यह बात सन 1994 की है. हम पूर्वी उत्तर प्रदेश के बलिया शहर में रहते थे. उस वर्ष मैंने स्नातक में दाखिला लिया था. हमारे किरायेदार यादव जी भारतीय नौसेना से रिटायर होकर आए थे. उनकी दो बेटियां थीं, बड़ी बेटी नवीं में और छोटी सातवीं में पढ़ती थी.
जुलाई का महीना था. एक दिन सुबह पता चला कि उनकी छोटी बेटी को बुखार है. ‘सीजनल होगा… दवा दिलाइए…’ मैंने सलाह दी. बोले, ‘दवा दी है, बुखार उतर जाना चाहिए.’ ‘किसको दिखाया?’ बोले, ‘मैंने ही दी है.’ ‘आपने दी है मतलब?’ मैं हैरान हुआ. बोले, ‘नौकरी करते हुए होम्योपैथी का कॉरेस्पॉन्डेस कोर्स भी कर लिया था…तो कुछ दवाइयां रखता हूं. हर इतवार को गांव भी जाता हूं… मेरी क्लीनिक है वहां, लोगों की निशुल्क सेवा करता हूं.’ थोड़ा गौरवान्वित होकर मुस्कुराए. ‘अरे महाराज बुखार तेज है इसको (मैंने उसका माथा छुआ), मीठी गोली के वश की बात नहीं, अंग्रेजी वाले को दिखाइए.’ बोले, ‘देखते हैं.’
शाम तक बच्ची की हालत बिगड़ने लगी थी. हमलोग भागकर जिला अस्पताल गए. वहां डॉक्टर ने कहा तुरंत बनारस ले जाइए. वह परेशान हुए कि बनारस में तो हमारी कोई पहचान नहीं है. उनकी पत्नी और मैंने कहा कि सब भगवान है. खैर, यादव जी अपनी पत्नी और बेटी के साथ ट्रेन से बनारस के लिए रवाना हो रहे थे. अचानक बिना कुछ सोचे समझे मैं भी उनके साथ चल पड़ा. हालांकि न मैंने कभी बनारस देखा था और न ही मेरे पास पैसे थे कि वहां कोई जरूरत पड़ती तो कुछ कर पाता. लेकिन फिर भी मैं उनके साथ हो लिया.
बनारस पहुंचते-पहुंचते आधी से ज्यादा रात बीत गई थी और बच्ची की हालत और भी खराब होती जा रही थी. भारी बारिश में एक ऑटो पकड़कर हम बीएचयू पहुंच गए. ऑटो वाले की मदद से चाइल्ड वार्ड पहुंचे तो वहां बरामदे तक भीड़ लगी हुई थी. मौजूद जूनियर डॉक्टरों ने उसे देखना भी मुनासिब नहीं समझा. मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था. मैंने तो बस नाम सुना था बीएचयू का. बड़ा अस्पताल, बड़े-बड़े डॉक्टर हैं, लेकिन यहां तो बदतर स्थिति है… दिमाग में ये सब चल ही रहा था कि ऑटो वाले ने राह सुझाई कि कबीरचौरा में एक प्राइवेट ‘काशी विश्वनाथ’ अस्पताल है. वहां बीएचयू के सारे बड़े डॉक्टर आते हैं. उसी ऑटो से हम लोग रात करीब डेढ़ बजे वहां पहुंचे और 30 मिनट में ही चार बड़े डॉक्टर हाजिर हो गए. पता चला बिटिया को मस्तिष्क ज्वर है. ‘बहुत फैला हुआ है. बच्चे रोज मर रहे हैं.’ एक तीमारदार अनायास ही बताने लगा.
‘मैंने तो बस नाम सुना था बीएचयू का. बड़ा अस्पताल, बड़े-बड़े डॉक्टर हैं, लेकिन यहां तो बदतर स्थिति है . . .’
इलाज शुरू हुआ, जैसा कि होता है, नकद राशि पहले ही जमा करा ली गई. थोड़ी तसल्ली हुई कि भगवान… सही समय से सही जगह आ गए. रात बीती, सुबह हुई फिर दोपहर, लेकिन परिणाम कुछ नहीं. आखिरकार दो बजे दोपहर में उसे एक एंबुलेंस सहित ‘रेफर’ कर दिया गया कबीरचौरा हॉस्पीटल. हमलोग कुछ समझ पाते कि चंद मिनट में वहां पहुंच गए. पता चला ये सरकारी अस्पताल है. वहां डॉक्टरों ने देखते ही कहा ‘कोई फायदा नहीं, यहां क्यों लाये?’ मैंने कहा ‘उन्होंने यहां रेफर किया है.’ जवाब मिला ‘और वे क्या? डेथ सर्टिफिकेट तो यहीं से मिलेगा’. हे भगवान… इस चीख के बाद दोनों मां-बाप बदहवास हो गए और मैं हतप्रभ. इस पूरी हताशा के बीच मैं अकेले उन्हें वापस बलिया लाने की जुगत में लगा. लेकिन मुझ अज्ञानी को क्या पता था कि किसी ‘लाश’ के साथ कोई टैम्पो वाला बैठाएगा नहीं. बड़ी देर तक मैं सैकड़ों ऑटो वालों से स्टेशन चलने की गुहार लगाता रहा. मैं सड़क पर हर ऑटो वाले को हाथ मारता… लेकिन कोई फायदा नहीं. अब मैं भी हताश होने लगा था कि न जाने किसने मेरे कंधे पर हाथ रखकर बोला… क्या बात है? वाकया सुनते ही उसने एक ऑटो वाले को रोका और कुछ कहा. वह हमें बस स्टैंड लेकर गया. बलिया वाली बस के कंडक्टर से उसने कान में कुछ कहा. कंडक्टर धीरे से बोला, ‘सबसे पीछे वाली लंबी सीट पर आप इसे (लाश को) गोद में लिटाकर बैठ जाइए, कोई पूछे तो कहिएगा तबियत खराब है. वरना लोग नाराज हो जाएंगे.’
मेरा दिमाग उस अजनबी पर अटका था जिसके एक इशारे पर ये सब कुछ आसान हुआ. क्यों उसने मदद की? क्यों सभी उसकी बात मान रहे हैं? क्या वह भगवान है? कौन था वो? आखिर मैंने ऑटो वाले से पूछ ही लिया. बोला, ‘अध्यक्ष जी थे न… आप नहीं जानते? अरे… बीएचयू वाले…’ हमलोग नाटकीय अंदाज में बस में बैठने की कोशिश करने लगे. लेकिन औलाद खो चुके मां-बाप की आंखों का सैलाब कहां रुकने वाला था. यात्रियों की घूरती नजरों के बीच मेरे मन में सवाल कौंध रहा था कि इंसानों में भगवान कहां था? वह ऑटो चालक जो अस्पताल ले गया. या वे सारे डॉक्टर जो रात के दो बजे नींद छोड़ इलाज करने आए या फिर वह छात्र नेता जिसने एक असहाय की मदद की…? अब जब मैंने भी दुनिया देख ली है तो समझ आया कि भगवान वही है, जिसका भय हो.