नफ़रत से कुछ हल नहीं होने वाला। दिमाग़ों में उगने वाली यह ज़हरीली फ़सल सिवाय तबाही और दु:ख के कुछ और नहीं दे सकती। नफ़रत में जो पड़ा, समझिए उसने अपनी और अपनी नस्लों की जीते-जी हत्या कर दी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने दशहरा वाले दिन नागपुर में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के एक कार्यक्रम में देश में पनप रही नफ़रत को लेकर जो कहा, उसके सभी लोग अपने-अपने हिसाब से मतलब निकाल रहे हैं।
देश में पनप रही नफ़रत और अपनों को ही पराया समझने की धारणा के बारे में भागवत का बयान इतना दो-अर्थी है कि हर पक्ष के लोग उसका अर्थ अपने-अपने हिबास से निकालने लगे। उन्होंने कहा कि अपना दिमाग़ ठंडा रखकर सबको अपना मानकर चलना पड़ेगा। यह अपनेपन की पुकार है; जिसे सुनायी देगी, उसी का भला होगा। जो फिर भी नहीं सुनेंगे, उनका क्या होगा? यह पता भी नहीं लगेगा। आख़िर एक ही देश में रहने वाले इतने पराये कैसे हो गये?
हालाँकि मोहन भागवत ने यह नहीं बताया कि इस लोकतांत्रिक देश में अपनों को ही पराया करने वाले आख़िर कौन लोग हैं? उन्होंने इन नफ़रती लोगों की कपड़ों से पहचान भी नहीं बतायी। उन्होंने उन लोगों का नाम भी नहीं लिया, जिनकी ज़ुबान से हरदम नफ़रतों के शोले बरसते हैं। उन्होंने भाईचारे की बात करने वालों की तारीफ़ भी नहीं की। उन्होंने तिरंगे का अपमान करने वालों को, संविधान की प्रतियाँ जलाने वालों को और भीड़ के रूप में इकट्ठे होकर आम लोगों को पीटने वालों को भी कोई संदेश नहीं दिया। फिर आख़िर सरसंघचालक ने किसको धमकाया? उन्होंने जी-20 के सफल आयोजन से लेकर राम मंदिर जैसे कुछ कामों को लेकर सरकार की तारीफ़ की। जनता से चुनावों में सतर्क रहने को कहा। किसी के बहकावे में आकर मतदान नहीं करने को कहा। लोगों से यह भी अपील की, कि जो बेहतर हो, उसे ही वोट देना। मणिपुर में हिन्दू-मुस्लिम एकता का ज़िक्र भी किया। लेकिन यह नहीं बताया कि देश की लोकतांत्रिक छवि पर नफ़रत की कालिख कौन पोत रहा है?
ऐसा लगता है कि सरसंघचालक ने ‘एकै साधे सब सधै’ वाले अंदाज़ में सब कुछ गोलमोल करके सभी को ख़ुश करने की कोशिश की। सच कहने की कोशिश तो उन्होंने की; लेकिन सच को सही तरी$के से कहने से बचते रहे। नफ़रत फैलाने वालों को सीधे-सीधे निशाना नहीं बना सके। बुराई के रावण की ओर तीर तो चलाये; लेकिन निशाने पर एक भी नहीं लगा। अगर लगता, तो छत्तीसगढ़ में विरोधी पार्टी के मुख्यमंत्री को उलटा लटकाने की बात अमित शाह ने नहीं कही होती। मध्य प्रदेश में एक भाजपा नेता विरोधी दल के नेता के बेटे को पिल्ला नहीं बोला होता। लेकिन मोहन भागवत ने नफ़रत फैलाने वालों पर जिस तरह से तंज कसते हुए धमकाया, उससे सब अपनी-अपनी बग़लें झाँकने लगे। इसी का नाम राजनीति है। जो अपने गिरेबान में झाँकने के बजाय अपनी ग़लतियों पर तंज कसते हुए इशारों-इशारों में दूसरों को धमका दे, वही आज का कुशल राजनेता है। उसे लोग अपना मानने में देरी नहीं लगाते। इससे नाराज़ लोग भी राज़ी हो जाते हैं। अपनों के द्वारा लगायी आग में बाल्टी से पानी डालकर वाहवाही लूटने का हुनर यही है।
हालाँकि इस देश में कोई दल, कोई धर्म और कोई जाति ऐसी नहीं, जिसमें नफ़रत बाँटने वाले न हों। अवसर और ताक़त मिलने पर कुछ ही लोग ज़मीन पर रहते हैं। अधिकतर आसमान में उड़ने लगते हैं और उनके दिमाग़ ख़राब हो जाते हैं। ताक़तवरों का क़ानून भी कुछ नहीं बिगाड़ पाता। पुलिस ऐसे लोगों को मसीहा मान लेती है। इसलिए उनका डर भी ख़त्म हो जाता है। ताक़त का नशा ही कुछ ऐसा होता है। इसी नशे में अपने से कमज़ोर विरोधियों को प्रताड़ित करने की परम्परा आज देश की राजनीति का प्रमुख हिस्सा हो चुकी है।
बचपन में सुनते थे कि पुलिस रस्सी का साँप बना देती है। अब लगता है कि पुलिस भले ही निर्बलों को डराने और दबाने के लिए रस्सी का साँप बनाती हो; लेकिन सत्ता में बैठे लोग एक जादूगर की तरह कुछ भी बना और बिगाड़ सकते हैं। लेकिन उनके इस खेल से देश और जनता का नुक़सान होता है। हालाँकि इसमें कोई जादू-आदू नहीं होता। सिर्फ़ ताक़त का खेल होता है, जिस पर सवाल नहीं उठते। क़ानून का डण्डा नहीं उठता। पुलिस रस्सी का साँप नहीं, साँप की रस्सी बना देती है। यह खेल जिस-जिसके ख़िलाफ़ खेला जाता है, वह सच्चा और ईमानदार होकर भी गुनाहगार साबित हो जाता है। यह भी नफ़रत का ही एक रूप है, जिसे सत्ता बचाये रखने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। काश! मोहन भागवत इस बेक़ाबू नफ़रत को भी धमका पाते।