यंगिस्तान संपूर्णता में एक ईमानदार कोशिश हो सकती थी. कुछ हिस्सों में यह है भी. लेकिन फिल्म को जब दूसरे तिराहे से मुड़कर तीसरी पेचीदा गली में पहुंच पांचवे मकान से सटे नाले को पार कर अंदर की दुनिया में झांकने का मौका मिलता है तब उसे हाइवे याद आने लगता है. उसे हाइवे के सफर की ही आदत है. उसके आस-पास बसे सुंदर गांव देखने की. उसी हाइवे से ताजमहल जाने की, लुटियन दिल्ली के नार्थ-साउथ ब्लॉक पहुंचने की. ऐसे सफर पर निकली ‘यंगिस्तान’ राजनीति में डूबी हिंदुस्तान भर की सारी सामाजिक दिक्कतों का जवाब मोंटाज बना-बनाकर देती है जिसके पीछे संगीत उतनी ही मधुरता से चलता है जैसे छुआछूत मानने वालों के घाट से सटकर पवित्र गंगा.
फिल्म की कहानी 28 साल के जैकी भगनानी के प्रधानमंत्री बनने और उसके बाद देश और गर्लफ्रेंड को संभालने की हातिमताई कसरतों की लुका-छिपी है. और वैसे तो 28 साल के ऐसे युवा वंशवाद की राजनीति की चुनावी मुहर होते हैं, उत्तर कोरिया जैसे देशों को चलाने के शायद बढ़िया उम्मीदवार, लेकिन किसी डेमोक्रेसी के लिए उनका प्रधानमंत्री होना जॉनी लीवर के ‘प्यासा’ में लीड रोल करने जितना ही दुर्दांत है. फिल्म अपनी शुरूआत में यही करके विचलित करती है लेकिन धीमे से आप उसे नजरअंदाज कर दें तो फिल्म अपने पहले टुकड़े में आपको मुस्कुराने का मौका भी देती है और पॉपकार्न खाने का भी. उसके पास कुछ अच्छे दृश्य हैं जैकी और नेहा के. उनकी निजी और उन्मुक्त जिंदगी के पब्लिक स्फियर में आने की कसमसाहट के. उसका स्थितिजनित हास्य अच्छा भी लगता है और नया भी. लेकिन तभी ध्यान आता है कि यह फिल्म भी गोल-गोल-गोल घूमने वाली ही घुमक्कड़ी कर रही है. उसके पास अब मुख्य बात प्रधानमंत्री का अपनी गर्लफ्रेंड के साथ लिव-इन में रहना है जिसे भुना-भुनाकर वह काला कर देती है. जैकी के चेहरे के पास भी तीन ही एक्सप्रेशन रह जाते हैं. एक बार हंस दिए तो उस हंसी को अगले तीस सेकंड तक बरकरार रखने वाला, रोने वाला और तीसरा चेहरे से कुछ भी नहीं करने वाला. नेहा शर्मा अच्छी लगती हैं और पहले हिस्से में अभिनय भी खराब से दूर खड़े होकर ही करती हैं. कुछ-एक दृश्यों में उनके मेकअप का गाढ़ापन अभिनय से ज्यादा गहरा जरूर है लेकिन उससे ज्यादा ध्यान इस बात पर जाता है कि फिल्म अपने दूसरे टुकड़े में हीरोइन को बिजूका क्यों बना देती है, उसके पास करने के लिए मां बनने के अलावा कुछ और क्यों नहीं रहता. लेकिन हीरोइनों का शुरूआत में आग की लपट होना और धीरे-धीरे सिर्फ हीरो के बाग की चमक होना हमारी फिल्मों को लिखने के नियमों में न्यूटन के किसी नियम-सा स्थायी है.
यंगिस्तान भी जब कुछ जमीनी कहानी कहने के बोझ से चिंतामुक्त हो जाती है, तब से वो किसी पार्टी का मेनिफेस्टो बन जाती है. ढेर सारे बदलाव लाने के वायदे करती है और समझ आता है कि लेखक को ऐसी क्रांतिकारी बातें लिखने में उतना ही मजा आया होगा जितना पार्टियों के मेनिफेस्टों को लिखने वाले लेखको को सालों से आता रहा होगा. लेकिन सतह पर ब्रिस्क वॉक करती कहानियां भावुक नहीं करती, सिर्फ हंसाती हैं.
फिल्म छोड़ने के बाद दो चीजें नहीं छूटती. फारुख शेख और दाता दी दीवानी गीत. ‘कथा’ देखने का विचार भी.