बेबसी और क्षोभ की नर्मदा

अगर नर्मदा के किनारे बसे लोग नहीं उजड़ेंगे तो दिल्ली और मुंबई की इमारतें बनाने वाले सस्ते मजदूर कहां से आएंगे?

दिल्ली के जंतर-मंतर पर सिविल सोसाइटी का आंदोलन देखकर द्रवित हो जाने वाले लोगों को खंडवा में गले भर पानी में डूब कर आंदोलन कर रहे कार्यकर्ताओं को देखना चाहिए था. पूरे 17 दिन यह आंदोलन चलता रहा और इसके लिए कई गांवों से जुटे आंदोलनकारी अपने अंग गलाते रहे. 17 दिन बाद सरकार ने घुटने टेके और आंदोलनकारियों को भरोसा दिलाया कि उनकी मांगें सुनी जाएंगी. हालांकि जिस मोटी भाषा में यह आश्वासन दिया गया है, उसमें आगे अगर-मगर का अंदेशा बना हुआ है, पर फिलहाल इतनी भर आश्वस्ति जरूर है कि सरकार तत्काल इंदिरा सागर और ओंकारेश्वर जलाशयों का जल स्तर बढ़ाने से बचेगी. अब तक कई गांवों को डुबो चुके और हजारों लोगों को पहले ही विस्थापित कर चुके इन जलाशयों से कई और गांवों के डूबने का खतरा बताया जा रहा था. 

लेकिन यह इस आंदोलन का एक पहलू है, दूसरा और ज्यादा अहम पहलू पुनर्वास के उस मुद्दे से जुड़ा है जिसकी सरकार उपेक्षा करती रही है. सुप्रीम कोर्ट के बहुत सख्त निर्देशों के बावजूद पहले से विस्थापित लोगों के पुनर्वास का दायित्व, उन्हें कायदे की जमीन देने का काम अभी तक पूरा नहीं हुआ है. सच तो यह है कि अब इस आंदोलन की कहानी लिखते हुए तकलीफ भी होती है और भारतीय राष्ट्र राज्य की अन्यमनस्कता से डर भी लगता है. 80 के दशक में जब यह आंदोलन शुरू हुआ था तब लगता था कि इसके दबाव में नर्मदा को बांधने और काटने-छांटने चली सरकारों के पांव कुछ कांपेंगे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. तब कम लोगों को मालूम था कि अमरकंटक से निकल कर सतपुड़ा और विंध्य से जंगलों से गुजरती हुई, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र पार कर गुजरात के अरब सागर में गिरने वाली करीब 1,300 किलोमीटर लंबी इस नदी पर छोटे-बड़े 3,000 बांध बनेंगे. अगर यह पूरी हो पाई तो दुनिया की सबसे विराट नदी-घाटी परियोजना होगी जो पता नहीं कितनी बिजली पैदा करेगी और कितने कंठों की प्यास बुझा पाएगी, क्योंकि हमारी नदी घाटी परियोजनाओं के लक्ष्य आम तौर पर अधूरे नहीं, चौथाई भी पूरे नहीं होते रहे हैं. ताजा मिसाल टिहरी बांध परियोजना है जहां 2,500 मेगावाट बिजली पैदा करने का दावा 600 मेगावाट बिजली उत्पादन से आगे नहीं बढ़ पाया है, जबकि पुरानी टिहरी डुबो कर एक नई टिहरी खड़ी कर दी गई है. 

                   

बहरहाल, नर्मदा घाटी जैसी विराट परियोजना से विस्थापित होने वाले लोगों की तादाद कम से कम एक करोड़ होगी जिसका मार्मिक और दारुण सिलसिला कई साल पहले से शुरू हो चुका है. इतनी विराट परियोजना हमारे पर्यावरण को जिस तरह तहस-नहस करेगी, इसकी कल्पना और मुश्किल है. ये सारे तर्क आज के नहीं, बहुत पुराने हैं. इससे जुड़ी लड़ाई भी बहुत पुरानी है. लेकिन सरकारें जैसे कुछ भी देखने-सुनने को तैयार नहीं हैं. आंदोलन चलता रहा, थकता रहा, फिर खड़ा होता रहा, सरकारों के दमन और उत्पीड़न झेलता रहा, हताश भी हुआ, मेधा पाटकर मणिबेली में जलसमाधि के लिए भी उतरीं, गुजरात ने उनके बाल खींचे, दिल्ली ने उन्हें 20 दिन भूखा रखा- इस सिलसिले को न जाने कितने साल हो गए. दूसरी तरफ बांध बनते रहे, बड़े होते रहे, गांव डूबते रहे, लोग बेदखल होते रहे. डूबने वाले गांवों और कस्बों की कहानी कुछ दिन खबरों में डूबती-उतराती रही और फिर नर्मदा की धारा के साथ बह गई. विस्थापितों को उचित मुआवजा और पुनर्वास के लिए जगह देने का अदालती फैसला और सरकारी वादा झूठ और फरेब की फाइलों में गुमा हुआ है और सारी सरकारें देसी-विदेशी कॉरपोरेट घरानों के लिए सेज बना-सजा रही हैं. 

इतनी चोटों के बावजूद नर्मदा आंदोलन इसलिए बचा हुआ है कि वह बहुत सारे लोगों के लिए बिल्कुल जीने और मरने का मामला है. खंडवा के घोगलगांव में जो लोग गंदे पानी में गले भर डूब कर इस अंधी-बहरी व्यवस्था को आवाज देने की कोशिश करते रहे, उन्हें पता था कि उनके सामने और कोई रास्ता नहीं बचा है. इस आंदोलन को मीडिया में जो आवाज मिली, शायद उसका कुछ असर रहा कि फिलहाल मध्य प्रदेश सरकार ने इनकी मांगें मान लीं, क्योंकि वह किसी भी सूरत में यह संदेश जाने नहीं दे सकती थी कि वह एक हत्यारी सरकार है जिसने अपने लोगों को गले भर पानी में डुबो कर मार डाला, लेकिन सच्चाई यही है कि इन उजड़े हुए, बेदखल हो रहे लोगों के सामने ऐसी विकल्पहीनता बढ़ती जा रही है. सिर्फ नर्मदा की घाटी नहीं, जैसे पूरा देश करोड़ों बेदखल और बेसहारा लोगों के लिए ऐसी अंधी गली में बदलता जा रहा है जहां आत्मघाती रास्ते अंतिम रास्तों की तरह बचे हुए हैं. 

क्या दिल्ली को इस बेबस और बेदखल आबादी के बारे में कुछ मालूम नहीं है? क्या यह सिर्फ केंद्र और हाशियों के बीच की दूरी का मामला है जिसकी वजह से इस आंदोलन की आवाज सत्ता के कंगूरों तक नहीं पहुंचती या देर से पहुंचती है?  दरअसल नर्मदा घाटी ही नहीं, दूसरी तमाम ऐसी बड़ी योजनाओं में बेदखल और विस्थापित होने वाली 90 फीसदी आबादी उन आदिवासियों और दलितों से बनती है जो बाकी हिंदुस्तान के लिए- नए बनते इक्कीसवीं सदी के सुपरपावर इंडिया के लिए- औपनिवेशिक प्रजा का काम करते हैं. अगर नर्मदा के किनारे बसे लोग नहीं उजड़ेंगे तो दिल्ली और मुंबई की इमारतें बनाने वाले सस्ते मजदूर कहां से आएंगे, कौन यहां की सड़कों पर रिक्शा खींचेगा या महानगरों का कूड़ा उठाएगा? यानी यह नादानी नहीं चालाकी है जो इतनी बड़ी आबादी के विस्थापन को लेकर बरती जा रही खामोशी में निहित है. कभी-कभी गले तक पानी में डूबे लोग इस चालाक व्यवस्था को कुछ देर के लिए डरा देते हैं, लेकिन वादों का खेल खेलने में सरकारें कहीं ज्यादा माहिर हैं. इसके बावजूद खंडवा की कामयाबी नर्मदा बचाओ आंदोलन के बचे-खुचे वजूद के लिए उम्मीद और ताकत दोनों जुटाती है.