मीठे सुरों की माटी

पहली बार धारवाड़ जाते हुए कुछ-कुछ वैसा ही महसूस होता है जैसे हम पहली बार ताजमहल देखने आगरा जा रहे हों. ऐसा इसलिए कि कर्नाटक के इस इलाके का ताल्लुक जिन नामों से जुड़ता है वे न सिर्फ असाधारण हैं बल्कि कई मायनों में भारतीय शास्त्रीय संगीत की दुनिया के शिखर भी. शायद यही वजह है कि यहां जाते हुए एक उत्सुकतामिश्रित रोमांच की अनुभूति होती है.

धारवाड़ कर्नाटक के उत्तरी हिस्से में स्थित जिला है. धारवाड़ उस कस्बे का नाम भी है जो जिला मुख्यालय है. पहली नजर में देखने पर इसमें कुछ भी खास नहीं लगता. ऑटोरिक्शा, भीड़भाड़ और असली धारवाड़ पेड़ा बेचने का दावा करती मिठाइयों की अनगिनत दुकानों से मिलकर जो दृश्य बनता है वह देश के किसी दूसरे आम कस्बे जैसा ही लगता है. इसलिए अगर संगीत का कोई शौकीन यह सोचकर धारवाड़ आया हो कि यहां की हर गली से किराना, ग्वालियर और जयपुर घराने की गायकी में डूबी सुरलहरियां निकल रही होंगी तो पहली नजर में उसे निराशा ही हाथ लगेगी.

आखिर कर्नाटक जैसे धुर दक्षिण प्रदेश का यह इलाका कर्नाटकी संगीत के बजाय हिंदुस्तानी संगीत की धारा का गढ़ कैसे बना

लेकिन यहां ठीक-ठाक वक्त गुजारने और कई लोगों से बातचीत के बाद हमारे दिमाग में उस सवाल के जवाब का एक खाका-सा बनता है जिसने संगीत के मुरीदों की कई पीढ़ियों का दिमाग खूब मथा है. सवाल यह कि आखिर धारवाड़ की मिट्टी में ऐसा क्या है कि यहां से शास्त्रीय संगीत की दुनिया के इतने सारे दिग्गज निकले. सवाई गंधर्व, बसवराज राजगुरु, भीमसेन जोशी, मल्लिकार्जुन मंसूर, गंगूबाई हंगल, कुमार गंधर्व, पुट्टराज गवई सहित तमाम ऐसी हस्तियां हैं जिनका नाता यहां से जुड़ता है. भौगोलिक नक्शे पर भले ही इस जगह की अहमियत एक बिंदु से ज्यादा कुछ न हो मगर शास्त्रीय संगीत के मानचित्र पर धारवाड़ की महत्ता इतनी है कि इसे शास्त्रीय संगीत जगत की राजधानी कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी.

इस इलाके की खासियत इस मायने में भी है कि उत्तर प्रदेश के रामपुर या प. बंगाल के बिष्णुपुर की तरह यह सिर्फ संगीत के इतिहास का हिस्सा होकर नहीं रह गया है. यहां का वर्तमान आज भी भविष्य के दिग्गजों को तैयार करने की प्रक्रिया में व्यस्त लगता है. यहीं के वेंकटेश कुमार, कैवल्य कुमार गौरव, जयतीर्थ मेवुंडी, कुमार मरदुर आज देश में शास्त्रीय संगीत के उभरते नामों में से हैं. सबसे पहला सवाल तो मन में यही आता है कि आखिर कर्नाटक जैसे धुर दक्षिण प्रदेश का यह इलाका कर्नाटकी संगीत की बजाय हिंदुस्तानी संगीत की धारा का गढ़ कैसे बना. दरअसल कर्नाटक का यह उत्तरी हिस्सा कभी बांबे प्रेसीडेंसी और बंबई राज्य का हिस्सा हुआ करता था. फिर 1956 में जब राज्यों का पुनर्गठन हुआ तो इसे कर्नाटक में मिला दिया गया. मल्लिकार्जुन मंसूर के बेटे और गायक राजशेखर मंसूर कहते हैं, ‘सांस्कृतिक रूप से देखा जाए तो उत्तरी कर्नाटक के लोग आज भी महाराष्ट्र के लोगों की तरह हैं. कर्नाटक का हिस्सा हो जाने के बावजूद हिंदुस्तानी संगीत में उनकी दिलचस्पी कम नहीं हुई है.’

इसके अलावा इस इलाके की संगीत विरासत का एक बड़ा श्रेय मैसूर के महाराजा कृष्णराजा वाडियार (चतुर्थ) को भी जाता है. महाराजा हिंदुस्तानी संगीत के बहुत बड़े कद्रदान थे. वे उत्तर भारत में रह रहे संगीतकारों को न्यौता भेजकर उन्हें अपने दरबार में गाने के लिए आमंत्रित करते. इन संगीतकारों में से कई ऐसे थे जो अपनी यात्रा के दौरान धारवाड़ में भी ठहरते जहां लोग उनकी प्रस्तुतियों को सुनने के लिए बड़ी संख्या में जमा होते. राजशेखर कहते हैं, ‘लोग कुछ दिन और रुकने के लिए उन्हें मनाते. बैठकों और महफिलों का दौर चलता.’
19वीं सदी की शुरुआत में मैसूर दरबार में आने वाले ऐसे ही मेहमानों में से एक थे किराना घराने के दिग्गज उस्ताद अब्दुल करीम खान. किराना दरअसल कैराना का अपभ्रंश है जो उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले में स्थित उस गांव का नाम है जहां के खान मूल रूप से रहने वाले थे. उनके एक भाई धारवाड़ में रहते थे, इसलिए मैसूर आते-आते हुए रास्ते में धारवाड़ में वक्त बिताना उनके लिए और भी स्वाभाविक था. ऐसे ही एक प्रवास में उनसे मिलने रामभाऊ कुंडगोलकर नाम का एक बालक आया. पास के ही कुंडगोल नाम के एक गांव में रहने वाले इस बालक की इच्छा खान से संगीत सीखने की थी. यह मुलाकात ऐतिहासिक साबित हुई. बताते हैं कि जब लड़के ने भैरवी पर आधारित रचना हम जमुना के तीर सुनाई (जिसके बारे में कहा जाता है कि उसे खान से अच्छा कोई नहीं गा सकता था), तो वे दंग रह गए और उन्होंने लड़के को अपना शागिर्द बनाना स्वीकार कर लिया. कुंडगोलकर बाद में सवाई गंधर्व के नाम से मशहूर हुए जिन्होंने दुनिया को गंगूबाई हंगल, बसवराज राजगुरु और भीमसेन जोशी जैसे शिष्य दिए. अब्दुल करीब खान से शुरू हुई इस परंपरा का असर यह भी हुआ कि धारवाड़ आज भी किराना घराने का गढ़ बना हुआ है. मौजूदा पीढ़ी में देखें तो कैवल्य कुमार गौरव और जयतीर्थ मेवुंडी इस परंपरा के सशक्त प्रतिनिधि दिखते हैं.

धारवाड़ की एक अहम खासियत यह भी है कि किराना घराने के अलावा यहां ग्वालियर और जयपुर घराने भी खूब फले-फूले 

लेकिन कमाल देखिए कि किराना घराने की धमक के बावजूद ऐसा नहीं हुआ कि धारवाड़ की पहचान सिर्फ इसकी वजह से बनी हो. छोटे-से इस इलाके में ग्वालियर और जयपुर घराने भी उतनी ही अच्छी तरह से फले-फूले हैं. दूसरी जगहों पर हिंदुस्तानी संगीत में भले ही आज भी संकीर्णताओं से भरी होड़ देखने को मिलती हो पर धारवाड़ इससे अछूता रहा है. यहां रह चुके या रहने वाले सभी संगीतकार इस पर एकराय हैं कि यहां किसी एक का बोलबाला नहीं है. न ही यहां कोई दूसरे से श्रेष्ठ होने का दावा करता है. किराना घराने के सदस्य भले ही अपने दिग्गजों के वजन के आधार पर खुद को दूसरों से बेहतर कहने की स्थिति में हों मगर कितना भी कुरेदने पर वे दूसरे घरानों के बारे में कुछ भी ऐसा नहीं कहते जो उन्हें कमतर ठहराता सा लगे. ग्वालियर और जयपुर, दोनों घरानों के पास भी अपने-अपने क्षेत्र के दिग्गज हैं. कुमार गंधर्व और पुट्टराज गवई ग्वालियर घराने के हैं तो जयपुर घराने के पास मल्लिकार्जुन मंसूर की महान विरासत है. कुमार गंधर्व ने बाद में धारवाड़ छोड़ दिया था और मध्य प्रदेश के देवास में जाकर रहने लगे थे क्योंकि इस जगह की आबोहवा उनकी दमे की बीमारी के ज्यादा अनुकूल थी.

उधर, मंसूर अपनी आखिरी सांस तक धारवाड़ में ही रहे. वे इसी नाम के एक गांव में जन्मे थे और अपने शुरुआती दिनों में कन्नड़ थिएटर में सक्रिय रहे थे. आज यह बात सुनकर हैरानी हो सकती है मगर 1920 और 30 के दशक में हिंदुस्तानी संगीत कन्नड़ थिएटर का अहम हिस्सा होता था. राजशेखर मंसूर कहते हैं, ‘नाटक में भाग लेने के लिए किसी भी अभिनेता को पहले हिंदुस्तानी शास्त्रीय गायकी सीखनी पड़ती थी.’ उन दिनों बहुत-सी थिएटर कंपनियां हुआ करती थीं और सवाई गंधर्व जैसे संगीतकारों की बड़ी संख्या थी, जिनकी नियमित आमदनी का स्रोत यही थिएटर थे. कन्नड़ थिएटर आज भी हिंदुस्तानी संगीत पर निर्भर है मगर उसके अच्छे दिन अब अतीत का किस्सा हो गए हैं.’ राजशेखर बताते हैं, ‘मंचीय कला का दौर अब जा चुका है. शायद इसलिए क्योंकि मनोरंजन के अब कई दूसरे माध्यम उपलब्ध हैं.’
ऑल इंडिया रेडियो के धारवाड़ स्टेशन के पास बना मंसूर का घर अब म्यूजियम बन चुका है. यहीं उनकी समाधि है और वह तानपुरा और हारमोनियम भी जिस पर कभी उनकी उंगलियां दौड़ा करती थीं. राजशेखर के मुताबिक मंसूर धारवाड़ छोड़कर नहीं गए क्योंकि एक तो उन्हें यहां पुणे या मुंबई जैसे व्यावसायिक शहरों के मुकाबले अपूर्व शांति का अनुभव होता था और दूसरे वे बहुत धार्मिक व्यक्ति थे. हर साल वे यहां के मुरुगा मठ में गायन प्रस्तुति के रूप में अपनी सेवा देते थे. बहुत दिनों तक मठ से दूर रहने पर उन्हें असहजता महसूस होती थी. राजशेखर बताते हैं, ‘उनकी जिंदगी का एक बड़ा हिस्सा मठ के इर्द-गिर्द ही घूमता रहा.’

धारवाड़ का इतिहास देखें तो यहां रहने वाले संगीतकारों को कभी भी करियर के लिए यह जगह छोड़ने की जरूरत नहीं पड़ी

धारवाड़ में आपको ऐसे कई मठ या आश्रम मिल जाएंगे. इनमें कई ऐसे हैं जिन्होंने संगीत की शिक्षा और उसके प्रचार-प्रसार में अहम भूमिका निभाई. इनमें से भी सबसे महत्वपूर्ण काम रहा गडग स्थित वीरेश्वर पुण्याश्रम का जिसे पुट्टराज गवई चलाते थे. हालांकि प्रतिभा के मामले में उतना ही संपन्न होने के बावजूद राष्ट्रीय स्तर पर उनकी चर्चा उतनी नहीं हुई जितनी धारवाड़ के दूसरे दिग्गजों की, मगर इस इलाके में उनकी लोकप्रियता का आलम यह था कि पिछले ही साल जब उनका देहावसान हुआ तो लाखों लोग उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए उमड़ पड़े थे. गायिकी के साथ-साथ उनकी वायलिन, तबला, वीणा पर भी गजब की पकड़ थी और जिन लोगों ने उन्हें हारमोनियम पर गाते सुना है वे दावा करते हैं कि भारत में उन जैसा कोई दूसरा नहीं हुआ. वे हिंदुस्तानी और कर्नाटक संगीत, दोनों में महारत रखने वाले पंचाक्षरा गवई के शिष्य थे और धार्मिक संस्था होने के बावजूद उनका आश्रम गरीब बच्चों की संगीत शिक्षा के लिए समर्पित रहा. इसकी शुरुआत गरीब नेत्रहीन बच्चों को संगीत प्रशिक्षण देने के उद्देश्य से हुई थी मगर बाद में इसके दरवाजे सभी गरीब बच्चों के लिए खोल दिए गए. गवई के शिष्यों में सबसे ज्यादा चर्चित नाम वेंकटेश कुमार बताते हैं, ‘गुरू जी की कोशिशों का ही कमाल है कि आपको इलाके के हर गांव में एक संगीतकार मिल जाएगा.’ आश्रम के तहत अब एक स्कूल और कॉलेज चल रहा है और यहां 1,000 छात्र रहते हैं. वीरेश्वर पुण्याश्रम की राह पर ही कालकेरी संगीत विद्यालय भी चल रहा है. कालकेरी नामक जगह पर स्थित इस संगीत विद्यालय तक धारवाड़ से आधे घंटे की दूरी तय करके पहुंचा जा सकता है. यह संस्था इस मायने में अनोखी है कि यहां संगीत की कक्षाएं सुबह आठ बजे से शुरू हो जाती हैं और 11 बजे तक चलती हैं. हर छात्र के लिए इनमें आना अनिवार्य है. जोर गायकी पर ही नहीं है. छात्र बांसुरी, तबला, वायलिन और सितार जैसे विकल्प भी चुन सकते हैं.

हम यहां सुबह साढ़े आठ बजे पहुंचते हैं. पहाड़ियों पर मिट्टी की बहुत सी कुटियाएं बनी हुई हैं. दूर से ही हमें जौनपुरी राग की तानें सुनाई देती हैं. स्कूल के अहाते में पहुंचते ही हमें करीब 20 बच्चों का एक समूह दिखाई देता है जो तीन ताल में एक द्रुत बंदिश गा रहे हैं. पास ही एक दूसरी कुटिया में वायलिन की एक कक्षा चल रही है. शिक्षक बीएस मथ हैं जो वीरेश्वर पुण्याश्रम के पूर्व छात्र हैं. वे बताते हैं कि 11 बजे संगीत की कक्षाएं खत्म हो जाती हैं और छात्रों की पढ़ाई का आम रुटीन शुरू हो जाता है. स्कूल धारवाड़ के एक दूसरे स्कूल से संबद्ध है जिससे यहां के छात्र कर्नाटक बोर्ड की परीक्षाएं दे सकते हैं. यह आधुनिक गुरुकुल का एक आदर्श उदाहरण है. संगीत भी और पढ़ाई भी.
लेकिन एक नया गुरुकुल इन जगहों से बिलकुल अलग है. यह इसी साल पांच मार्च को गंगूबाई हंगल की स्मृति में खुला है. कई एकड़ में फैले इस गुरुकुल में मिट्टी की सादगी की जगह शीशे और स्टील की भव्यता है. कर्नाटक सरकार ने इसे हर साल एक करोड़ रुपयों की वित्तीय सहायता देने का भी एलान किया है. गंगूबाई हंगल के पोते मनोज हंगल जो  इस प्रोजेक्ट के कर्ताधर्ता भी हैं,  से इसका विवरण सुनकर थोड़ी निराशा सी होती है. वे हमसे टोटल एरिया, कार पार्किंग एरिया और लैंडस्केपिंग जैसी चीजों का जिक्र करते हैं. वे यह भी बताते हैं कि इसके उदघाटन में कितने कैबिनेट मंत्री आने वाले हैं. कैबिनेट मंत्री वास्तव में आए और उनकी हरकतें ऐसी थीं कि जानी-मानी गायिका किशोरी अमोनकर बीच में ही कार्यक्रम छोड़कर जाने लगीं और मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा को उन्हें मनाना पड़ा. हालांकि यह देखकर थोड़ी राहत महसूस होती है कि इस सबके बीच संगीत की महत्ता बची हुई है. 36 छात्रों के लिए यहां रहने की सुविधा होगी और उनके सारे खर्चे ही गुरुकुल उठाएगा. प्रभा अत्रे और एन राजम जैसे गुरु भी यहां होंगे.

इस तरह का संस्थान देखकर लगता है कि धारवाड़ एक नये रूप में व्यावसायिकता से भी जुड़ रहा है. हालांकि इसका इतिहास देखें तो इसे इसकी चिंता करने की जरूरत नहीं है. धारवाड़ में रहने वाले संगीतकारों को कभी करियर के लिए इस जगह को छोड़ने की जरूरत नहीं पड़ी. गंगूबाई हंगल हों या मल्लिकार्जुन मंसूर, किसी के बारे में यह नहीं कहा जा सकता है कि अगर उन्होंने धारवाड़ छोड़ दिया होता तो उनका कद इससे ज्यादा ऊंचा होता. यह बात आज के संगीतकारों पर भी उतनी ही सटीक बैठती है. वेंकटेश कुमार हों चाहे कैवल्य कुमार गौरव, सभी व्यस्त कलाकार हैं.

दरअसल धारवाड़ की खासियत यही है कि आपको संगीत की उत्तम शिक्षा तो मिलती ही है साथ ही बहुत समझदार श्रोता भी मिलते हैं. इसलिए यहां पनपने वाली प्रतिभाएं कद और प्रचार जैसी चीजों के बारे में बहुत बाद में सोचती हैं. इन प्रतिभाओं के जमीन से जुड़े रहने की एक वजह यह भी है कि उनका रहना और सीखना ऐसे समकक्षों के बीच होता है जो उतने ही प्रतिभाशाली होते हैं. संगीत यहां एक आम चीज है. धारवाड़ में भले ही इतने दिग्गज पैदा हुए हों मगर यहां कोई अभिजात भावना नहीं दिखती. संगीतकार आज भी अपने समकालीनों को सुनने जाते हैं और अच्छी प्रस्तुति पर खूब दाद देते हैं.

यानी धारवाड़ का अतीत जितना गौरवशाली है और उसका वर्तमान उतना ही आश्वस्तकारी.