जैसे भांति-भांति के लोग होते है, वैसे ही भांति-भांति के भूत. इसलिए एक भूत गंभीर है तो दूसरा हंसोड़. दोनों का नेचर अलग, मगर समस्या एक ही. टाइम पास नहीं होता था. सो टाइम पास करने के लिए वे खंडहर की खिड़की से आने-जाने वाले राहगीरों को देखा करते थे. गंभीर भूत का इतने से काम चल जाता था. लेकिन हंसोड़ भूत का मन नहीं भरता था इसलिए वह कभी-कभी शहर के चक्कर मार आता. चुपके से बबलगम भी खाता.
आज बैठे-बैठे हंसोड़ भूत बोर हो गया. मन बहलाने के लिए वह कहीं जाने की सोचने लगा, तभी हवा के तेज झोंके के साथ लहराता हुआ अखबार का एक टुकड़ा उससे टकराया. वह समय काटने के लिए अखबार पढ़ने लगा. पढ़ते-पढ़ते हंसोड़ भूत जोर से हंसा. वह हंसता ही रहा. गंभीर भूत ने मन ही मन सोचा कि ऐसा कौन-सा चुटकला पढ़ लिया है इसने! उसकी हंसी रोके न रुक रही थी. वह अपने स्वभाव से हंसोड़ तो था ही, लेकिन अब ऐसा भी क्या! हंसी का रहस्य जानने के लिए गंभीर भूत ने अखबार उसके हाथों से छीन लिया.
जब उसने वह खबर पढ़ी तो समझ पाया कि क्यों हंसोड़ भूत के सिर पर हंसी का भूत सवार हो गया है. वह बोला, ‘तुम ऐसी गंभीर बात पर हंस कैसे सकते हो? मरे हुए लोगों के नाम से पेंशन जारी हो रही है. यह तो धांधली है.’ हंसोड़ भूत ने किसी तरह से अपनी हंसी रोकी और बोला, ‘नहीं…इसे कहते हैं योजना का फली…भूऽऽऽत होना.’ यह कहकर हसोड़ा भूत खी-खी करके फिर हंसने लगा.
हंसते-हंसते हंसोड़ भूत बोला, ‘लगता है कि आज मैं हंसते-हंसते मर जाऊंगा!’ यह सुनते हुए गंभीर भूत अतिगंभीर हो गया. बोला, ‘मर कर भी चैन कहां मिला? भूत होकर भी हम तो एक अदद आशियाने के लिए भटक रहे हैं.’ हंसोड़ भूत की हंसी यकायक थम गई. बोला, ‘यार, फिर भी हम अच्छे हैं, वहां तो न जाने कितने, जीते जी भटक रहे हैं.’ ‘हां, मगर उनके पास अपनी काया तो है… काश हम भी…’, गंभीर भूत ने यह कह कर लंबी सांस खींची.
हंसोड़ भूत बोला ‘भूतकाल को भूल जाओ… वैसे देखा जाए तो हम जिस देश के भूत हैं वहां के अधिकांश जन हमारे जैसे ही हैं, कोई खास फर्क नहीं हैं, हम भी बेचैन आत्माएं हैं और वे भी!’ ‘ फर्क कैसे नहीं है.. माना कि उनकी आत्मा भी बेचैन है, मगर उनके पैर सीधे और हमारे पैर उल्टे हैं, दिखता नहीं…’, गंभीर भूत ने कहा. ‘अगर मैंने सिद्ध कर दिया कि हमारे और उनके बीच कोई मूलभूत अंतर नहीं है तो…’ हंसोड़ भूत किसी दार्शनिक की तरह बोला. ‘तो… जो तू बोल…’ गंभीर भूत उचक कर बोला. ‘फिर मेरे साथ खूब हंसेगा!’ हंसोड़ भूत एक आंख दबाकर बोला. ‘ठीक है पहले तू सिद्ध कर,’ गंभीर भूत ने चुनौती दी.
फिर क्या था! हंसोड़ भूत गंभीर भूत का हाथ पकड़ कर सायं-सायं उड़ने लगा. उड़ने से पहले उसने गंभीर भूत की आंख पर काली पट्टी बांध दी थी. थोड़ी देर उड़ने के बाद एक जगह रुक कर हंसोड़ भूत बोला, ‘शांत हो कर सब कुछ सुनता जा!’ गंभीर भूत सुनने लगा; ‘चले आते हो मुंह उठाएं मेरे पास… मेरे पास और दूसरा काम नहीं है क्या, हूंऽऽऽ’ ‘कल आना.’ ‘कल, कल, कल करके आज महीनों हो गए!’ ‘हैं कि नहीं है!’ ‘बिना चढ़ावा चढ़ाए काम नहीं होगा.’ ‘इतने दिनों से भटक रहा हूं.’ ‘किसी से कहलवाओ न!’ ‘हद है यार, इत्ते से काम के लिए एडि़यां घिस गईं.’ ‘ले लो… ले लो…बडे़ बाबू, भागते भूत की लंगोटी ही सही!’ ‘लातों के भूत बातों से नहीं मानेंगे!’
अब गंभीर भूत से रहा नहीं गया. झट से उसने अपनी आंखों से पट्टी उतार दी. उसने खुद को विकास भवन में पाया. उसने वहां जो देखा तो सहसा विश्वास नहीं हुआ. वहां से बहुत सारे लोग उल्टे पांव लौट रहे थे. हंसोड़ भूत बिना हंसते हुए बोला, ‘माना हमारे पांव उल्टे हैं, मगर यहां तो रोज न जाने कितने उल्टे पांव लौटाए जाते हैं. तभी तो हम जैसे भूतों को पेंशन मिलती है और अपने जीते जी आम आदमी को अपने हक-हकूक के लिए भूत बन कर भटकना पड़ता है.’
गंभीर भूत अपने भूत बनने पर अभिभूत था. हंसोड़ भूत के कहे की आधारभूत बात उसकी समझ में आ चुकी थी.
-अनूप मणि त्रिपाठी