संगीत, कविता और सिनेमा से गहरा जुड़ाव होने के नाते मुझे जिज्ञासा होती है कि क्या मैं भगत सिंह को इतिहास के पन्नों से कुछ देर के लिए उधार लेकर उनके व्यक्तित्व को एक अलग रोशनी में देख सकता हूं.
जेल में लिखी गई भगत सिंह की नोटबुक को पलटते हुए मेरी नजर उमर खय्याम की कुछ रु बाइयों के अंग्रेजी अनुवाद पर पड़ती है
जिसका मतलब कुछ यूं बनता है –
ओ मेरे प्रियतम वो प्याला भर
जो मिटा दे बीते का अफसोस और आने वाले कल का डर
यहां एक दरख्त के नीचे रोटी के एक टुकड़े के साथ
शराब की बोतल और शायरी की एक किताब
और इस वीराने में तुम मेरे पास गाती हुई
वीराने को जन्नत बनाती हुई
पहली नजर में ये रुबाइयां देखकर अजीब लगता है. क्या ये वही भगत सिंह हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि वे एक घोर यथार्थवादी थे? ऐसे आवेगों से दूर जो तर्क की कसौटी पर खरे नहीं उतरते. लोकप्रिय छवि में भी भगत सिंह ऊर्जावान की बजाय गरिमामयी युवा ज्यादा नजर आते हैं. उनकी लेखन शैली, समझाने और पाठकों से संवाद स्थापित करने वाली है. इसमें युवाओं वाली आक्रामकता भी नजर आती है मगर एक संयत दायरे में रहकर. इसलिए भगत सिंह की नोटबुक में लिखी इन रुबाइयों को देखना कुछ अजीब सा लगा.
भले ही दोनों रुबाइयों में कोई मेल जुड़ता न लगता हो, लेकिन इनमें वर्तमान के साथ एक गहरा जुड़ाव झलकता है – जो मिटा दे बीते का अफसोस और आने वाले कल का डर. वर्तमान ही सब कुछ है इसका अहसास दरख्त के नीचे प्याले और प्रियतम के साथ की इच्छा और गहरा कर देती है. एक युवा क्रांतिकारी की कोमल भावनाएं….ऐसा कम ही हुआ है कि भगत सिंह प्रेम से जुड़े सवालों में उलझे हों. इसकी एक हल्की सी झलक उनके द्वारा सुखदेव को लिखे एक पत्र में मिलती है जिसमें एक संभावित आकर्षण की चर्चा की गई थी जिसे वे बाद में पलटते तो प्रतीत होते हैं पर पूरी तरह से नकारते नहीं.
यथार्थ में जीने के बावजूद भगत सिंह की कल्पनाएं मुझे आलंकारिक और भव्य लगती हैं. फांसी से कुछ घंटे पहले लिखी गई उनकी पंक्तियों में वे तल्लीनता से खुद को परिभाषित करते प्रतीत होते हैं.
कोई दम का मेहमान हूं
अहले महफिल
चराग-ए-सहर हूं बुझना चाहता हूं
मेरी हवा में रहेगी ख्याल
की बिजली
ये मुश्त-ए-खाक है फानी,
रहे न रहे
अगर ये पंक्तियां वास्तव में भगत सिंह की हैं तो इनमें आत्ममुग्धता का भाव स्पष्ट दिखाई देता है. बाकी जगहों पर वे स्पष्ट रूप से कहते हैं, ‘मैं जोर देकर कहना चाहता हूं कि मुझमें महत्वाकांक्षाएं, उम्मीदें और जीवन के प्रति आकर्षण कूट-कूट कर भरा है. लेकिन जरूरत पड़ने पर मैं इन सबका त्याग कर सकता हूं.’ लोगों के दिमाग में बसी अपनी छवि की क्षणभंगुरता से भी वे अच्छी तरह वाकिफ दिखते हैं. द्वितीय लाहौर षड्यंत्र केस में आरोपियों को पत्र लिखते हुए भगत कहते हैं, ‘मेरा नाम भारतीय क्रांति का प्रतीक बन गया है….आज लोग मेरी कमजोरियों के बारे में नहीं जानते.’
फांसी से कुछ देर पहले वे लेनिन पर एक किताब पढ़ रहे थे. जब उनसे फांसी के फंदे तक चलने के लिए कहा गया तो वे फुसफुसाए, ‘जरा ठहरो…एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से बात कर रहा है’
भगत सिंह 23 वर्ष के ही थे जब वे सुखदेव और राजगुरू के साथ निर्भय होकर फांसी के तख्ते पर झूल गए. उनके चेहरे पर एक क्षण के लिए भी मौत का भय या जीवन का मोह नहीं दिखाई दिया. आखिरी वक्त तक उनका व्यवहार कुछ-कुछ परीक्षा की तैयारी कर रहे छात्र जैसा रहा. उनके बारे में मौजूद जानकारियां बताती हैं कि उनका ज्यादातर समय किताबों के साथ बीतता था. यह हक उन्होंने और उनके साथियों ने जेल में एक लंबी और कष्टकारी भूख हड़ताल के बाद हासिल किया था. वे किताबों के ढेर से ढेरों नोट्स बनाते थे और उनकी रुचियों की विविधता अविश्वसनीय थी. जेल में बिताए अपने आखिरी दिनों में उन्होंने पत्र लिखना भी शुरू कर दिया था. कामरेड साथियों और सरकार को ये समझाना जरूरी था कि क्यों राजगुरू, सुखदेव और उनके लिए मौत का विकल्प चुनना हर तरह से सही है और क्यों बाकी आरोपी साथियों का जिंदा रहकर काम करते रहना. भगत सिंह को माफी देने की अपील करते हुए उनके पिता ने सरकार को एक पत्र लिखा था. भगत को जब यह पता चला तो वे बहुत नाराज हुए. उन्होंने पिता की पुत्र के प्रति इस स्वाभाविक कमजोरी का विरोध भी किया. पंजाब सरकार को लिखे एक पत्र में उन्होंने मांग की कि राजगुरू, सुखदेव और उनके साथ युद्धबंदियों जैसा व्यवहार किया जाए और साधारण अपराधी की तरह फांसी देने की बजाय उन्हें गोली से उड़ाया जाए.
असाधारण साहस, असीमित आदर्शवाद और युवा जोश की बहुत सी कहानियां भगत सिंह के इर्द-गिर्द घूमती हैं. कहा जाता है कि फांसी से कुछ देर पहले वे लेनिन पर एक किताब पढ़ रहे थे. जब उनसे फांसी के फंदे तक चलने के लिए कहा गया तो वे फुसफुसाए, ‘जरा ठहरो…एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से बात कर रहा है’ इन संदर्भाें की कोई पुष्टि तो नहीं होती लेकिन ये देश की मिट्टी में बस गए हैं.
अपने पिता और पंजाबी कवि हरभजन सिंह के एक आत्मकथात्मक निबंध के जरिये मैं उस रात की कल्पना कर सकता हूं जब तीनों क्रांतिकारियों को लाहौर की सेंट्रल जेल के भीतर फांसी दी गई. जेल के सबसे नजदीक स्थित इंसानी बस्ती हमारा पैतृक गांव इच्छरा था. गांव और जेल के बीच तीन ही चीजें थीं – सांपों से भरीं कांटेदार झाड़ियां, एक श्मशान और रेल की पटरी. मंैं 23 मार्च की रात की कल्पना करता हूं. इस समय आम तौर पर खामोश रहने वाले गांव में आज रोमांच का माहौल है. संभावित फांसी की अफवाहें उड़ रही हैं. शाम रात में ढलती है और गांव धीरे-धीरे अंधेरे की चादर ओढ़ लेता है. दूर से आती इंकलाब जिंदाबाद की आवाजें गांव के सन्नाटे को तोड़ने लगती हैं. क्रांतिकारियों को फांसी दी जा चुकी है. शुरुआती और संकोच भरी खामोशी के बाद छतों पर खड़े लोग भी जवाब में नारे लगाने लगते हैं. उनकी आवाज जेल के कैदियों तक पहुंचती है और वे भी इसका उत्तर देते हैं. माहौल में अब जोश आ जाता है. हिंदू, मुसलमान, सिख एक आवाज में नारे लगाते हैं और रात की खामोशी कई टुकड़ों में बिखर जाती है. दोनों तरफ से एकता का ये प्रदर्शन देर रात तक जारी रहता है. किसी ने भी आज घर में दिया नहीं जलाया है. दूर से दिख रहा जेल का उजाला रोशनी के किसी छोटे से टापू की तरह लग रहा है. लंबी और अंधेरी रात की कोख से एक नई कहानी पैदा हो रही है.
23 साल के भगत सिंह ने एक नास्तिक के रूप में फांसी के फंदे को चूमा था. खुदीराम और अशफाकउल्ला की तरह उन्होंने फांसी के समय गीता या कुरान अपनी छाती से नहीं लगाई थी. चीफ वार्डन छतर सिंह की वाहेगुरू बोलने की प्रार्थना को भी उन्होंने ये कहकर विनम्रता से ठुकरा दिया था, ‘नास्तिक होने के लिए मेरी आलोचना की जा सकती है. लेकिन कोई यह तो नहीं कहेगा कि भगत सिंह मौत को सामने देखकर घबरा गया.’
उनकी नास्तिकता का उनके धर्मनिरपेक्ष आदर्शवाद की तलाश से गहरा संबंध था. बीसवीं सदी के पहले 25 साल में बदलाव की बयार बड़ी तेजी से बह रही थी. वह सूफी आंदोलनों का दौर था और प्रथम विश्व युद्ध से झटका खाए ब्रिटिश राज की चमक भी फीकी पड़ने लगी थी.
इसी दौर में कहीं हमें 12 साल के उस भगत की कहानी मिलती है जो जालियांवाला हत्याकांड के अगले दिन स्कूल से भागकर अमृतसर पहुंचा था. वह बच्चा जो जालियांवाला बाग की मिट्टी अपने साथ ले जाने के लिए एक छोटा सा डिब्बा साथ लाया था. इस घटना में बालसुलभ कोमलता, भावुकता और बुद्धि की परिपक्वता की झलक मिलती है. कुछ साल बाद ही भगत सिंह डीएवी स्कूल छोड़कर राजनीतिक हलचल का हिस्सा बन गए. उन्हीं दिनों गांधीजी ने असहयोग आंदोलन का आह्वान किया था.
राज के खिलाफ अब तक बड़ी सीमा तक सांप्रदायिक रहा प्रतिरोध अब संस्कृतियों, धर्माें और सोच से ऊपर उठना शुरू हो चुका था. लाहौर, जालंधर, दिल्ली, इलाहाबाद, कानपुर, कलकत्ता, बंबई और पूना में हो रहे विरोध ने देश को क्रांति के एक सूत्र में गूंथ दिया. क्षेत्रीय पहचान की चमक अब धुंधली पड़ रही थी. दुनिया को दिखने लगा था कि पूरा भारत अब अंग्रेजों का विरोध कर रहा है.
यह वह दौर भी था जब किताबें, विचारधाराएं, कविताएं, संगीत, सिनेमा और रंगमंच जैसे मनबहलाव के कई नए माध्यम उभर रहे थे. भगत सिंह की नई तकनीकों में काफी रुचि थी. कहा जाता है कि वे अक्सर क्रांतिकारी साथियों को खाने के पैसे बचाकर सिनेमा देखने के लिए फुसलाते थे.
राज को योजनाबद्ध तरीके से चुनौती देने का समय आखिरकार आ गया था. विचारधाराओं में तीखा टकराव हो रहा था जिसमें मेल-मिलाप की संभावना नजर नहीं आ रही थी. दूसरे तरीकों से ब्रिटिश राज का विरोध कर रहे गांधी, नेहरू और पटेल एक ऐसी परंपरा से आए थे जो भगत सिंह, सुखदेव और बटुकेश्वर दत्त से काफी अलग थी. यह भी रोचक है कि इन क्रांतिकारियों को जनसाधारण ने कभी बापू, चाचा, मौलाना या सरदार जैसे संबोधनों से नहीं पुकारा.
भगत सिंह का दौर गुजरे लगभग सौ साल हो चुके हैं मगर जनमानस में उनकी छवि आज भी वैसी की वैसी ही है. यह तो नहीं कहा जा सकता कि वे एक कालजयी व्यक्तित्व बनकर अमर हो गए हैं लेकिन यह भी तय है कि समय और नजरिये में बदलाव के साथ भगत सिंह की प्रासंगिकता और लोगों की सोच पर उनकी पकड़ नित नए सांचों में ढलती रहेगी.
(लेखक, शिक्षक होने के साथ-साथ संगीत, गायन, और अभिनय के क्षेत्र से जुड़े हैं)
(नजरिया, 31 मार्च 2009 में प्रकाशित)