सवालों के घेरे में जाँच एजेंसियाँ

शैलेंद्र कुमार ‘इंसान’

अडानी के पोर्ट पर ड्रग्स पकड़ी गयी, कुछ नहीं हुआ। नये नियम बनाकर कई हवाई अड्डे सौंप दिये गये। दबाव बनाकर कई तरह के लाभकारी ठेके दिलवाये गये। सरकारी संस्थानों को घाटे में दिखाकर बेच दिया गया, कोई जाँच नहीं हुई। लेकिन किसी दूसरी पार्टी की सरकार ने नयी शराब नीति बनाकर चंद ठेके दे दिये, तो जाँच और गिरफ़्तारियाँ होने लगीं। एक बड़ी पार्टी के यहाँ किसी भी तरह से पैसा आये, तो वह ठीक है। लेकिन दूसरी किसी पार्टी को कोई चंदा मिले, तो यह मनी लॉन्ड्रिंग है। मुक़दमा सिर्फ़ लेने वाले पर नहीं, देने वाले पर भी बनेगा। गवाह भी आरोपी को ही बना लिया जाएगा। गवाह के एक बयान पर किसी को भी उठा लिया जाएगा। लेकिन वहीं केंद्र की सत्ता में मंत्रियों पर रेप और पॉक्सो जैसे मामलों में भी कुछ नहीं होगा। पीड़ित भले ही प्रतिष्ठित ही क्यों न हो, पुलिस केस दर्ज नहीं करती। यह कोई आरोप या पक्षपात नहीं, बल्कि आजकल जो चल रहा है, उसी की बात हो रही है।

साफ़ है कि भारत सरकार किसी को भी नया नियम बनाकर लाभ पहुँचा सकती है। लेकिन अन्य कोई सरकार ऐसा करेगी, तो उसके मंत्रियों और उसकी पार्टी के नेताओं को जेल जाना पड़ेगा। क्योंकि अब सरकार की सोच है कि हम ईमानदार हैं और सब बेईमान हैं। विपक्षी सरकारों की सारी योजनाओं में भ्रष्टाचार है और हम वॉशिंग मशीन, जिसके अंदर आते ही सारे दाग़ धुल जाते हैं। क्योंकि हम राष्ट्रवादी हैं, और सब देशद्रोही। शायद इसी को ही राजनीति कहते हैं। अगर हम गिर रहे, तो तुम्हें भी ले डूबेंगे। मौज़ूदा दौर की राजनीतिक उठापटक यही कहती है। जिस तरह से पत्रकारों और विपक्षी नेताओं को जाँच एजेंसियों के ज़रिये निशाना बनाया जा रहा है और सत्ताधारी पार्टी में भ्रष्टाचार को लेकर $खामोशी है, उससे सवाल उठने लाज़िम हैं। सरकार यह नहीं चाहती कि कोई उसके ख़िलाफ़ बोले। क्योंकि वह जो कर रही है, बिलकुल सही कर रही है और देश को ऐसी ही सरकार की दरकार है। उद्योगपतियों का सारा चुनावी चंदा भी सिर्फ़ उसी को मिले और वह अपने धुआंधार प्रचार के ज़रिये सरकार बनाती रहे और सत्ता की मलाई सिर्फ़ मौज़ूदा ताक़तवरों की थाली में ही रहे। देश की जनता को उन्हें ही वोट देने की मजबूरी बना दी जाए, ऐसी तमाम कोशिशें की जा रही हैं। इन कोशिशों के ज़रिये क्या देश निरंकुश शासन की ओर नहीं बढ़ रहा है? जिसमें लोकतंत्र की जगह एक तंत्र हावी हो रहा है।

फरवरी, 2023 में जब मनीष सिसोदिया की गिरफ़्तारी हुई थी, तभी प्रधानमंत्री को विपक्ष के आठ बड़े दलों के नौ नेताओं ने पत्र लिखकर ईडी की कार्रवाई पर चिन्ता जतायी थी। लेकिन इस तरह की कार्रवाई रुकने के बजाय और तेज़ी से आगे बढ़ रही है। परिणाम यह निकला कि न्यूज क्लिक के तफ़्तर पर छापे के बाद 4 अक्टूबर को पत्रकारों के 18 संगठनों ने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखकर कहा कि पत्रकार देश के क़ानून से ऊपर नहीं हैं। किसी मामले में उनके लिए भी वही क़ायदे-क़ानून लागू होते हैं, जो अन्य नागरिकों पर लागू होते हैं। लेकिन हम पत्रकारों की अपील है कि सुप्रीम कोर्ट इस मामले में दख़ल देकर अकारण प्रताड़ित करने वाली कार्रवाई से पत्रकारों को बचाए, जिससे हम अपना काम बिना डर के ठीक से कर सकें। साथ ही यह भी लिखा कि आप जल्दी क़दम उठाएँ, नहीं तो देरी हो जाएगी और हालात और बिगड़ते चले जाएँगे।

देखा जाए, तो पिछले नौ वर्षों से बेधड़क उन पत्रकारों, नेताओं सहित उद्योगपतियों के पीछे जाँच एजेंसियों को छोड़ा जा रहा है, जो सरकार के पक्ष में नहीं हैं। जैसे ही कोई नेता या उद्योगपति सरकार के ख़ेमे में शामिल होता है, वह पाक-साफ़ हो जाता है। इस बात की प्रतिपुष्टि एक मीडिया रिपोर्ट के ज़रिये भी हो जाती है। रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले आठ साल में ईडी के छापों में 27 गुना बढ़ोतरी हुई है। यह बढ़ोतरी होना कोई बड़ी बात नहीं है; लेकिन जिस तरह से छापेमारी और गिरफ़्तारियाँ की जा रही हैं, उससे ईडी और सरकार सवालों के घेरे में है। 2004 और 2014 के बीच कांग्रेस की सरकार में ईडी ने 112 जगह दबिश दी और 5,346 करोड़ की सम्पत्ति ज़ब्त की थी। वहीं भाजपा सरकार के नौ वर्षों में ईडी ने 3,010 जगहों पर छापेमारी की और कुल एक लाख करोड़ की सम्पत्ति अटैच की। इनमें यहाँ ध्यान देने वाली बात है कि सम्पत्ति सिर्फ़ अटैच की गयी है। कितनी ज़ब्त की गयी? इसकी जानकारी नहीं मिल पायी है। डेटा के मुताबिक, नौ वर्षों में ईडी सिर्फ़ नौ मामलों में ही आरोपियों को ही दोषी सिद्ध कर पायी है। ये नौ मामले काफ़ी छोटे प्रोफाइल थे। इससे साफ़ है कि ईडी के छापे महज़ लोगों को डराने-धमकाने और परेशान करने के लिए किये गये। रिपोर्ट से यह भी पता चलता है कि पहले के मुक़ाबले चार गुना ज़्यादा मामले राजनीतिक दलों के ऊपर बढ़े हैं। इन नौ वर्षों में बड़े नेताओं पर 221 मामले ईडी के पास हैं। इनमें 115 मामले विपक्षी दलों के ऊपर हैं। यानी 95 फ़ीसदी मामले विपक्षी दलों के नेताओं के ऊपर हैं। इससे साफ़ पता चलता है कि सरकार ईडी और सीबीआई के ज़रिये देश को एक अच्छा संदेश देने के बजाय नेताओं, पत्रकारों सहित उद्योगपतियों को भी डराने का काम कर ही है।

दिल्ली में नयी शराब नीति में कथित घोटाले को लेकर ईडी तीन बड़े नेताओं को गिरफ़्तार कर चुकी है, जिसमें दिल्ली के मंत्री सत्येंद्र जैन, मनीष सिसोदिया और राज्यसभा सांसद संजय सिंह हैं। देखा जाए, तो जबसे इंडिया गठबंधन हुआ है, तबसे ईडी और ज़्यादा आक्रामक नज़र आ रही है। ईडी की नज़र अभी और कई बड़े नेताओं पर है। अब तक ईडी की जाँच के दायरे में कई मुख्यमंत्री और नेता शामिल हैं।

जबसे भाजपा सत्ता में आयी है, तबसे एक भी ऐसा नेता नहीं है, जिसके ख़िलाफ़ जाँच के बाद ईडी उस पर आरोप सिद्ध करने में कामयाब हो पायी हो। आरोप इतने सारे; लेकिन सुबूत एक भी नहीं, जिससे सिद्ध हो सके कि आरोप सही हैं। ईडी का चाल-चरित्र नेतागीरी के मॉडल पर आधारित है। यह सरकार के इशारों पर आरोप पत्र तैयार करने वाली महज़ एक एजेंसी बनकर रह गयी है, जिसमें ट्रेजेडी है। ड्रामा है; और इमोशन भी हैं। वह जिसको चाहे, फ़ज़ीर् केस में पकड़ सकती है।

दिल्ली की नयी शराब नीति में गिरफ़्तारी की जो पटकथा लिखी गयी है, उसमें दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल तक का नाम शामिल है। कल तक जिस मामले में संजय सिंह का नाम तक नहीं था, आरोपी संजय अरोड़ा को सरकारी गवाह बनाकर संजय सिंह का नाम उगलवाकर उनके घर पहुँचकर घंटों तलाशी और पूछताछ के बाद नाटकीय ढंग से ईडी उन्हें गिरफ़्तार कर लेती है। अभी तक कथित नयी शराब नीति घोटाले में ईडी 14 लोगों को गिरफ़्तार कर चुकी है, जिसमें आम आदमी पार्टी के नेताओं सहित कुछ लोग जेल में हैं, बा$की सभी को जमानत मिल चुकी है।

4 अक्टूबर को संजय सिंह की गिरफ़्तारी के बाद दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने सवाल उठाते हुए इसे ग़ैर-क़ानूनी बताया। संजय सिंह के आवास पर छापेमारी के बाद दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कहा था कि ये छापे एक ऐसी पार्टी (बीजेपी) की बदहवास कोशिश हैं, जो अगला चुनाव हारने जा रही है। वहीं संजय सिंह ने कहा कि मुझे मरना मंज़ूर है; डरना मंज़ूर नहीं है। चाहे जितनी यातनाएँ मुझे दी जाएँ, मैं नरेंद्र मोदी सरकार के भ्रष्टाचार, अडानी के महाघोटाले के ख़िलाफ़ बोलता रहूँगा। सिंह ने कोर्ट में पेशी के दौरान ईडी को अडानी का नौकर बताया और कहा कि हम इनसे डरते नहीं हैं। ये जितना अत्याचार और जुर्म कर लें, हम सह लेंगे।

दिल्ली के मंत्री सौरभ भारद्वाज ने कहा कि बिना किसी सुबूत और बिना किसी ठोस कारण के संजय सिंह को गिरफ़्तार किया गया है। यह प्रधानमंत्री की निराशा, हार का डर और बौखलाहट है। यह एक ऐसा फ़ज़ीर् शराब घोटाला है, जिसकी जाँच पिछले 15 महीने से चल रही है। ईडी और सीबीआई ने कम-से-कम 1,000 जगहों पर छापेमारी की है; लेकिन कहीं से एक रुपया भी बरामद नहीं हुआ है। इस मामले में दिल्ली के मंत्री गोपाल राय ने इसे प्रधानमंत्री मोदी की तानाशाही बताया।

बता दें कि तत्कालीन उप मुख्यमंत्री और दिल्ली के आबकारी मंत्री मनीष सिसोदिया को कथित शराब घोटाले के आरोप में गिरफ़्तार किया गया था। सुप्रीम कोर्ट में जब इसी 5 अक्टूबर को सिसोदिया के जमानत मामले की सुनवाई हुई, तो अदालत ने ईडी पर तल्ख़ टिप्पणी की। इस दौरान कोर्ट ने कहा कि ईडी पुख़्ता सुबूत रखे, नहीं तो यह केस दो मिनट भी नहीं टिकेगा। कोर्ट ने पूछा कि अगर इस मामले में रुपयों के लेन-देन में सिसोदिया की भूमिका नहीं है, तो धन-शोधन के मामले में उन्हें आरोपी क्यों बनाया? कोर्ट ने कहा कि एजेंसी सुबूत दे कि पैसा आरोपियों तक कैसे पहुँचा? कोर्ट ने कहा कि आपका केस आरोपी से सरकारी गवाह बने दिनेश अरोड़ा के बयानों के इर्द-गिर्द घूमता है और सुबूत के नाम पर कुछ है नहीं आपके पास। कोर्ट ने यह भी कहा कि शराब नीति से अगर सीधे तौर पर राजनीतिक पार्टी को फ़ायदा हुआ, तो उसे आरोपी क्यों नहीं बनाया?

ऐसा नहीं है कि कोर्ट ने पहली बार इस तरह से ईडी को फटकार लगायी हो। इससे पहले 3 अक्टूबर को भी रियल्टी समूह एम3एम के निदेशकों को जमानत देने के मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि मनी लॉन्ड्रिंग का केस दर्ज करते समय ईडी सख्ती ज़रूर बरते; लेकिन उसे बदला लेने की भावना से काम नहीं करना चाहिए।

देखने वाली बात यह है कि देश की जाँच एजेंसियाँ जिन मामलों में गिरफ़्तारी करती हैं, उन मामलों में निचली अदालतों में कम ही फैसले हो सके हैं। वहाँ आरोपियों की जमानत अर्जी पर भी जल्द फैसला नहीं हो पाता। लेकिन यही मामला जैसे ही सुप्रीम कोर्ट में पहुँचता है, तो वह ऐसी तल्ख़ टिप्पणी करता है कि ईडी कुछ जवाब नहीं दे पाती और कोर्ट जमानत का फैसला सुना देता है। सत्येंद्र जैन, मनीष सिसोदिया के मामले को भी देखने से यही लगता है कि निचली अदालतों में ये मामले नहीं निपट सके। उनमें फैसला देने में देरी भी हुई और उन्होंने जमानत अर्जी को खारिज करते हुए सीधे एजेंसियों के हाथों में अधिकतर मामले सौंप दिये और उनका निपटारा अभी तक नहीं हो सका।