बांस पर फांस

केंद्रीय पंचायत एवं ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश के इसी अगस्त में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ रमन सिंह को एक पत्र लिखने के बाद राज्य की एक प्रमुख वनोपज बांस के सामुदायिक अधिकार का मुद्दा एक बार फिर गरमा गया है. रमेश ने अपने पत्र में राज्य सरकार से कहा है कि हर सूरत में बांस खरीदने और बेचने का अधिकार ग्रामवासियों को मिलना ही चाहिए. 

दरअसल अनुसूचित जनजाति तथा अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों को मान्यता) अधिनियम-2006 में यह माना गया है कि बांस एक लघु वन उत्पाद है और इसका सामुदायिक अधिकार ग्राम सभा को दिया जाना जरूरी है. लेकिन छत्तीसगढ़ के वन महकमे ने केंद्र के इस कानून को ठेंगे पर ले रखा है. प्रदेश में वनोपज (व्यापार विनियमन) अधिनियम-1969 की धारा 22 ( क) के तहत ही बांस का कारोबार जारी है. यानी ग्रामीण और आदिवासी अपनी मर्जी से इसका कारोबार नहीं कर सकते. इसका नतीजा है कि बांस से दशकों तक रोजी-रोटी कमाने वाला राज्य का एक बड़ा तबका भारी दिक्कतों का सामना कर रहा है.  छत्तीसगढ़ में वनोपज पर जीविका चलाने वाले 12 हजार 123 गांव हैं. लेकिन वन महकमे ने महज 775 गांवों को सामुदायिक अधिकार दिए जाने की श्रेणी में शामिल कर रखा है. राज्य में  सरगुजा, जशपुर, कोरबा, धमतरी, कबीरधाम और महासमुंद ऐसे जिले हैं जहां के गांवों में रहने वाले ग्रामीणों को बांस के परिवहन के लिए छूट मिली हुई है, लेकिन हैरतअंगेज तथ्य यह है कि उक्त जिलों में बांस का बहुत कम उत्पादन होता है. 

छत्तीसगढ़ में वन के कुल क्षेत्रफल 59,772 वर्ग किलोमीटर में से 6,556 वर्ग किलोमीटर में बांस का उत्पादन होता है.

बस्तर क्षेत्र बांस के झुरमुटों की वजह से ही बस्तर कहलाता है. धुर नक्सल प्रभावित इलाकों में बांस के बेशुमार जंगलों से कन्नी काट लेने के बाद भी वन विभाग हर साल लगभग 60 हजार टन बांस की कटाई करता है. बांस उत्पादन का कामकाज देख रहे मुख्य वन संरक्षक आरके टमटा जानकारी देते हैं, ‘पिछले कुछ सालों के दौरान नक्सली गतिविधियों और सही ढंग से रोपण न होने की वजह से बांस का उत्पादन घटा है, फिर भी हम हर साल लगभग 25 हजार टन बांस पेपरमिलों को विक्रय करते हैं. इसके बाद जो कुछ बचता है वह ग्रामीणों को सस्ती दर पर दिया जाता है.’ छत्तीसगढ़ में वन विभाग ने दैनिक जीवन में उपयोग में आने वाली वस्तुओं का निर्माण करने वाले बंसोड़ों (बांस का काम करने वाला एक विशेष समुदाय) को 75 लाख एवं ग्रामीण किसानों को 45 लाख बांस मुहैया कराने का लक्ष्य निर्धारित किया है. इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए विभाग को हर साल  लगभग 120 लाख नग बांस की जरूरत होती ही है, लेकिन महज 60 हजार टन उत्पादन के चलते बांस न तो किसानों को मिल पा रहा है और न ही कारीगरों को. 

कानूनों के दांवपेंच में फंसे बस्तर के नारायणपुर, बीजापुर, भानुप्रतापपुर और सुकमा इलाकों के लोगों के साथ विडंबना यह है कि उनके यहां बांस का बढ़िया उत्पादन होता है लेकिन खुद उन्हें अपने उपयोग के लिए बांस नहीं मिल पा रहा है. ग्रामीणों का आरोप है कि वे दूर-दराज गांवों से बांस लेने के लिए बांस डिपो जाते हैं लेकिन डिपो प्रभारी यह कहकर लौटा देते हैं कि डिपो में बांस है ही नहीं. बलरामपुर जिले के वाड्रफनगर विकास खंड के कुछ गांवों में निवास करने वाले बंसोड़ परिवारों को तो बांस लेने के लिए आंदोलन का रास्ता भी अख्तियार करना पड़ा था. जल-जंगल और जमीन के मुद्दे पर काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता गौतम बंदोपाध्याय राजनांदगांव जिले से सटे महाराष्ट्र के गढ़चिरौली इलाके का हवाला देकर कहते हैं, ‘गढ़चिरौली इलाके के अधिकांश गांवों की तस्वीर सिर्फ इसलिए बदली क्योंकि वहां के लोगों को अन्य वनोपज के साथ-साथ बांस पर भी सामुदायिक अधिकार मिला. इससे लोगों को रोजगार मिला और उनकी आमदनी बढ़ गई. इसके विपरीत छत्तीसगढ़ के ग्रामीणों को यह अधिकार इसलिए नहीं मिल पा रहा है क्योंकि वन विभाग खुद एक बिचौलिये की भूमिका का निर्वाह कर रहा है.’ 

मुख्य वन संरक्षक आरके टमटा मानते हैं कि अभी गांवों को सामुदायिक अधिकार देने के संबंध में अड़चनें दूर नहीं हुई हैं. वे कहते हैं, ‘वन अधिकारों को मान्यता दिए जाने संबंधी अधिनियम में बांस को लघु वन उत्पाद तो मान लिया गया जबकि वन कानून में बांस अब भी लकड़ी की श्रेणी में ही शामिल है, इसलिए जब तक वन कानून में संशोधन नहीं हो जाता तब तक गांवों को सामुदायिक अधिकार देने की बात बेमानी है.’ हालांकि छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के संयोजक आलोक शुक्ला टमटा की राय पर अपनी प्रतिक्रिया कुछ यूं व्यक्त करते हैं, ‘कानून के मकड़जाल में यह मामला सिर्फ इसलिए उलझाया गया है ताकि बांस की आड़ में जमीन के भीतर से मिलने वाले बहुमूल्य खनिजों के दोहन के लिए रास्ता साफ कर सकें.’