कांग्रेस की जाति जनगणना की माँग भाजपा के लिए बनी चुनौती
भले ही लोकसभा चुनाव होने में अभी कुछ महीने हैं; लेकिन देश में अचानक निर्णायक से दिखने वाले मुद्दे सामने आ गये हैं। इनमें सबसे बड़ा मुद्दा कांग्रेस और उसके इण्डिया गठबंधन सहयोगियों की तरफ़ से जाति जनगणना करवाकर आबादी के हिसाब से सामाजिक न्याय देने की माँग करना है। इसने नब्बे के दशक के मंडल आन्दोलन और भाजपा की तरफ़ से कमंडल (हिन्दुत्व) की राजनीति सामने लाने की याद ताज़ा कर दी है। तो क्या अगला चुनाव मंडल-2.0 के मुद्दे पर लड़ा जाएगा? बता रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार राकेश रॉकी :-
अस्सी के दशक के आख़िरी साल थे। तब एक नारा बड़ी तेज़ी से गूँजा था- ‘राजा नहीं फ़क़ीर है, देश की तक़दीर है।’ राजा थे- कांग्रेस से बग़ावत करके आये विश्वनाथ प्रताप सिंह। वी.पी. सिंह बोफोर्स में राजीव गाँधी सरकार पर रिश्वतख़ोरी के आरोपों के बाद मंत्री पद छोड़कर साफ़-सुथरी छवि के साथ सन् 1989 में नये राजनीतिक दल के साथ चुनाव में उतरे और प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने पिछड़ों को आरक्षण देने से जुड़ी मंडल कमीशन की सिफ़ारिशों को लागू करने का फ़ैसला किया, जिसने देश की राजनीति में बहुत कुछ बदल दिया। देश के उच्च जाति वर्ग ने उनकी आलोचना की। लेकिन सिंह ने तब कहा था कि सामाजिक परिवर्तन का यह अभी सेमीफाइनल ही है। हो सकता है, फाइनल मेरे बाद हो बाद हो। उनके इन शब्दों के क़रीब 23 साल बाद सामाजिक अधिकार का नारा देश की राजनीतिक फ़िज़ाओं में फिर गूँजा है, जिसकी धार काफ़ी तेज़ लगती है।
तो क्या 2024 के लोकसभा चुनाव में मंडल नये रूप में चुनाव का मुख्य मुद्दा बनने जा रहा है और इस बार इसका फाइनल होगा? क्या भाजपा इसकी काट के लिए कमंडल को नये रूप में सामने लाएगी? आज़ादी के बाद से भारत ने केवल सन् 2011 में सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना (एसईसीसी) के माध्यम से जाति-गणना की है। भाजपा सरकार ने 2015 में इसकी रिपोर्ट को ख़ारिज कर दिया था।
अगर जाति जनगणना होती है, तो भाजपा पर विकट पड़ेगा और उसे कोई स्टैंड लेना पड़ेगा। अगर वह विरोध करती है, तो ओबीसी के ख़िलाफ़ मानी जाएगी। कांग्रेस अपने पुराने वोट बैंक को पाने के लिए हर सम्भव कोशिश कर रही है। पिछड़े, दलित, अल्पसंख्यक कांग्रेस के पुराने वोटर हैं। कांग्रेस सबसे ज़्यादा इन वर्गों के मुद्दे उठा रही है। याद रहे कांग्रेस ने यह स्टैंड अब अचानक नहीं लिया है, बल्कि पिछले साल ही ले लिया था, जब अभी विपक्ष का इंडिया गठबंधन नहीं बना था।
नीतीश सरकार के जातिगत सर्वे के मुताबिक, बिहार में अत्यंत पिछड़ा वर्ग 36.01 फ़ीसदी और पिछड़ा वर्ग 27.12 फ़ीसदी है, जो सबसे ज़्यादा हैं। अनुसूचित जाति 19.65, अनारक्षित (सवर्ण जातियाँ) क़रीब 15.52 फ़ीसदी और अनुसूचित जनजाति 1.68 फ़ीसदी हैं। राज्य में हिन्दू क़रीब 82 फ़ीसदी, जबकि मुस्लिम 17.7 हैं। भाजपा के मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने सीडब्ल्यूसी की बैठक में प्रस्ताव पास करके जातिगत जनगणना की माँग की है। यही नहीं, पार्टी के वरिष्ठ नेता राहुल गाँधी ने दो दिन बाद ही प्रेस कॉन्फ्रेंस करके घोषणा की कि सभी कांग्रेस शासित राज्य सरकारें जातिगत जनगणना करेंगी। राहुल ने यह बात कुछ इस तरीक़े से कही कि उच्च जातियाँ भी नाराज़ न हों। उन्होंने कहा कि कांग्रेस सामाजिक न्याय की माँग कर रही है और वह किसी जाति विशेष के ख़िलाफ़ नहीं है। इससे पहले बिहार सरकार ने जाति जनगणना के आँकड़े जारी करके देश की राजनीति में हंगामा मचा दिया। केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा भी इससे भौंचक रह गयी। इससे पहले मोदी सरकार ने जब महिला आरक्षण बिल संसद में पास करवाया था, तो ओबीसी महिलाओं को कोटे में शामिल नहीं किया।
देश की राजनीति में अब दो $खेमे बन गये हैं। एक भाजपा के नेतृत्व वाला एनडीए, जो जातिगत जनगणना के हक़ में अभी तक नहीं बोला है। दूसरा कांग्रेस के अघोषित नेतृत्व वाला इंडिया गठबंधन, जो इसके हक़ में लगातार बोल रहा है। कांग्रेस नेता राहुल गाँधी दो क़दम आगे जाकर सत्ता में आने पर आर्थिक सर्वे करवाने की बात भी कह चुके हैं। अर्थात् ऊँची जातियों में ग़रीबी रेखा वालों को भी आरक्षण की। जातिगत जनगणना को लेकर देश में दो पक्ष हैं। एक पक्ष का दावा है कि ऐसा करने से समाज में जातिगत खटास बढ़ेगी। कांग्रेस और दूसरे पक्ष का कहना है कि सामाजिक न्याय के लिए ऐसा करना ज़रूरी है।
बदल रही है राजनीति
सन् 2014 से 2022 तक देश की राजनीति में भाजपा एकतरफ़ा सर्वोपरि थी। राजनीति से लेकर चुनावों तक का एजेंडा भाजपा तय कर रही थी। लेकिन 2022 में पहली बार चीज़ें तब बदलनी शुरू हुईं, जब कांग्रेस नेता राहुल गाँधी ने क़रीब 4,000 किलोमीटर की भारत जोड़ो यात्रा शुरू की। भाजपा ने शुरू में राहुल गाँधी का मज़ाक़ उड़ाया। लेकिन राहुल इस आलोचना से विचलित हुए बिना राज्य-दर-राज्य पैदल यात्रा करते चले गये और जनता से मिलते रहे, जिससे भाजपा ही विचलित हो गयी। पार्टी के नेताओं की भाषा में यह साफ़ दिखने लगा था और यात्रा के लिए राहुल गाँधी की हो रही तारीफ़ को वे सहन नहीं कर पा रहे थे।
यात्रा के दौरान हुए चुनावों में कांग्रेस को हिमाचल में भाजपा को हराने में सफलता मिली। इस साल मई में कर्नाटक में भी कांग्रेस ने भाजपा को मात दी। इससे भाजपा दक्षिण में कमज़ोर दिखने लगी है। मणिपुर की घटनाओं का नुक़सान उसे पूर्वोत्तर में भी हो सकता है। हिन्दी पट्टी में भाजपा ख़ुद को मज़बूत मान रही थी; लेकिन कांग्रेस (इंडिया गठबंधन) ने जातिगत जनगणना और उसके अनुपात मे हिस्सा देने की बात करके उसे संकट में डाल दिया। कांग्रेस जातिगत जनगणना के मुद्दे को आम जनता तक ले जाने में सफल रही, तो 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को रक्षात्मक होना पड़ सकता है। एनडीए के घटक दल बेचैनी महसूस करते हैं, तो भाजपा का साथ छोड़ सकते हैं। वैसे भी तमिलनाडु में एआईएडीएमके जैसा दल भाजपा से छिटक चुका है। हाल के वर्षों में कांग्रेस से भाजपा में गये कुछ नेताओं को वहाँ सम्मान नहीं मिला है, जो वापसी कर सकते हैं। मध्य प्रदेश में ऐसा बड़े पैमाने पर दिखा है। चूँकि जातिगत जनगणना का मुद्दा इंडिया गठबंधन ने पाँच राज्यों के चुनाव से ऐन पहले उठा दिया है, तो इसका असर आगामी चुनावों में होगा ही।
क्या करेगी भाजपा?
यदि कांग्रेस और विपक्ष ने जातिगत जनगणना को मंडल की तर्ज पर बड़ा मुद्दा बना दिया, तो भाजपा क्या करेगी? यह बड़ा राजनीतिक सवाल है। क्या नब्बे के दशक के शुरू में मंडल की काट के लिए भाजपा ने जिस तरह कमंडल शुरू किया था, वैसा ही कुछ इस बार करेगी? कर सकती है। लेकिन नहीं भूलना चाहिए कि हाल के तीन वर्षों में भाजपा ने राज्यों (पश्चिम बंगाल, हिमाचल और कर्नाटक) के चुनाव में बड़े पैमाने पर हिन्दुत्व को मुद्दा बनाने की कोशिश की; लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। हाल में सनातन को लेकर राज्य स्तरीय नेताओं, जो इण्डिया गठबंधन से जुड़े हैं; ने कुछ विवादित टिप्पणियाँ कीं, तो भाजपा ने इसे उठाने की बहुत कोशिश की। लेकिन यह मुद्दा जल्दी ही ठंडा भी पड़ गया। इसके बावजूद भाजपा के पास आज भी हिन्दुत्व ही सबके ताक़तवर मुद्दा है, जिसे वह उग्र राष्ट्रवाद से जोड़कर धारदार बनाने की कोशिश करेगी। विपक्ष के नेता यह बात जानते हैं।
हाल के दिनों में कांग्रेस या विपक्ष के नेताओं ने बार-बार आशंका जतायी है कि हार देखकर भाजपा धर्म से जुड़ा कुछ कांड करवा सकती है। इन नेताओं की आशंका के मुताबिक, भाजपा राम मंदिर के उद्घाटन के समय या उस समय के दौरान कुछ ऐसा कर सकती है, जिससे धार्मिक भावनाएँ भड़क जाएँ और इससे पैदा हुए ध्रुवीकरण का उसे लाभ मिल सके। यह विपक्ष की आशंकाएँ हैं। लिहाज़ा इस पर टिप्पणी नहीं की जा सकती। कुछ लोगों को यह भी लगता है कि मोदी सरकार चुनाव से कुछ महीने पहले पीओके स्थित पाकिस्तान समर्थित आतंकी ठिकानों पर सर्जिकल स्ट्राइक जैसा कुछ ऑपरेशन कर सकती है, जिस पर विपक्ष उस समय मजबूरी में कोई सवाल नहीं उठा पाएगा; भले यह चुनावों को ध्यान में रखकर किया गया हो। भाजपा अब चुनावों का एजेंडा तय नहीं कर पा रही है। विपक्ष, ख़ासकर कांग्रेस कर रही है। कर्नाटक में उसने भ्रष्टाचार को बड़ा मुद्दा बना दिया था। भाजपा और उसके सबसे बड़ा चेहरा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी पूरी कोशिश के बावजूद इसे तोड़ नहीं पाये। भाजपा की दि$क्क़त यह है कि उसे अभी भी मोदी के चेहरे पर ही चुनाव में जाना है। विधानसभा चुनावों में भी और अगले लोकसभा चुनाव में भी। भाजपा ने आधिकारिक रूप से मोदी को चेहरा घोषित किया हो या नहीं, ख़ुद मोदी हरेक जनसभा में अपने नाम (जैसे- यह मोदी की गारंटी है; या मोदी जो कहता है, वह करके दिखाता है।) को स्वघोषित करते हैं। सम्भवत: देश के किसी भी राजनीतिक दल के इतिहास में वह अकेले नेता हैं, जो पार्टी की जगह ख़ुद ही ख़ुद को इस तरह प्रचारित करते हैं।
इम्तिहान का समय
पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव में लोकसभा चुनाव से पहले ही देश में उभर रहे मुद्दों का इम्तिहान हो जाएगा। जनादेश से दो सवालों के जवाब मिलेंगे। एक- देश में मंडल राजनीति (जातिगत जनगणना की माँग) को पंख लग सकते हैं या नहीं। दो- क्या देश में महिला सशक्तिकरण को आधार मानकर (मोदी सरकार का महिला आरक्षण क़ानून) वाक़ई आधी आबादी का कोई वोट बैंक बनाया जा सकता है! इनमें से जो भी मुद्दा चलेगा, तय है वह लोकसभा चुनाव का भी बड़ा मुद्दा होगा। यहाँ यह बात महत्त्वपूर्ण है कि पिछड़ों को सामाजिक न्याय और राजनीति में 33 फ़ीसदी महिला आरक्षण दोनों ही मामलों में पक्ष-विपक्ष हैं। जैसे महिला आरक्षण सिर्फ़ राजनीति के लिए है, इससे आम महिला का सीधे कोई आर्थिक / सामाजिक कल्याण नहीं होगा। सब जानते हैं कि हमारे देश में राजनीति में आने और टिकट पाने के आम या ग़रीब ग़रीब महिलाओं के पास सीमित ही अवसर हैं; क्योंकि यह पैसे का खेल बना दिया गया है। जहाँ तक पिछड़ों की राजनीति करने की बात है, इससे अगड़ी जातियों की नाराज़गी का नुक़सान सहना पड़ सकता है। भले वोटों की दृष्टि से पिछड़ों की संख्या कहीं ज़्यादा है।
सन् 2014 में नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद भाजपा ने राष्ट्रवाद-हिन्दुत्व का चुनावों में $खूब इस्तेमाल किया है। इसमें भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी अपनी सरकार के विकास का तड़का भी लगाते रहे हैं। याद करें, तो हाल के 10 साल के दौरान कांग्रेस के सर्वमान्य नेता राहुल गाँधी शुद्ध रूप से विकास, किसानों और बेरोज़गारों की बात प्रमुखता से करते रहे हैं। अब उन्होंने इसमें जातिगत जनगणना को भी प्रमुखता से जोड़ दिया है। अभी तक जब वह पिछड़ों और दबे-कुचलों की बात करते थे, तो उसमें राजनीतिक आक्रामकता नहीं आ पाती थी। लेकिन जैसे ही उन्होंने जातिगत जनगणना की बात की, यह रातोंरात एक बड़ा मुद्दा बन गया। इस मसले पर विपक्षी गठबंधन इंडिया के तमाम सहयोगी उनके साथ खड़े दिखते हैं। कांग्रेस और इण्डिया गठबंधन सत्ता में आते ही माँग करते हुए यह का वादा पूरा करेंगे। महिला आरक्षण में ओबीसी कोटे की माँग कांग्रेस और उसकी नेता सोनिया गाँधी संसद में कर चुकी हैं। नीतीश कुमार, लालू यादव की पार्टियाँ भी इसके समर्थन में हैं। ज़ाहिर है कांग्रेस की यह रणनीति भाजपा के हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद का मुक़ाबला करने के लिए है। राज्यों के नतीजे मंडल-2.0 के ज़रिये सामाजिक न्याय देने के विपक्ष के हथियार की धार कितनी है? यह नतीजे बता देंगे।
इसमें कोई दो-राय नहीं कि मंडल-2.0 सामने आने से भाजपा चिन्तित हुई है। बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के नेता हैं, जहाँ जाति का सवाल हर चुनाव में अहम रहता है। भाजपा मानती है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में उसने 224 सीटों पर 50 फ़ीसदी से अधिक वोट हासिल किये थे और वहाँ चूँकि जाति अहम मुद्दा रहता है। लिहाज़ा कांग्रेस या विपक्ष का मंडल-दो 50 फ़ीसदी के अंतर को पार नहीं कर पाएगा। दूसरे भाजपा को लगता है कि देश की राजनीति में नब्बे के दशक के विपरीत आज ओबीसी वर्ग आरक्षण का लाभ उठा रहा है। लिहाज़ा यह मुद्दा चुनाव का बड़ा मुद्दा नहीं बन पाएगा।
आबादी के हिसाब से अवसर
यहाँ यह बताना महत्त्वपूर्ण है कि कांग्रेस जाति जनगणना की बात कर रही है, तो यह आरक्षण तक सीमित नहीं है; बल्कि यह आबादी के हिसाब से प्रतिनिधित्व देने के लिए है। ज़ाहिर है नौकरियों और अन्य जगह आबादी के हिसाब से जगह मिलने की बात छोटी चीज़ नहीं है और यह इन तबक़ों में राजनीतिक समर्थन का कारण बन सकता है। देश में केंद्र से लेकर राज्यों में आज भी कथित उच्च जातियों के अफ़सरों का प्रभुत्व है। केंद्रीय सचिवालय में निचली जातियों से नाम मात्र ही अधिकारी मिलेंगे और यही हाल राज्यों में भी है।
सरकारी सेवाओं और संस्थानों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व देने के लिए जब मंडल कमीशन की सिफ़ारिशों के आधार पर पिछड़ों को 27 फ़ीसदी आरक्षण देने का फ़ैसला हुआ था, तब तक तस्वीर काफ़ी ख़राब थी। यदि आबादी के हिसाब से अब अवसर मिला, तो भला पिछड़ी जातियों के लोग इसे क्यों छोड़ेंगे? ज़ाहिर है यह मुद्दा देश की राजनीतिक और प्रशासनिक तस्वीर बदलने की क़ुव्वत रखता है। अभी तक भारत सरकार ने पिछड़े समुदायों, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिए सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्रों की इकाइयों और धार्मिक / भाषाई अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थानों को छोड़कर सभी सार्वजनिक और निजी शैक्षिक संस्थानों में पदों और सीटों के प्रतिशत को आरक्षित करने की कोटा प्रणाली प्रदान की हुई है।
संसद में भी अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के प्रतिनिधित्व के लिए आरक्षण नीति को विस्तारित किया गया है। उच्च शिक्षा में 27 फ़ीसदी आरक्षण है। यह प्रावधान है कि राज्य आरक्षणों में वृद्धि के लिए क़ानून बना सकते हैं। सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले के अनुसार, 50 फ़ीसदी से अधिक आरक्षण नहीं किया जा सकता; लेकिन राजस्थान जैसे कुछ राज्यों ने 68 फ़ीसदी आरक्षण का प्रस्ताव रखा है, जिसमें अगड़ी जातियों के लिए भी 14 फ़ीसदी आरक्षण शामिल है। आम आबादी में संख्यानुपात के आधार पर उनके बहुत ही कम प्रतिनिधित्व को देखते हुए शैक्षणिक परिसरों और कार्यस्थलों में सामाजिक विविधता को बढ़ाने के लिए कुछ समूहों के लिए प्रवेश मानदण्ड को नीचे किया गया है। कम-प्रतिनिधित्व समूहों की पहचान के लिए सबसे पुराना मानदण्ड जाति है। हालाँकि भारत सरकार ने प्रायोजित राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य और राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के अनुसार, कम-प्रतिनिधित्व के अन्य मानदण्ड भी हैं; जैसे कि लिंग (महिलाओं का प्रतिनिधित्व कम है), अधिवास के राज्य (उत्तर पूर्व राज्य, जैसे कि बिहार और उत्तर प्रदेश का प्रतिनिधित्व कम है), ग्रामीण जनता आदि।
स्वतंत्रता के बाद भारत के संविधान ने पहले के कुछ समूहों को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के रूप में सूचीबद्ध किया। संविधान निर्माताओं का मानना था कि जाति व्यवस्था के कारण अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति ऐतिहासिक रूप से पिछड़े रहे और उन्हें भारतीय समाज में सम्मान और समान अवसर नहीं दिया गया और इसलिए राष्ट्र-निर्माण की गतिविधियों में उनकी हिस्सेदारी कम रही। संविधान ने सरकारी सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थाओं की ख़ाली सीटों और सरकारी / सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों में इन वर्गों के लिए क्रमश: 15 और 7.5 फ़ीसदी का आरक्षण था। बाद में अन्य वर्गों के लिए भी आरक्षण शुरू किया गया। चूँकि 50 फ़ीसदी से ज़्यादा आरक्षण नहीं हो सकता, सर्वोच्च न्यायालय के इस फ़ैसले से (जिसका मानना है कि इससे समान अभिगम की संविधान की गारण्टी का उल्लंघन होगा) आरक्षण की अधिकतम सीमा तय हो गयी। हालाँकि राज्य क़ानूनों ने इस 50 फ़ीसदी की सीमा को पार किया है और इससे जुड़े मामले सर्वोच्च न्यायलय में लंबित हैं। उदाहरण के लिए जाति-आधारित आरक्षण भाग 69 फ़ीसदी है और तमिलनाडु की क़रीब 87 फ़ीसदी जनसंख्या पर यह लागू होता है।
पाँच राज्यों के नतीजे तय करेंगे भविष्य
इस साल के विधानसभा चुनावी दंगल का ऐलान हो गया है। वैसे यह हैरानी की बात है कि एक राष्ट्र-एक चुनाव की जब बात हो रही है, तो पाँच राज्यों का चुनाव ही एक महीने में होंगे। विधानसभा चुनाव ऐसे समय हो रहे हैं, जब देश में जातिगत सर्वे की माँग ज़ोर पकड़ चुकी है। राजस्थान में कांग्रेस सरकार बिहार की तर्ज पर जातिगत सर्वे का आदेश जारी कर दिया है, जबकि मध्य प्रदेश में इसका वादा कर चुकी है। भाजपा कांग्रेस पर समाज को बाँटने का आरोप लगा रही है। लेकिन तय है कि पाँच राज्यों के चुनाव नतीजे जातिगत सर्वे पर जनमत संग्रह माने जाएँगे। यह चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता की भी परीक्षा होगी।
इण्डिया गठबंधन बनने के बाद कांग्रेस के लिए यह पहली सबसे बड़ी परीक्षा है; क्योंकि इन राज्यों में उसी की तरफ़ से भाजपा को सबसे बड़ी चुनौती होगी। विपक्षी गठबंधन में कांग्रेस की हिस्सेदारी और भूमिका भी इन्हीं चुनाव नतीजों से तय होगी। कांग्रेस ने बेहतर प्रदर्शन किया तो विपक्षी गठबंधन में कांग्रेस ही नहीं राहुल गाँधी के नेतृत्व पर भी अघोषित मुहर लग जाएगी। यदि कांग्रेस हारी, तो सीट शेयरिंग में उसका दावा कमज़ोर होगा। नतीजे कई दिग्गजों के लिए भी निर्णायक होंगे। इनमें अशोक गहलोत, वसुंधरा राजे सिंधिया, शिवराज सिंह चौहान, रमन सिंह, ज्योतिरादित्य सिंधिया, सचिन पायलट और कमलनाथ प्रमुख हैं।
इन राज्यों में 2018 में भाजपा को करारी हार मिली थी। हालाँकि बाद में मध्य प्रदेश में भाजपा ने ज्योतिरादित्य सिंधिया के दल बदल के बूते कांग्रेस सरकार गिराकर अपनी सरकार बना ली थी। मध्य प्रदेश में भाजपा काफ़ी रक्षात्मक दिख रही है। दबाव में उसने केंद्रीय मंत्रियों और सांसदों को मैदान में उतार दिया है। चुनाव सर्वे भी चिन्ता बढ़ा रहे हैं, जबकि कांग्रेस विश्वास से भरी दिख रही है। इस चुनाव में कांग्रेस से भाजपा में दलबदल करके गये ज्योतिरादित्य सिंधिया की राजनीति भी दाँव पर लगी दिख रही है। राजस्थान में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत अपनी जान योजनाओं के बूते जीत के प्रति भरोसा जाता रहे हैं; लेकिन कांग्रेस के लिए सम्भवत: सबसे कठिन मुक़ाबला इसी राज्य में होगा। वहाँ सचिन पायलट से गहलोत से खटपट रही है। भाजपा में भी स्थिति बहुत सुखद नहीं है। पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया को किनारे किया गया, तो भाजपा के लिए वह विभीषण साबित हो सकती हैं।
छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के मज़बूत मुख्यमंत्री भूपेश भगेल के सामने भाजपा का कोई मज़बूत चेहरा नहीं। वहाँ भी राजस्थान और मध्य प्रदेश की तरह भाजपा किसी स्थानीय चेहरे नहीं, बल्कि प्रधानमंत्री मोदी के चेहरे पर ही चुनाव में उतर रही है। राज्य का चुनाव भाजपा के लिए काफ़ी कठिन चुनौती है। तेलंगाना का चुनाव इस बार राष्ट्रीय संदेश देकर जाएगा। कांग्रेस वहाँ उभर रही है, इसके संकेत मिल रहे हैं।
सवाल यह है कि क्या वह केसीआर को जीत के हैट्रिक लगाने से रोक पाएगी? कांग्रेस $खेमे में जबरदस्त उत्साह दिख रहा है। राहुल गाँधी से लेकर प्रियंका गाँधी तक वहाँ बड़ी जनसभाएँ कर चुके हैं। यहाँ भाजपा के दक्षिण में पैर पसारने के दावों का मुश्किल इम्तिहान है। मिजोरम में चुनाव मणिपुर के बेहद ख़राब हालात के बीच हो रहे हैं, जहाँ भाजपा की सरकार है। कांग्रेस उभार पर दिख रही है और उसका मुक़ाबला मिजो नेशनल फ्रंट से होगा। भाजपा राज्य में कहीं नहीं दिख रही।
कांग्रेस का फ़ैसला
क्या कांग्रेस आने वाले समय में आर्थिक जनगणना करके आर्थिक आधार पर भी आरक्षण देने को अपने चुनाव घोषणा-पत्र में डालने वाली है? इस पत्रकार की जानकारी के मुताबिक, वह ऐसा कर सकती है। पार्टी नेता राहुल गाँधी ने भी हाल की एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में इसका संकेत दिया है। राहुल गाँधी ने यह भी घोषणा की कि सभी कांग्रेस शासित राज्य जाति जनगणना करने जा रहे हैं। गाँधी ने कहा कि पार्टी की कार्य समिति (सीडब्ल्यूसी) ने जाति आधारित जनगणना के विचार के पक्ष में ऐतिहासिक निर्णय किया है। कार्य समिति की बैठक के बाद राहुल ने कहा- ‘विपक्षी गठबंधन इंडिया के ज़्यादातर घटक दल जाति आधारित जनगणना के पक्ष में हैं। कार्य समिति ने एक ऐतिहासिक निर्णय में सबकी सहमति से जाति आधारित जनगणना के विचार का समर्थन करने का फ़ैसला किया। कांग्रेस जाति जनगणना के लिए भाजपा पर पुरज़ोर दबाव बनाएगी।’
राहुल ने साफ़ किया कि यह राजनीतिक निर्णय नहीं है, बल्कि न्याय का निर्णय है। राहुल गाँधी ने जो बड़ी बात कही थी, वह आर्थिक जनगणना का समर्थन है। इससे पहले सीडब्ल्यूसी की बैठक में पारित प्रस्ताव में जातिगत जनगणना की माँग उठायी गयी और कहा गया कि अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी) और अन्य पिछड़ा वर्गों (ओबीसी) के लिए आरक्षण की मौज़ूदा अधिकतम सीमा बढ़ायी जाए। बैठक के बाद 14 सूत्री प्रस्ताव पारित किया गया था, जिसमें महँगाई, बेरोज़गारी, अर्थव्यवस्था की स्थिति, किसानों की समस्याओं, चीन के साथ सीमा विवाद, अडाणी समूह से जुड़े मामले तथा कई अन्य मुद्दों का उल्लेख किया गया था।
रोहिणी आयोग की रिपोर्ट
याद रहे इसी साल अगस्त में ओबीसी के उप-वर्गीकरण की जाँच के लिए गठित जी. रोहिणी आयोग ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को अपनी रिपोर्ट सौंपी थी। आयोग पर यह ज़िम्मा था कि ओबीसी के लिए आरक्षण और अन्य लाभ किस हद तक प्रमुख जाति समूहों के बीच केंद्रित हैं। भाजपा का मानना है कि उत्तर प्रदेश, बिहार, गुजरात और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में पिछड़े समुदायों के बीच प्रमुख जातियाँ लाभ का एक बड़ा हिस्सा हड़प रही हैं।
आयोग को ओबीसी सूची में 2,600 से अधिक जाति समूहों के विभाजन का सुझाव देने के लिए कहा गया था, ताकि इन लाभों को समान रूप से पुनर्वितरित किया जा सके। रिपोर्ट पर कोई अंतिम फ़ैसला नहीं हुआ है। दिलचस्प यह है कि आयोग में आरएसएस के बुद्धिजीवी जे.के. भी शामिल हैं। उन्होंने नब्बे के दशक और बाद में 21वीं सदी के पहले दशक में राष्ट्रीय जाति जनगणना का विरोध किया था। हालाँकि सन् 2018 में केंद्र सरकार ने जाति-आधारित जनगणना का समर्थन किया। लेकिन जुलाई, 2021 में सरकार ने लोकसभा को सूचित किया कि सन् 2021 की जनगणना में जाति गणना नहीं होगी। महामारी के कारण सन् 2021 में भी जनगणना नहीं हुई; और अब यह 2024 के लोकसभा चुनावों के बाद ही हो सकती है।