बिखरे हुए जनआंदोलनों को एकजुट करने की कोशिश

फोटोः अंबरीश कुमार
फोटोः अंबरीश कुमार
फोटोः अंबरीश कुमार

सोलह मार्च को दिल्ली के जंतर-मंतर पर चल रहे एक कार्यक्रम के मंच के ठीक नीचे करीब सत्तर साल की एक आदिवासी महिला भरी दोपहरी में गुड़ खाकर पानी पी रही थी और उसके साथ आई दूसरी महिला उससे एक मोटी रोटी खाने का आग्रह कर रही थी. यह बड़ा ही मार्मिक दृश्य था. जमीन बचाने के संघर्ष को ताकत देने के लिए यह महिला अपने जत्थे के साथ झारखंड से यहां पहुंची थी. मौका था ऑल इंडिया पीपुल्स फोरम की जन संसद का, जिसमें करीब बारह राज्यों के किसान मजदूर और आदिवासी पहुंचे थे. उसी समय मंच पर वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैय्यर जन संसद को संबोधित करते हुए बोल रहे थे कि उनकी जमीन को उनकी मर्जी के बगैर कोई नहीं ले सकता. यह उनका लोकतांत्रिक हक है. उन्होंने कहा कि इस हक के लिए जो जरूरी लड़ाई लड़ी जानेवाली है, वे हर स्तर पर उसका साथ देंगे. इस मौके पर भाकपा-माले के राष्ट्रीय महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य ने इस जन संसद और इसके पीछे के राजनीतिक माहौल पर भी रौशनी डाली. उन्होंने इस मंच की जरूरत, इसके साथ खड़ी ताकतों के बारे में बताया और उन हालात पर भी रौशनी डाली जिसके चलते यह एकजुटता हुई. उन्होंने कहा कि मोदी सरकार ने लोगों से अच्छे दिन का वादा किया था, पर अच्छे दिन सिर्फ काॅरपोरेट और अमीरों के लिए आए हैं.

भट्टाचार्य के मुताबिक जब से नई सरकार बनी है, सामाजिक सुरक्षा के मुद्दे पर बेहद संवेदनहीन रवैया देखने को मिल रही है. जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों पर लगातार हमले किए जा रहे हैं. सरकार का भूमि अधिग्रहण अध्यादेश किसानों की जमीन हड़पने वाला अध्यादेश है. दीपांकर भट्टाचार्य के शब्दों में यह दूसरी आजादी की लड़ाई है. जन आंदोलनों की जो व्यापक एकता बन रही है, उसके जरिए यह लड़ाई निश्चित तौर पर जीती जाएगी. समाजवादी समागम का प्रतिनिधित्व करते हुए मध्य प्रदेश के पूर्व विधायक व किसान संघर्ष समिति के अध्यक्ष सुनीलम ने भी भूमि पर किसानों-आदिवासियों के हक और सरकारी जमीन के बंटवारे के लिए पूरे देश में एक बड़े आंदोलन की जरूरत पर जोर दिया. सुनीलम ने इस अवसर पर अपनी बात रखते हुए कहा कि काॅरपोरेट ताकतों की मददगार पार्टियां इस देश की जनता का भला नहीं कर सकतीं, यह साबित हो चुका है. जमीनों पर काॅरपोरेट कब्जे की राजनीति के खिलाफ सरकारी जमीन पर भूमिहीन-मेहनतकश किसानों और खेत मजदूरों के कब्जे का आंदोलन तेज करना ही होगा. दूसरी तरफ झारखंड की प्रसिद्ध समाजिक कार्यकर्ता दयामनी बारला ने कहा कि जल, जंगल, जमीन के साथ-साथ राजसत्ता पर भी जनता का अधिकार है, जिसे हासिल करना अभी बाकी है.

जन संसद में उपस्थित लोगों की संख्या दस हजार से ज्यादा रही. ये लोग देश भर के अलग-अलग हिस्सों से यहां पहुंचे थे. पूरी भीड़ बेहद अनुशासित तरीके से एक लाइन में चलती हुई नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से यहां तक पहुंची थी. नारा लग रहा था ‘जन-जन की यह आवाज, नहीं चलेगा कंपनी राज.’

यह पहल कई मायनों में बहुत अलग है क्योंकि इसमें तीन तरह की धाराओं का समावेश हो रहा है. भाकपा माले और उनसे जुड़े वामपंथी, धुर वामपंथी संगठनों के साथ देश के अलग-अलग हिस्सों में चल रहे जन आंदोलनों के प्रतिनिधि भी इसका हिस्सा बने. समाजवादी तबका भी इससे जुड़ा. दक्षिण भारत में परमाणु ऊर्जा प्लांट के खिलाफ चल रहे आंदोलन से लेकर ओडिशा, झारखंड और असम जैसे कई राज्यों में प्राकृतिक संसाधनों को बचानेवाले आंदोलनकारी समूह भी इसमें शामिल थे. पर इसकी बुनियाद में समाजवादी धारा के कुछ महत्वपूर्ण संगठन थे जो मुंबई में पिछले वर्ष 10-11 अगस्त में हुई समाजवादी समागम के बाद खुद को एक नई भूमिका में स्थापित करने की कोशिश में लगे हुए हैं. इस तबके का प्रतिनिधित्व किसान नेता डाॅ. सुनीलम और समाजवादी चिंतक विजय प्रताप जैसे नेता कर रहे थे. इनके साथ भाकपा माले के महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य, कविता कृष्णन आदि की भी इस पहल में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही. प्रयास यह है कि बहुत से जनहित के मुद्दों को आधार बनाकर समाजवादियों, वामपंथियों, गांधीवादियों से लेकर अंबेडकरवादियों तक को एक साथ एक मंच पर लाया जाय. उनके गठजोड़ से देश में एक नया और व्यापक मंच तैयार किया जाय. इससे जन आंदोलनों की दम तोड़ रही संस्कृति एक बार फिर से बहाल हो सके और एक बड़े आंदोलन की जमीन तैयार हो. इस लिहाज से संसद के सामने सोलह मार्च को संपन्न हुई जन संसद बेहद कामयाब रही. जन संसद के एेलान पर 23 मार्च को शहीद भगत सिंह की शहादत के मौके पर भूमि अध्यादेश के खिलाफ कई प्रदेशों में इस मंच ने अपनी ताकत दिखाते हुए प्रदर्शन भी किया. अखिल भारतीय लोक मंच (आॅल इंडिया पीपुल्स फोरम- एआईपीएफ) के दो दिवसीय स्थापना सम्मेलन के बाद सोमवार को जंतर मंतर पर जन संसद में सौ दिन के संघर्ष का एेलान किया गया था. एआईपीएफ ने भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव के शहादत दिवस 23 मार्च से 30 जून तक पूरे देश में भूमि अधिकार-श्रम अधिकार अभियान चलाने का निर्णय लिया है.

ऑल इंडिया पीपुल्स फोरम का मानना है कि भूमि अधिग्रहण और श्रम कानूनों में बदलाव को देखते हुए मौजूदा सरकार का रवैया सामाजिक सुरक्षा के मुद्दे पर बेहद संवेदनहीन है और वह लोकतांत्रिक अधिकारों पर लगातार हमला कर रही है

दरअसल एआईपीएफ बनाने की ठोस पहल पिछले वर्ष ग्यारह अक्टूबर को दिल्ली में हुई बैठक में हुई थी जिसमें देश के विभिन्न हिस्सों में चल रहे जन आंदोलनों के साथ समाजवादी और वामपंथी धारा के कार्यकर्ता शामिल हुए. दिल्ली के एनडी तिवारी भवन में दिन भर चली बैठक के बाद राष्ट्रीय स्तर पर एक बड़ा राजनीतिक मोर्चा बनाने का फैसला हुआ जिसमें सभी धर्म निरपेक्ष ताकतों को शामिल होने की अपील भी की गई. यह पहल वाम धारा के कई संगठनों के साथ भाकपा माले, समाजवादी समागम और विभिन्न जन आंदोलनों की तरफ से हुई थी. बैठक में इंकलाबी नौजवान सभा, क्रांतिकारी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, पंजाब से मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, जन संस्कृति मंच, एटमी ऊर्जा विरोधी आंदोलन, आइसा, रिहाई मंच, खेत मजदूर सभा, सोशलिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया, लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी, समाजवादी समागम, एआईसीसीटीयू जैसे कई जन संगठनों के साथ देश के महत्वपूर्ण चिंतक और सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता शामिल हुए. बैठक में शामिल कुछ महत्वपूर्ण नामों में  रामजी राय, मजदूर नेता विद्या भूषण, राजा राम, गौतम नवलखा, सुमित चक्रवर्ती, विनायक सेन, एंडी पंचोली, विजय प्रताप आदि रहे.  उसके बाद इस दिशा में कई छोटी-बड़ी बैठकों के बाद 14-15 मार्च को इसका स्थापना सम्मेलन हुआ.

दिल्ली के बदले हुए राजनीतिक माहौल में झंडेवालान स्थित अंबेडकर भवन प्रांगन में शुरू हुए ऑल इंडिया पीपुल्स फोरम (एआईपीएफ) के स्थापना सम्मेलन ने काॅरपोरेट घरानों की लूट के खिलाफ देशभर में प्रतिरोध का साझा और व्यापक मंच बनाने की दिशा में नई उम्मीद भी जगाई. स्थापना सम्मेलन में करीब पंद्रह राज्यों के कार्यकर्ता शामिल हुए जिसमें नौजवानों और महिलाओं की संख्या ज्यादा थी. सम्मेलन में आइसा के नौजवानों की सहभागिता और उनका उत्साह नारों, पोस्टरों और क्रांतिकारी गीतों के रूप में झलक रहा था. दोपहर बाद तक देश के करीब पंद्रह राज्यों से आए प्रतिनिधियों की संख्या पांच सौ से ऊपर जा चुकी थी. इनमें झारखंड, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, बिहार, मध्य प्रदेश, बंगाल, ओिडशा, असम, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और महाराष्ट्र जैसे प्रदेश शामिल थे.