हर बार के चुनाव में अलग-अलग राजनीतिक दलों के साथ गठबंधन करने के बावजूद राष्ट्रीय लोक दल को उत्तरप्रदेश की पश्चिमी बेल्ट से अच्छा खासा वोट मिलता रहा है. इसका सबसे बड़ा कारण इस इलाके का जाट बाहुल्य होना है. अकेले पार्टी के सर्वेसर्वा अजित सिंह की ही बात करें तो बागपत संसदीय क्षेत्र के रास्ते से वे अब तक छह बार संसद पहुंच चुके है. इस बार भी उन्होंने चौधरी परिवार की परंपरागत मानी जाने वाली इसी सीट से दावेदारी ठोकी है. लेकिन भारतीय जनता पार्टी ने उनके खिलाफ एक ऐसे शख्स को मैदान में उतार दिया है जो अनका ही हम बिरादर है. इसके अलावा इस शख्स के बारे में बारे में एक रोचक बात यह भी है कि 1989 में जब अजित सिंह पहली बार केंद्र सरकार में मंत्री बने तो वह निजी सचिव की हैसियत से उनका खास मददगार था. डेढ़ साल पहले मुंबई पुलिस के आयुक्त की नौकरी छोड़ कर राजनीति में आए इस शख्स का नाम है डाक्टर सत्यपाल सिंह.
इस तरह देखा जाए तो एक पुराने सहयोगी ने दो दशक बाद प्रतिद्वंदी के रूप मंे सामने आकर अजित सिंह के लिए निष्कंटक मानी जाने वाली बागपत की जमीन में प्रथम दृष्टया कुछ स्पीड ब्रेकर तो खड़े कर ही दिए हैं. यदि नए परिसीमन के हिसाब से भी देखा जाए तो मोदीनगर विधानसभा क्षेत्र के बागपत में शामिल होने से भी कुछ समीकरण बदल सकते हैं. राजनीतिक समीक्षकों का मानना है कि यह इलाका मुजफ्फरनगर जिले से पूरी तरह लगा हुआ है और ऐसे में वहां हुए दंगे की आंच भी बागपत सीट पर असर डाल सकती है.
इन सब परिस्थितियों का गुणा भाग करके समाजवादी पार्टी ने भी विधायक गुलाम मोहम्मद को टिकट थमाकर मुस्लिम वोट साधने की पूरी जुगत भिड़ा ली है. यानी ऐसे में यदि कुल लगभग 30 प्रतिशत जाट वोटों का थोड़ा बहुत भी बंटवारा और 18 फीसदी के करीब मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण होता है तो छोटे चौधरी के लिए 1998 जैसा संकट पैदा हो सकता है. 1998 में अजित सिंह बागपत से चुनाव हार गए थे. उस वक्त भाजपा प्रत्याशी सोमपाल शास्त्री ने उनका विजय रथ रोका था. इसके अलावा मुस्लिम वोटों के ध्रुवीकरण ने भी अजित सिंह का तब बड़ा नुकसान पहुंचाया था. इस बार भी इस तरह की परिस्थितियों के बनने को लेकर तरह तरह की चर्चाएं हैं. भाजपा प्रत्याशी सत्यपाल सिंह ने मोदी लहर का सहारा लेने के साथ ही बागपत के पिछड़ेपन को मुद्दा बना अजित सिंह को घेरने का अभियान लगातार छेड़ा हुआ है. चुनाव प्रचार में कोई कसर नहीं छोड़ने के मूड में दिख रहे सत्यपाल सिंह ने अपने संसदीय क्षेत्र में नरेंद्र मोदी की रैली करवाने के साथ ही फिल्मी पर्दे पर हैंडपंप उखाड़ने वाले जाट बिरादरी के अभिनेता सन्नी देओल का रोड शो तक करवा दिया है. इसके अलावा चूंकि लोकदल ने इस बार कांग्रेस के साथ गठबंधन किया है लिहाजा केंद्र सरकार के खिलाफ दिख रहा देशव्यापी गुस्सा भी अजित सिंह के लिए मुश्किलें पैदा कर सकता है.
हालांकि इस सबके बावजूद कई जानकार हैं जो अब भी बागपत में अजित सिंह की संभावना मजबूत मानते हैं. उनका मानना है कि भले ही मुजफ्फरनगर दंगों को लेकर जाट बिरादरी अजित सिंह के रवैये से पूरी तरह संतुष्ट नहीं है लेकिन केंद्रीय सेवाओं में जाटों को आरक्षण दिला कर उन्होंने अपने बिखरे वोट बैंक को समेटने में काफी हद तक सफलता हासिल कर ली है. गौरतलब है कि मुजफ्फरनगर दंगों के बाद अजित सिंह ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश का रुख नहीं किया था जिससे जाटों में उनके प्रति नाराजगी बढ़ी थी. बागपत में 10 अप्रैल को वोट डाले जाने हैं.
1998 के चुनाव को छोड़ दें तो जाट लैंड का केंद्र मानी जाने वाली बागपत सीट संसदीय सीट पर 1977 से लेकर 2009 तक चौधरी परिवार का एकछत्र राज रहा है. बावजूद इसके वर्तमान हालात को देखते हुए इतना तो कहा ही जा सकता है कि एक आईपीएस अधिकारी की आमद नें 2009 में साठ हजार से ज्यादा मतों से से जीतने वाले आईआईटी खड़गपुर के पूर्व छात्र अजित सिंह के सामने रोमांचक बिसात तैयार कर दी है.