‘सरबजीत नहीं, दोषी तो मंजीत सिंह है. उसके खिलाफ सबूत भी हैं’

पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट में सरबजीत सिंह का केस लड़ रहे अवैस शेख न सिर्फ सरबजीत बल्कि पाकिस्तानी जेलों में कैद उन सैकड़ों भारतीय नागरिकों के लिए उम्मीद का दूसरा नाम हैं जो सालों से वहां जेलों में सड़ रहे हैं. इन लोगों का केस लड़ने के लिए वहां कोई वकील सिर्फ इसलिए तैयार नहीं होता क्योंकि वे भारतीय हैं और ऐसे में उनपर यह आरोप लग जाएगा कि वे ‘दुश्मन’ देश के एजेंट हैं. इस तरह ज्यादातर भारतीय कैदियों का केस एक सशक्त बचाव पक्ष के वकील के अभाव में उसी जगह पहुंचता जहां आज सरबजीत का केस पहुंचा है. यानी फांसी की सजा तक. भारत- पाकिस्तान शांति पहल संगठन के अध्यक्ष अवैस पिछले दिनों एक कार्यक्रम के सिलसिले में भारत आए थे. इस मौके पर बृजेश सिंह की उनसे सरबजीत और पाकिस्तान में भारतीय कैदियों समेत अन्य कई विषयों पर विस्तृत बातचीत हुई

सरबजीत के केस का अब क्या भविष्य है? 

सरबजीत का केस राजनीति का शिकार हो गया है. पहले उसकी रिहाई की घोषणा की गई फिर ये फैसला बदल दिया गया. सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि एक व्यक्ति को ऐसे जुर्म की सजा दी जा रही है जो उसने किया ही नहीं. जिस सरबजीत को कोर्ट ने फांसी की सजा सुनाई है उसका नाम तक एफआईआर में नहीं है. एफआईआर में मंजीत सिंह का नाम है. यह मिस्टेकेन आइडेंटिटी (गलत पहचान) का केस है. जिस मंजीत सिंह ने सब कुछ किया है, उसे इन्होंने भगा दिया  है. और कहा गया कि यही मंजीत सिंह है. इसी ने धमाके किए हैं. सरबजीत का दोष सिर्फ इतना ही है कि वह शराब के नशे में बॉर्डर क्रॉस कर गया. और उसे हिरासत में ले लिया गया. 

लेकिन गिरफ्तार करने के बाद पाकिस्तान में बम धमाका करने का केस सरबजीत पर कैसे डाल दिया गया?

सरबजीत सिंह की गिरफ्तारी से एक दिन पहले पाकिस्तान में बम धमाके हुए थे. जांच एजेंसियों को कोई न कोई ऐसा आदमी चाहिए था जिस पर वे बम धमाका करने का दोष डाल सकें. जब सरबजीत गिरफ्तार हुआ तब इसी पर उन्होंने केस डाल दिया. इस केस में कोई ‘डायरेक्ट एविडेंस’ नहीं है. केवल एक ही गवाह था जो बाद में पलट गया. कोई ‘सब्सटैंशियल प्रूफ’ भी नहीं है. ना कोई मैटीरियल प्रोड्यूस किया गया. ज्यादातर पुलिस के ही गवाह हैं. 

मंजीत सिंह के बारे में आपके पास क्या जानकारी है?

भारत के पंजाब में जब खालिस्तान आंदोलन चल रहा था उस समय पाकिस्तान अपने यहां कट्टरपंथी सिखों का समर्थन कर रहा था. मंजीत सिंह उसी वक्त कई बार पाकिस्तान आया. वह पत्रकार बनकर वहां जाता था. मेरे पास इस बात के कई सबूत हैं. उसके अलग-अलग नामों वाले पासपोर्ट की कॉपियां मेरे पास हैं. उसने किसी इस्लामी मदरसे से एक सर्टिफिकेट बनवाया था कि वह मुसलमान हो गया है. आखिर में उसने पाकिस्तान आकर यहीं के एक सरकारी अधिकारी की बेटी से शादी की. उस शादी में उस वक्त के मुख्यमंत्री गुलाम हैदर वानी भी मौजूद थे. मेरे पास मंजीत की उनके साथ वाली फोटो है .

मैंने इस मसले पर लाहौर में प्रेस कॉन्फ्रेंस की और उससे जुड़े तमाम सबूत सामने रखे. लेकिन हमारे यहां प्रेस में ये छपता नहीं है. वहां पर मंजीत सिंह के बारे में बस इतना छपता है कि यह असल बंदा है जिसने धमाके किए थे. लेकिन वे कोई डॉक्यूमेंट नहीं दिखाते. इन सारे प्रमाणों के आधार पर सरबजीत को ‘बेनिफिट ऑफ डाउट’ तो दिया ही जा सकता है. 

जब यह पूरा केस ही गलत पहचान का है तो  पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट ने सरबजीत की फांसी की सजा को बरकरार क्यों रखा?  

इस मसले में हर स्तर पर कानून के साथ खिलवाड़ किया गया. पहली बार सरबजीत को वकील तब मिला जब उसका केस हाई कोर्ट में पहुंचा. जबकि हाई कोर्ट आने से पहले ही उसे फांसी की सजा सुनाई जा चुकी थी. हाई कोर्ट ने फांसी की सजा को बरकरार रखा. फिर केस सुप्रीम कोर्ट में चला गया. सुप्रीम कोर्ट ने भी लाहौर हाई कोर्ट के निर्णय को कायम रखा. जहां तक एफआईआर की बात है तो सुप्रीम कोर्ट का कहना था कि सरबजीत सिंह ने चूंकि अपना जुर्म कबूल कर लिया है इसीलिए इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसका नाम एफआईआर में है या नहीं.

क्या सरबजीत ने उस पर लगे आरोपों को स्वीकार किया था ?

बिल्कुल नहीं. सरबजीत ने जो ‘कनफेशनल स्टेटमेंट अंडर 342 सीआरपीसी’ दिया है, उसके मुताबिक  वह किसी मजिस्ट्रेट के सामने पेश नहीं हुआ. ना ही उसने कोई स्टेटमेंट दिया. ना ही पाकिस्तान में कोई बम धमाका किया है और ना ही वह रॉ का एजेंट है. 

आपसे पहले सरबजीत का केस कोई और वकील लड़ रहे थे. वे इस केस से अलग क्यों हो गए?

मुझसे पहले राना अब्दुल हमीद यह केस देख रहे थे. जब सुप्रीम कोर्ट में सरबजीत का मामला आया और कोर्ट ने यहां भी सरबजीत की फांसी की सजा बरकरार रखी तो उन्होंने एक रिव्यू पेटिशन फाइल की. कोर्ट ने उस पर नोटिस इश्यू किया. लेकिन हमीद कोर्ट में पेश नहीं हुए. उसके कुछ ही दिन बाद कोर्ट ने दूसरा नोटिस इश्यू किया. इस बार कोर्ट ने कहा कि अगर इस बार भी वकील कोर्ट में नहीं आया तो वह एक्स पार्टी (अनुपस्थित पक्ष को नजरअंदाज करते हुए) फैसला कर देगा. उस वक्त मैं इस मामले को काफी करीब से देख रहा था. मैं राना हमीद के पास गया और उनसे कहा कि इस बार कोर्ट में जरूर हाजिर हो जाना. उन्होंने मुझे इसका भरोसा भी दिलाया. लेकिन  हफ्तेभर बाद एक दिन सुबह अखबार पढ़ते हुए मुझे पता चला कि सरबजीत का वकील अदालत में हाजिर नहीं हुआ और, कोर्ट ने एकतरफा फैसला सुनाते हुए उसकी फांसी को ‘अपहेल्ड’ कर दिया. लेकिन यहां एक बड़ा सवाल कोर्ट को लेकर भी उठता है कि अगर दो नोटिसों पर वकील कोर्ट नहीं आया तो आप और कुछ नोटिस इश्यू करते. अगर फिर भी वकील नहीं आता तो आप सरकार से दूसरा वकील नियुक्त करने को कहते. फांसी के केस में एक्स पार्टी फैसला होता ही नहीं है. ये सबसे बड़ी नाइंसाफी है.

आखिर क्या वजह रही कि राना अब्दुल हमीद कोर्ट में पेश नहीं हुए ? 

दो ही चीजें हो सकती हैं. या तो उन्हें पैसा दिया गया था या उनके ऊपर किसी तरह का दबाव था. जो भी लेकिन उस वकील ने अपने पेश से गद्दारी की. उन्होंने पांच लाख फीस ली थी. यह पैसा कनाडा के सिखों ने सरबजीत का केस लड़ने के लिए उन्हें दिया था. आपके पास सरबजीत का केस कैसे आया. 2008 में मुंबई बम धमाके के बाद मैं अमृतसर आया हुआ था. उस समय दोनों देशों में तनाव चरम पर था. मैं अकेला पाकिस्तानी था जो यहां आया था. यहां अमृतसर में मैंने लोगों के साथ ‘पीस मार्च’ किया. उसी कार्यक्रम में सरबजीत की बहन और उसकी बेटी से पहली बार मेरी मुलाकात हुई. वे दोनों बहुत परेशान थीं. उन्होंने मुझसे सहायता करने के लिए कहा. मैं तो पहले से ही सरबजीत के केस को करीब से देख रहा था इसलिए जब उनकी बातें सुनीं तो मैं काफी तकलीफ से भर गया. फिर मैंने तय किया कि मैं सरबजीत का केस लडूंगा. 

आप सरबजीत के साथ और कई भारतीय कैदियों का केस लड़ रहे हैं. एक पाकिस्तानी, पाकिस्तान में रहते हुए जब भारतीय कैदियों का केस लड़ता है तो उसे किस तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है?   

(हंसते हुए) इसकी तो बात ही मत कीजिए. आप खुद ही कल्पना कर सकते हैं कि मुझे क्या-क्या झेलना पड़ता होगा. लोग मुझे भारतीय एजेंट कहते हैं. जब पहली बार मैं सरबजीत से जेल में मुलाकात करके जैसे ही बाहर आया, गेट के बाहर मीडिया का हुजूम मेरा इंतजार कर रहा था. वे कह रहे थे कि भारत से पाकिस्तानियों की लाशें आ रही हैं और आप सरबजीत का केस लड़ रहे हैं. इन लोगों से मेरा कहना था कि मेरे लिए इस बात का कोई मतलब नहीं है कि सरबजीत भारत का है या पाकिस्तान का. यह मानवाधिकार का मामला है. मुझे उसे उठाने से कोई नहीं रोक सकता. इसके थोड़े समय बाद कुछ लोग मेरे ऑफिस आ गए. उन्होंने मुझसे कहा कि मैं सरबजीत का केस छोड़ दूं या वे मेरा ऑफिस जला देंगे. जिस किराये के घर में मेरा ऑफिस था, उसके मालिक ने मुझसे तुरंत घर खाली करने के लिए कह दिया. अभी हाल में कुछ महीने पहले जैसे ही सरबजीत की रिहाई की खबर चारों तरफ आई, मेरे खिलाफ पाकिस्तान में प्रदर्शन होने लगा. एक तरफ जहां लोगों की मुबारकबाद मुझे मिल रही थी वहीं दूसरी तरफ मेरे अपने देश में लोग मुझे गालियां दे रहे थे. 

मेरे साथी वकील मुझसे बहुत नाराज रहते हैं. वे मुझसे कहते हैं कि उसे (सरबजीत) फांसी लग रही है तो लगने दो तुम्हें क्यों इतनी चिंता है. कुछ लोग मेरे काम की तारीफ भी करते हैं  लेकिन सबके सामने नहीं. यह सब कुछ होता रहता है लेकिन मुझे तो बस ऐसा लगता है कि मानो भारतीय कैदियों का केस लड़ने के लिए मुझे खुदा की तरफ से ‘अपॉइंट’ किया गया है. भारतीय कैदियों का केस लड़ने के कारण मुझे अपने देश में केस मिलना बंद हो गया है. 

आपके परिवारवाले आपके काम को किस तरह से देखते हैं?

घर में मेरी पत्नी, दो बेटे और एक बेटी हैं. वे सभी मेरे काम के सख्त खिलाफ हैं. मेरे बच्चे मुझे अपने फोन से फोन नहीं करने देते. मैं इंडिया में हूं तो वे वहां से इधर फोन नहीं करते. कहते हैं कि मेरा फोन तो सीआईडी वाले हर वक्त चेक करते रहते हैं. 

क्या कभी पाकिस्तान सरकार ने आपके ऊपर किसी तरह का दबाव बनाने की कोशिश की है?

सरकारों का सामने वाले तक अपनी बात पहुंचाने का बहुत ही अलग तरीका होता है. आपको अलग-अलग सोर्स से मैसेज मिलते रहते हैं. एक बार मेरे घर पर एक जीप आई. उसमें से दो लोग उतरे. उनके साथ उनके गनमैन भी थे. गाड़ी पर बत्ती लगी हुई थी. मैं दरवाजा खोलकर बाहर निकला. उन्होंने कहा कि हम आपको एक मैसेज देने आए हैं. आप इसे गौर से सुन लें नहीं तो आपका बड़ा नुकसान होगा. उनका कहना था कि मुझे इंडियन हाई कमीशन में आना-जाना बंद कर देना चाहिए. मैंने जवाब दिया कि मैं कुछ भारतीयों का केस लड़ रहा हूं ऐसे में उनसे बातचीत तो करनी होगी. इस पर वे भड़क गए और कहने लगे कि वहां आना-जाना बंद नहीं कर सकता तो कम कर दूं और यदि ऐसा नहीं किया तो मुझे इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है. 

‘मैंने पाकिस्तान में महेश भट्ट (फिल्मकार) और कुलदीप नैयर (पत्रकार) से कहा कि वे अपने भाषण में सरबजीत का जिक्र करें लेकिन उन्होंने कुछ नहीं कहा’

हाल ही में पाकिस्तान से बड़ी संख्या में हिंदुओं पर वहां हो रहे अत्याचारों की खबरें सामने आईं. बड़ी तादाद में पाकिस्तानी हिंदू नागरिक शरण की तलाश में भारत आ रहे हैं. क्या पाकिस्तान की सिविल सोसाइटी ने अल्पसंख्यक हिंदुओं के साथ हो रहे इस बर्ताव को लेकर अपनी आवाज उठाई है?

सिविल सोसाइटी अमन तो चाहती है लेकिन वे लोग कट्टरपंथियों से डरते हैं. हालांकि ये मसला इतना आसान नहीं है. जो बड़े हिंदू व्यापारी हैं, उनसे गुंडा टैक्स लिया जाता है. कई बार ऐसे केस भी सामने आए हैं जहां किसी हिंदू लड़की ने अगर किसी मुसलमान लड़के से प्रेम कर लिया तो उसके घरवाले कहते हैं, पहले मुसलमान बनो. हिंदुओं के साथ जो भी पाकिस्तान में हो रहा है, मुझे उम्मीद है सरकार इस दिशा में कड़े कदम उठाएगी. सिविल सोसाइटी को मुखर और आक्रामक होने की जरूरत है. 

भारत की सिविल सोसाइटी के बारे में आपका क्या आकलन है? 

इस सवाल पर मुझे तकरीबन छह महीने पहले की एक घटना याद आ गई. तब कुलदीप नैयर और फिल्मकार महेश भट्ट पाकिस्तान आए थे. उन्हें एक सेमिनार में बोलना था. मैंने इन लोगों को भारत और पाकिस्तान के बीच अच्छे संबंधों और दोस्ती की पैरोकारी करते हुए पहले कई बार सुना था. इस बार जब वे यहां आए मैंने उनसे कहा कि आप जब सेमिनार में बोलें तो सरबजीत और पाकिस्तानी जेलों में बंद दूसरे कैदियों का जिक्र जरूर करें. लेकिन जब दोनों ने अपना भाषण दिया तो उसमें इन्होंने एक लफ्ज़ भी इस बारे में नहीं कहा. कार्यक्रम खत्म होने पर जब मैंने उनसे इस बारे में पूछा तो उन्होंने कुछ जवाब नहीं दिया.  मैं पाकिस्तानी होकर पाकिस्तान में रहते हुए भारतीय कैदियों के लिए लड़ रहा हूं, लेकिन ये लोग भारतीय होकर एक शब्द नहीं बोल सके. आप बताइए क्या हमारे यहां लोग नहीं सोचते होंगे कि सरबजीत या दूसरे भारतीयों के लिए मुझे ही बेचैनी है जबकि भारत से आए लोग इनके बारे में एक शब्द भी नहीं बोलते. नैयर और भट्ट साहब ने यही सोचा होगा कि ऐसा न हो कि कहीं सरबजीत का नाम लेने से पाकिस्तान की हुकूमत नाराज हो जाए और फिर उन्हें पाकिस्तान आने का वीजा ही ना मिले. लेकिन इन्हें समझना चाहिए कि भारत-पाक दोस्ती की बातें करना, भाषण देना और मौके पर स्टैंड लेने में बहुत अंतर है. खैर इसके अलावा दोनों मुल्कों की सिविल सोसाइटी दोनों देशों के कैदियों को लेकर खामोश है. इतना तो वे कर ही सकते हैं कि जिन कैदियों को रिहा करने का ऑर्डर कोर्ट कर चुकी है उन्हें तो कम से कम रिहा कराने के लिए मैदान में आएं. जब तक आप दबाव नहीं बनाएंगे, हुकूमतें इन लोगों को नहीं छोड़ेंगी.

क्या पाकिस्तान की जेलों में युद्धबंदी भारतीय हैं?

दोनों देश एक-दूसरे के बारे में कहते हैं कि वहां उनके सैनिकों को बंदी बनाकर रखा गया है. भारत कहता है कि पाकिस्तान में उसके 54 युद्धबंदी हैं. वहीं पाकिस्तान सरकार कहती है कि भारत में उसके 25 युद्धबंदी कैद हैं. दोनों के पास अपने-अपने तर्क हैं लेकिन दिक्कत यह है कि दोनों देश अपने यहां युद्धबंदी होने की बात नकारते हैं.