होता है कि स्त्री के परिधान और उसके ‘चयन की स्वतंत्रता को प्रश्नांकित करने वाला पुरुष कौन होता है.’
पश्चिमी वस्त्रों ने स्त्री पहनावे में ऐसा उलटफेर कर दिया कि परंपरागत जातीय परिधान को लेकर हीनताबोध छा गया है
लेकिन, ऐसे सवाल खड़े करने वाले ‘स्त्री स्वतंत्रता’ के गुणीजन भूल जाते हैं कि आज स्त्री जो ‘पहन’ या ‘उतार’ रही है वह ‘बाजार-दृष्टि’ के इशारे पर ही हो रहा है और कहने की जरूरत नहीं कि समूची ‘बाजार-दृष्टि’ पुरुष के अधीन है. वही तय करता है और बताता है कि स्त्री का कौन-सा अंग कितना और कैसे खुला रखा जाए कि वह ‘सेक्सी’ लगे. मैन-ईटर लगे. वह ‘स्त्री की इच्छा’ का मानचित्र अपनी कैंची से काट-काट कर बनाता है.
दरअसल, आज समूचा बाजार और मीडिया ‘युवा केंद्रित’ है और गठजोड़ के जरिए वे यह प्रचारित करने में सफल हो चुके हैं कि जो कुछ भी वे ‘बता’ और ‘बेच’ रहे हैं वही ‘यूथ कल्चर’ है. वे युवाओं में एक मनोवैज्ञानिक भय उड़ेल देते हैं कि यदि उसने वैसा ‘उठना-बैठना’, ‘पहना-ओढ़ना’ या ‘पोशाक’ नहीं पहनी तो ‘लोग क्या कहेंगे’. माता-पिता उसे पिछड़े हुए और ‘तानाशाह’ लगते हैं. वे समझा पाने में असफल रहते हैं कि जिस पोशाक के न पहनने से उसके ‘जीवन-मरण’ का संकट खड़ा हो गया है वह अमेरिका की ‘एसयूजी क्राउड’ का गणवेश है और लो वेस्ट जींस का इतिहास समलैंगिकों (‘गे’ और ‘लेस्बियन’) के ड्रेस कोड से शुरू होता है, जो बाद में चलकर ‘जीएलबीटी समूह’ का पहनावा बन गया.
आज वस्तुस्थिति यह है कि ‘विज्ञापन’ की दुनिया आम तौर पर और ‘फैशन’ की दुनिया खास तौर पर स्त्री की ‘यौनिकता’ के व्यावसायिक दोहन पर आधारित है. यह भी कह सकते हैं कि फैशन का समूचा ‘समाजशास्त्र’ अब परंपरागत ‘सांस्कृतिक आधार’ को छोड़ कर केवल स्त्री की ‘यौनिकता’ के इर्द-गिर्द विकसित होता और चलता है. अब वस्त्र का रिश्ता पहनावे से नहीं, ‘कामुकता’ से है. इसलिए पोशाकें तन ढंकने की जिम्मेदारी की प्राथमिकता से पूर्णत: बाहर होकर, अब केवल तन के कुछ खास हिस्सों की तरफ पुरुष की आंख खींच कर, ‘स्त्री देह की सेंसुअसनेस’ को उभारने में लगी हैं. ‘फ्री साइज’ का फंडा विदा हो चुका है. अब तो उस ‘लापरवाही के सौंदर्य’ की सैद्धांतिकी के दिन भी लद गए. दरअसल, तब भारत में ‘वेस्टर्न गारमेंट ट्रेड’ अपनी जगह बनाने की जद्दो-जहद में था. ‘फिटिंग’ के लिए ग्राहक में क्रेज बनाने से उत्पाद की ‘फटाफट खपत’ में बाधा आती थी. ‘इंडिविजुअल वेरिएशंस’ इतने होते हैं कि हर रेंज का ‘माल’ बनाना और दुकान में रखना व्यापारी के लिए घाटे का सौदा बन जाता.
अब ‘फिटिंग’ वस्त्र विन्यास का सर्वाधिक महत्वपूर्ण मूल्य है. एक बार एशियाटिक सोसाइटी के बाहर सीढ़ियों पर एक ‘लो-वेस्ट जींस’ की ‘एड फिल्म’ की शूटिंग देखने का मौका मिला. वहां चार-पांच युवतियां हाथों में किताबें पकड़े सीढ़ियां चढ़ते हुए खिलखिलाती हुई ‘बैक शॉट’ में हंस रही थीं. पहले ‘टेक’ के बाद फिल्म निर्देशक कैमरामैन को समझाने लगा कि हमें लो-वेस्ट जींस की ‘बैक फिटिंग’ बतानी है. इसलिए, ‘लुक बैक शॉट’ को ऐसा होना चाहिए कि देखने वाले के मन में वह ‘डॉगी फक’ की ‘सेक्सुअल फैंटेसी’ पैदा करे.’ कहने की जरूरत नहीं कि अब यही वस्त्र की भूमिका है. और जींस निर्माता का अभीष्ट भी. न्यायमूर्ति श्री जौसेफ वस्त्रों के विन्यास पर जोर देकर बस यही तो बताना चाहते थे.
बाद इसके उसी लोकेशन पर एक शीतलपेय का शूट था. युवतियां बदल गईं. फिल्म निर्देशक माॅडलों को भद्र भाषा में गंभीर-चिंतनपरक मुद्रा बनाकर समझा रहा था- ‘मैडम लिप्स को ऐसे गोल करिए कि ‘ओरल’ का ‘जेस्चर’ लगे और ‘फेस पर फक्ड का एक्सप्रेशन’ (दैहिक आनंद के चरम की चेहरे पर अभिव्यक्ति) आना चाहिए.’ अंग्रेजी में दिए जाने वाले अश्लील निर्देश भी गूढ़ता अर्जित कर लेते हैं.
बहरहाल, यहां यह स्पष्ट करना जरूरी है कि फैशन अपने अभीष्ट में परंपरागत और पूर्व निर्धारित सामाजिकता के ध्वंस पर अपना आकाश रचता है. वह जहां एक ओर स्त्री की देह की उत्तेजना का दोहन करता है, वहीं दूसरी ओर पुरुष को ‘सांस्कृतिक’ नहीं, ‘शिश्न-केंद्रित’ बनाता है. याद करें, पुरुष में यौनिकता की ‘प्रदर्शन प्रियता’ जो पूर्व में व्यक्ति की सरासर लंपटई लगती थी, अब वह विज्ञापन की दुनिया के ‘माचो मैन’ की अदा में बदल गई है. वस्त्रों में हेर-फेर करके ‘पुरुष’ को नया बनाने में वक्त जाया नहीं होता, जितना स्त्री को नया बनाने में. अब ‘ब्यूटी ऐंड बीस्ट’ का फंडा यहां भी गढ़ा जा रहा है. ‘ब्यूटी’ का अर्थ ‘चेहरे की सुंदरता’ और ‘कमनीयता’ से कम, उसकी अनावृत्त की जाने वाली ‘यौनिकता’ से ज्यादा है. इसलिए, कुछ ही वर्ष पूर्व जिन कपड़ों में ‘स्त्री’ घर के बाथरूम से बाहर नहीं आ पाती थी – वह उन्हीं कपड़ों में अब, चौराहों पर चहचहा रही है. अब देह पर वस्त्रों की न्यूनता स्त्री को ‘हॉट’ के विशेषण से अलंकृत करती है. उन्हें बताया जा रहा है कि माल के खरीदने में ‘चयन की स्वतंत्रता’ ही ‘स्त्री स्वतंत्रता’ है. फैशन के सिद्धांतकार कहते हैं ‘पर्सोना’ पढ़ाई नहीं, ‘परिधान’ से प्रकट होता है. इसलिए युवती जो परिधान पहनती है, वह उसका वक्तव्य है. मसलन वह रोमांटिक है. वह सेक्सी है. वह मैन-ईटर है. वैसे फैशन बाजार ने स्त्री के कई और भी वर्गीकरण और नाम आविष्कृत कर रखे हैं.
शशि थरूर ने एक बार अपने स्तंभ में लिख दिया था कि बाजार साड़ी को इसलिए बाहर कर रहा है चूकि उसमें स्त्री देह की ‘सनसनाती उद्दीप्तता’ िछप जाती है. जबकि बाजार के लिए ‘सेक्सुुएलिटी’ ही प्रधान है. साथ ही उन्होंने साड़ी को भारतीय स्त्री की ‘सांस्कृतिक गरिमा’ से भी जोड़ दिया था. नतीजतन, तमाम ‘नारीवादी समूह’ संगठित हो कर शशि थरूर पर पिल पड़े. यह ‘बाजार-दृष्टि’ का प्रायोजित आक्रमण था. स्त्री की गरिमा की परिभाषा तय करने वाला ये कौन? कहने की जरूरत नहीं कि अब इस ‘फैशन-बाजार समय’ में युवतियों के लिए साड़ी एक निहायत ही ‘लज्जास्पद’ परिधान है. वह ‘इथनिक’ है. वह सेक्सी फीगर वाली युवती को भी ‘भैनजी’ बना देती है.
आज स्त्री यह नहीं जानती कि अंतत: वह पुरुषवादी व्यवस्था का विरोध करती हुई पुरुष के इशारे पर ‘पुरुष’ के लिए पुरुष के अनुरूप खुद ही खुल और खोल रही है. आज स्त्री के ‘निजता’ के क्षेत्र को तोड़कर उसे ‘सार्वजनिक संपदा’ में बदल दिया गया है. मसलन, भारतीय स्त्री के वक्ष पर रहने वाले दुपट्टे या पल्ले को देखें. जो दुपट्टे से ढांका जाता था वह स्त्री की ‘यौनिक निजता’ को बचाता था. अब दुपट्टे के विस्थापन ने उसकी ‘निजता’ को पूरी तरह खोलकर ‘पुरुष दृष्टि’ के उपभोग के अनुकूल और सुलभ बना कर रख दिया है. यह प्रकट ‘यौनिकता’ है जो पब्लिक प्रदर्शन के परिक्षेत्र में है. यह प्रकारांतर से पुरुष की ‘यौन-आकांक्षा के’ अनुरूप स्त्री की ‘यौनिक निजता’ का खुशी-खुशी करवा लिया गया नया लोकार्पण है. पहले चरण में उसने स्थान बदला. वह वक्ष से थोड़ा उठा और गले से लिपटा रहने लगा. फिर वह गले के बजाय कंधे पर आ गया. बाद में वह कंधे से भी उड़ गया.
यह एक सर्वज्ञात तथ्य है कि खुले समाजों में फैशन व्यवसाय का ‘स्पेस’ कम हुआ है. चूंकि जो पहले से ही पर्याप्त खुला हुआ है उसके खोलने में ‘थ्रिल’ नहीं है, वहां अब न्यूडिटी में वृद्धि की मांग है. थ्रिल तो अब एक ‘बंद समाज’ को खोलने में है. भारतीय समाज में अभी भी ‘वस्त्रों’ के जरिए स्त्री की ‘सामाजिकता’ परिभाषित होती है. दुर्भाग्यवश वह अभी भी ‘मां’, ‘बहन’, ‘बेटी’ की पहचान से मुक्त नहीं है. फैशन तभी अपना विस्तार कर पाता है, जब स्त्री को इन पहचानों से पूरी तरह मुक्त कर दिया जाए. तभी वह अपनी सेक्सुएलिटी का संकोचहीन प्रदर्शन कर सकता है. भारतीय समाज में लोग अभी ‘बहन’ या ‘मां’ को ‘सेक्सी’ नहीं कह पा रहे हैं, लेकिन जिस तरह फैशन ‘परंपरागत सांस्कृतिक संकोच’ का ध्वंस कर रहा है, जल्दी पिता कह सकेगा, ‘वाउ! यू आर लुकिंग वेरी सेक्सी माय डॉटर. भाई अपनी बहन को कह सकेगा, ‘यू आर वेरी हॉट!’. कहना न होगा कि मीडिया से मिलकर ‘बाजार’ भारतीय पिताओं और भाइयों को इन संभावनाओं के लिए धीरे-धीरे तैयार कर ही रहा है. हालांकि महानगरीय अभिजन समाज में मां को बिच कहने का सांस्कृतिक साहस कुलदीपकों में आ चुका है.
बहरहाल, यह भारतीय समाज का पश्चिम के वर्जनाहीन खुलेपन की तरफ बढ़ने की प्रक्रिया का पूर्वार्द्ध है. परिधानों में खुलापन आया है, तो निश्चय ही धीरे-धीरे देह और दिमाग दोनों का भी खुलापन आ जायेगा और जब दोनों के खुलेपन बराबर हो जाएंगे, तब उम्मीद की जानी चाहिए कि हमारे यहां जल्द ही कस्बों में भी क्लासमेट्स सेक्समेट्स हो सकने की सामाजिक वैधता पा लेंगे. बस थोड़े-से धैर्य की जरूरत है. अभी तो हमारे भीतर उन्होने पश्चिम के सांस्कृतिक फूहड़पन (यूरो- अमेरिकी ट्रेश) के लिए केवल वस्त्रों के क्षेत्र में ही जबरदस्त भूख बढ़ाई है.
मुलत: 31 जुलाई 2011 को प्रकाशित