भोजपुरी एवं राजस्थानी, संवैधानिक सम्मान का संघर्ष

भाषा संस्कृति की नींव है। भाषा सदैव दोतरफ़ा ज़िम्मेदारी का निर्वहन करती है। एक तरफ़ वह समाज में संचार एवं अभिव्यक्ति का माध्यम है, तो दूसरी तरफ़ संस्कृति की प्रवक्ता भी होती है। भारत में भाषाओं के संवैधानिक अधिकारों की माँग बौद्धिक से अधिक राजनीतिक विमर्श का हिस्सा रही है। चूँकि भाषा का प्रश्न किसी समाज के लिए अति संवेदनशील मुद्दा रहा है, अत: राजनीति को इसमें हमेशा अपने लिए सम्भावना नज़र आती है। भोजपुरी और राजस्थानी दो ऐसी भाषाएँ हैं, जिन्हें लम्बे समय से माँग के बावजूद अब तक संविधान की आठवीं अनुसूची में जगह नहीं मिल पायी है।

काफ़ी समय से इसकी माँग विभिन्न संगठन और जनप्रतिनिधियों द्वारा की जाती रही है। किन्तु पिछले दिनों संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों ने फिर से इन दोनों भाषाओं को आठवीं अनुसूची में शामिल किये जाने की माँग उठायी। राजस्थान विधानसभा में शिक्षा मंत्री बी.डी. कल्ला ने राजस्थानी भाषा के लिए एवं दूसरी तरफ़ बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस (21 फरवरी) के मौक़े पर भोजपुरी को संवैधानिक मान्यता देने का मुद्दा उठाया। ये माँगें लगभग एक ही समय पर आयी हैं। अब इसके दो पहलू हो सकते हैं। पहला यह कि क्या ये सरकारें वास्तव में इन भाषाओं की उन्नति के लिए प्रयासरत हैं? और दूसरा यह कि आसन्न राजस्थान विधानसभा चुनाव को लेकर गहलोत सरकार का महज़ भावनात्मक गोलबंदी का प्रयास है? अथवा इसी तरह निरंतर प्रशासन को लेकर आलोचनाओं का सामना कर रहे नीतीश कुमार भी एक भावुक घोषणा कर संवेदना बटोरने में लगे थे?

भारत में भाषायी अस्मिता का संघर्ष बहुत पुराना है। भोजपुरी तो क़रीब पाँच दशक से यह लड़ाई लड़ रही है। सडक़ से लेकर संसद तक अपनी इस माँग को लेकर भोजपुरी भाषियों ने अपनी आवाज़ रखी है। सर्वप्रथम कॉमरेड भोगेंद्र झा इस माँग को लेकर सन् 1969 में प्राइवेट मेंबर बिल लेकर आये थे। तबसे अब तक संसद में इसे लेकर 18 निजी बिल आ चुके हैं। इसके अलावा कई बार ध्यानाकर्षण प्रस्ताव के माध्यम से भी और शून्यकाल के दौरान भी इस मुद्दे को सदन में उठाया जा चुका है, पिछली कई सरकारों की ओर से आश्वासन दिया गया; लेकिन कभी बोली और भाषा के भेद का तर्क देकर तो कभी नियमों की अस्पष्टता का हवाला देकर इस माँग को पूरा नहीं किया गया। यानी बात आश्वासन तक रही, नतीजा सिफ़त रहा।

देश में अगर किसी भाषा के संवैधानिक अधिकारों की माँग सबसे सार्थक है, तो वह भोजपुरी की ही है। सन् 2011 की जनगणना के अनुसार उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड, बंगाल आदि राज्यों में 14 करोड़ लोग, चार करोड़ लोग देश के अहिन्दी भाषी शहरों- चेन्नई, बेंगलूरु, हैदराबाद, गुवाहटी आदि में और चार करोड़ दुनिया के दूसरे 15 देशों में भोजपुरी बोलने वाले लोग हैं, जिनमें फिज़ी, नेपाल, मॉरीशस, गुयाना, सूरीनाम आदि ऊपर हैं। यह संख्या इससे ज़्यादा भी हो सकती है। आज अपने ही राष्ट्र में सम्मान का संघर्ष कर रही भोजपुरी विदेशों में एक सम्मानित भाषा का दर्जा रखती है। मॉरीशस में भोजपुरी को सन् 2011 से राष्ट्रभाषा का दर्जा प्राप्त है। वहाँ के शिक्षण संस्थानों एवं मीडिया जगत में भी इस भाषा का भरपूर इस्तेमाल होता है। इसी प्रकार भोजपुरी फिजी की आधिकारिक भाषाओं में शामिल है। ऐसे ही भोजपुरी सूरीनाम, गुयाना आदि देशों में सम्मानित है। मॉरीशस की पहल पर यूनेस्को द्वारा भोजपुरी संस्कृति के ‘गीत-गवनई’ को सांस्कृतिक विरासत का दर्जा दिया गया। जो काम भोजपुरी के मूल राष्ट्र भारत को करना चाहिए था, उसे किसी दूसरे देश ने किया। आज काशी हिन्दू विवि., शकुंतला मिश्रा पुनर्वास विवि., वीर कुँअर सिंह विवि., इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विवि., नालंदा मुक्त विवि., दिल्ली विवि. जैसे देश के लगभग दर्ज़न भर से अधिक विश्वविद्यालयों में भोजपुरी से जुड़े पाठ्यक्रम चल रहे हैं। भोजपुरी सिनेमा इंडस्ट्री का बाज़ार लगभग 30,000 करोड़ रुपये का है। भोजपुरी को समर्पित कई टीवी प्रचलन में हैं। संस्कृति मंत्रालय ने भोजपुरी फ़िल्म समारोह का आयोजन करवाता है। आश्चर्य है कि हज़ारों करोड़ के भोजपुरी सिनेमा व्यवसाय से रोज़गार, कर (टैक्स) प्राप्ति से सरकार को दिक़्क़त नहीं है; लेकिन भोजपुरी को सम्मान दिलाने के लिए कई दिक़्क़तों की सूची गिनायी जाती है। यह मानने में कोई दुविधा नहीं होनी चाहिए कि हिन्दी को समर्थ बनाने के लिए सबसे ज़्यादा त्याग भोजपुरी ने किया है। क्या हिन्दी के लिए सर्वाधिक त्याग करने और उसकी अधीनता स्वीकार कर चुपचाप उसकी सेवा करने का दण्ड भोजपुरी को दिया जा रहा है? स्थिति तब और आश्चर्यनक एवं दु:खद लगती है, जबकि देश के प्रधानमंत्री दो-दो बार भोजपुरी के गढ़ वाराणसी से सांसद चुने गये हैं।

केंद्र सरकारें इस माँग को लेकर अब तक बेहद असंवेदनशील रुख़ रखती रही हैं। सन् 2017 में इस तत्कालीन केंद्रीय गृह राज्य मंत्री किरण रिजिजू ने संसद में कहा था- ‘चूँकि बोली और भाषा का विकास सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक विकास से प्रभावित होता है, अत: उन्हें बोली से अलग बताने अथवा भारत के संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने के सम्बन्ध में भाषा सम्बन्ध कोई मानदण्ड निश्चित करना कठिन है।’ हालाँकि ऐसा निश्चित मानदण्ड तैयार करने के सम्बन्ध में पूर्व में पाहवा समिति (1996) तथा सीताकांत महापात्र समिति (2003) के माध्यम से किये गये थे; लेकिन अब तक इस पर क्या कार्यवाही हुई इसका कोई स्पष्ट जवाब सरकार के पास नहीं है।

वरिष्ठ पत्रकार एवं इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केंद्र के अध्यक्ष राम बहादुर राय इस सम्बन्ध में एक विशेष उपाय सुझाते हैं। वह कहते हैं कि देश में जितनी भाषाएँ हैं, उन सबको भारत सरकार को मान्यता देनी चाहिए। संविधान में संशोधन करके ‘एट्थ शेड्यूल’ को हटाकर एक पंक्ति का नियम रखिये कि भारत की सभी भाषाओं को संविधान मान्यता देता है। लेकिन एक वर्ग इसका विरोधी भी है। कलकत्ता विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्रोफेसर और हिन्दी बचाओ मंच के संयोजक डॉ. अमरनाथ के नेतृत्व एक प्रतिनिधि मंडल ने जुलाई, 2017 को केंद्र सरकार के तत्कालीन गृह मंत्री राजनाथ सिंह से मिलकर भोजपुरी और राजस्थानी समेत अन्य बोलियों को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने का विरोध किया। भाषायी एकता स्थापित करने के जुनून में देशज संस्कृतियों का दमन नहीं होना चाहिए। अखिल भारतीय भोजपुरी साहित्य सम्मेलन के पूर्व महामंत्री प्रोफेसर गुरुचरण सिंह कहते हैं कि इस राष्ट्र की जो मूल संस्कृति है, वो लोक भाषाओं में है। हिन्दी स्थापित भाषा है। हिन्दी को गढ़ा गया है। लेकिन भोजपुरी या अन्य लोक भाषाएँ विकसित भाषाएँ हैं। जो पूर्व-वैदिक काल में भाषा का स्वरूप था, उसी का विकसित स्वरूप भोजपुरी जैसी लोक भाषाएँ हैं। और इन लोक भाषाओं से ही सांस्कृतिक धरोहरों को हिन्दी में समाहित किया गया है। अगर लोक भाषाओं को संवैधानिक संरक्षण नहीं दिया गया, तो भारतीय संस्कृति भी नष्ट होती जाएगी। कैसी विडंबना है कि एक तरफ़ तो हम हर नये जनगणना आँकड़ों के साथ प्राचीन भाषाओं की विलुप्ति का रोना रोते हैं और उनके संरक्षण के लिए उद्घोषणा और योजना निर्माण की संवेदना व्यक्त करते हैं। वहीं भोजपुरी जैसी समृद्ध भाषा को उसके अधिकार से वंचित करके उसके पतन का इंतज़ार कर रहे हैं।

जिस तरह भाषायी अस्मिता का संघर्ष राष्ट्रीय एकता के लिए बाधा पैदा करता है, वैसे ही यह प्रादेशिक समाज में भी अंतर्विरोध पैदा करता है। इस विरोध का निशाना अकसर हिन्दी बनती रही है। कुछ समय पूर्व कर्नाटक में हिन्दी विरोध में नेम प्लेट पर कालिख पोती जा रही थी। हिन्दी की अधिकारिता के नाम पर भोजपुरिया और राजस्थानी समाज की भावनाओं की अवहेलना उन्हें दक्षिण भारत की तरह ही उग्र आन्दोलन के लिया उकसा सकता है। जो तथाकथित बुद्धिजीवी भोजपुरी के संवैधानिक अधिकारों की माँग को षड्यंत्र बताते हैं, वे स्वयं भोजपुरी के विरुद्ध दुरभि-सन्धि में शामिल हैं। जिन्होंने यह प्रश्न किया कि भोजपुरी और राजस्थानी का क्या उपयोग है? उनसे पूछा जाना चाहिए कि संवैधानिक सूची में दर्ज संथाली, गुजराती, मलयाली, असमी आदि भाषाओं का क्या उपयोग है? विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में शामिल बाक़ी विषयों की किसी व्यक्ति के जीवन में क्या उपयोगिता है?

दरअसल उपयोगिता तय करना या बढ़ाना सरकार का काम हैं। इसलिए भोजपुरी को लेकर उन्हें ओछे तर्कों से बचना चाहिए। अगर किसी भाषा का पैमाना बोलने वालों की संख्या हैं, तो आठवीं अनुसूची में शामिल मैथिली, सिंधी, डोगरी और नेपाली, कोंकणी जैसी लगभग 10 भाषाओं के बोलने वालों से भोजपुरी भाषियों की संख्या कहीं अधिक है। ऐसे ही राजस्थानी भाषी लोगों की माँग की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए। देश में 7वीं सबसे समृद्धशाली साहित्य की धरोहर सँभालती राजस्थानी भाषा की संवैधानिकता की माँग भी उचित है। पूर्वांचल और बिहार और राजस्थान के चुनावी जनसभाओं में भोजपुरी या राजस्थानी के एक-दो वाक्य बोलकर जनता को लुभाने का प्रयास करने वाले नेता सत्ता प्राप्ति के साथ सारा भाषायी सम्मान भूल जाते हैं। कांग्रेस सरकारों ने तो अब तक बेवक़ूफ़ बनाया ही; लेकिन दो-दो लोकसभा चुनाव में पूर्ण बहुमत की केंद्र एवं राज्यों में सरकार बनवाने में सहयोगी उत्तर प्रदेश, बिहार की जनता के साथ ही राजस्थानी जनता के साथ भाजपा भी इस मसले पर ईमानदार नहीं रही है। अयोध्यासिंह उपाध्याय हरिऔध लिखते हैं- ‘कैसे निज सोये भाग को कोई सकता है जगा, जो निज भाषा अनुराग का अंकुर नहिं उर में उगा।’ सरकारों एवं राजनीतिक दलों से अपेक्षा छोड़ भी दें, तो बिहार, उत्तर प्रदेश एवं राजस्थान से लगभग डेढ़ सौ सांसद चुनने वाली जनता की भावना की अनदेखी करने वाले इन जनप्रतिनिधियों की जवाबदेही तो तय होनी ही चाहिए।