प्रशासन और गांववालों की तमाम कोशिशों और न्यूज चैनलों की दुआओं के बावजूद 70 फुट गहरे बोरवेल में गिरकर फंसी चार साल की बच्ची माही को नहीं बचाया जा सका. गुड़गांव (हरियाणा) के पास कासना गांव की माही को बोरवेल से सुरक्षित निकालने के लिए 86 घंटे से भी ज्यादा लंबा अभियान चला और उसे 24 घंटे के न्यूज चैनलों के जरिए पूरे देश ने देखा. हालांकि माही की किस्मत कुरुक्षेत्र के प्रिंस जैसी नहीं थी. उसे बचाया नहीं जा सका. लेकिन चैनल माही को बचाने के अभियान में पीछे नहीं रहे. उनके एंकरों और रिपोर्टरों ने माही के लिए दुआएं मांगीं और बचाव ऑपरेशन के बारे में ब्रेकिंग न्यूज देते रहे.
लेकिन शायद पिछली आलोचनाओं और खिल्लियों का असर था कि इस बार चैनलों में वह उत्साह नहीं दिखा जो उन्होंने 2006 में कुरुक्षेत्र में बोरवेल में गिरे पांच साल के प्रिंस के बचाव अभियान के दौरान दिखाया था. तब चैनलों ने लगातार 50 घंटे से अधिक की लाइव कवरेज की थी. लेकिन कुछ शर्माते- कुछ हिचकते हुए भी चैनलों ने माही बचाओ ऑपरेशन की अच्छी-खासी कवरेज की. असल में, चैनलों की ऐसे मामलों को ‘तानने और उससे खेलने’ में अत्यधिक दिलचस्पी रहती है जिसमें भावनाएं हों, सस्पेंस और उसका तनाव हो, खासकर जिसमें किसी की जान अटकी हो. चैनलों को उसे ‘रीयलिटी शो’ में बदलने में देर नहीं लगती है.
दिल्ली में हर साल 50 से ज्यादा सीवरकर्मी अपने काम के दौरान दुखद और अनजान मौत मरते हैं लेकिन चैनल कभी उनकी सुध नहीं लेते
लेकिन न्यूज चैनलों की इस ‘जन्मजात विकृति’ को एक पल के लिए नजरअंदाज कर दिया जाए तो इसका सकारात्मक पक्ष यह है कि ऑपरेशन स्थल पर दर्जनों चैनलों के ओबी वैन और कैमरों और उनके उत्साही रिपोर्टरों की मौजूदगी ने जिला प्रशासन और राज्य सरकार पर माही बचाओ ऑपरेशन को तेज करने के लिए लगातार दबाव बनाए रखा. याद रहे, ऐसे मामलों में चैनलों की अति सक्रियता के कारण ही सुप्रीम कोर्ट ने कुछ साल पहले बोरवेल की खुदाई और रखरखाव को लेकर राज्य सरकारों को कड़े निर्देश दिए ताकि माही जैसे मासूमों को बचाया जा सके. यह और बात है कि प्रशासन और बोरवेल खुला छोड़ने वाले लोगों की आपराधिक लापरवाही जारी है और किसी माही के उसमें गिरने से पहले न्यूज चैनलों की नजर भी उधर नहीं जाती.
लेकिन न्यूज चैनलों की नजर 19 साल के मनोज और 40 साल के शंकर की मौत की ओर भी नहीं गई जो किसी दूरदराज के गांव या शहर में नहीं बल्कि दिल्ली के रोहिणी इलाके में डीडीए (दिल्ली विकास प्राधिकरण) के सीवर की सफाई करने के दौरान मेनहोल की जहरीली गैस के शिकार हो गए. मनोज और शंकर मेनहोल में उतरकर सीवर की सफाई करते हुए मारे जाने वाले अकेले सफाईकर्मी नहीं हैं. दिल्ली में सिर्फ जून महीने में चार से ज्यादा सफाईकर्मी मारे गए हैं. यही नहीं, अकेले दिल्ली में हर साल 50 से ज्यादा सीवर सफाईकर्मी ऐसी ही दुखद और अनजान मौत मरते हैं. अफसोस उनकी मौत किसी चैनल पर ब्रेकिंग न्यूज नहीं बनती, कोई लाइव रिपोर्ट और स्टूडियो चर्चा नहीं होती.
यहां तक कि उनकी मौत चैनलों के टिकर में भी जगह नहीं पाती. नतीजा यह कि सीवर सफाईकर्मियों के मेनहोल में सेफ्टी गियर के साथ उतरने जैसे हाई कोर्ट के कड़े निर्देशों के बावजूद उन्हें निहायत ही अमानवीय और असुरक्षित स्थितियों में काम करना पड़ रहा है. उनमें से कई को जान से हाथ धोना पड़ रहा है और बाकी जानलेवा बीमारियों के शिकार हो रहे हैं. क्या ‘सबसे तेज’ और ‘आपको आगे रखने वाले’ चैनलों के कैमरे और रिपोर्टर कभी उनका भी दुख-दर्द पूछेंगे? या उनकी दिलचस्पी सिर्फ मौत के रीयलिटी शो में है? जरा सोचिए.