अतीत को देखते हुए उत्तराखंड में इस बार भले ही बारी स्वाभाविक रूप से कांग्रेस की लग रही हो पर उसी की रणनीतिक चूकें इस बार बागियों को भी एक ऐसी ताकत के रूप में खड़ा कर सकती हैं जिसकी उपेक्षा संभव न हो.
मनोज रावत व महिपाल कुंवर की रिपोर्ट
उत्तराखंड में अब तक हुए हर चुनाव का नतीजा बदलाव के रूप में दिखता रहा है. इस चलन की नजर से देखा जाए तो मतदाताओं का झुकाव इस बार स्वाभाविक रूप से कांग्रेस की तरफ दिख रहा है. लेकिन वहीं यह भी सच है कि टिकट बांटने से लेकर चुनाव के दिन तक हुई रणनीतिक गलतियों के कारण पार्टी का सामान्य बहुमत के आंकड़े यानी 36 विधायकों की संख्या तक पहुंचना मुश्किल लग रहा है. ऐसे में सरकार बनाने में इस समय निर्दलीय विधायकों या छोटे दलों की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है. जानकार संभावना जताते हैं कि इस बार उत्तराखंड रक्षा मोर्चा, उत्तराखंड क्रांति दल-पी और निर्दलीयों में से आठ से अधिक विधायक जीत कर आ सकते हैं. मतप्रतिशत के हिसाब से देखा जाए तो इस श्रेणी के विधायक कांग्रेस, भाजपा और बसपा के बाद राज्य में पहली बार एक बड़ी राजनीतिक ताकत के रूप में उभरेंगे. चुनाव जीतने की संभावना वाले इन निर्दलीयों में ज्यादातर कांग्रेस और भाजपा का टिकट पाने में नाकामयाब जमीनी नेता हैं या फिर इन दलों के असंतुष्ट.
लैंसडाउन सीट से चुनाव लड़ रहे रक्षा मोर्चा के ले जनरल टीपीएस रावत को छोटे राजनैतिक दलों और निर्दलीय प्रत्याशियों में सबसे अच्छा समर्थन मिल रहा है. टीपीएस 2002 और 2007 में कांग्रेस के टिकट पर धूमाकोट से विधायक बने थे. लेकिन उन्होंने मुख्यमंत्री खंडूड़ी के लिए न केवल दो बार विधायक बनाने वाली पार्टी कांग्रेस को बल्कि विधायक पद को भी त्याग दिया था. भाजपा से उनकी गलबहियां अधिक दिनों तक नहीं चलीं. चार साल पार्टी में रहने के बाद वे भाजपा सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाते हुए बाहर निकल गए.
टीपीएस के मुकाबले में भाजपा उम्मीदवार लैंसडाउन के पूर्व विधायक भारत सिंह रावत के पुत्र दिलीप रावत हैं. उधर, कांग्रेस ने लैंसडाउन से युवक कांग्रेस की प्रदेश उपाध्यक्ष ज्योति रौतेला को उतारा है. ज्योति छात्र या पंचायत राजनीति से निकली जमीनी नेता नहीं हैं. जानकार बताते हैं कि नेता प्रतिपक्ष हरक सिंह रावत से नजदीकी और युवक कांग्रेस के नये चुनावी फॉर्मूले के कारण वे भले ही युवक कांग्रेस संगठन के पद तक पहुंचकर टिकट पाने में कामयाब हो गई हों लेकिन जनता में न तो उनकी पकड़ है और न ही जनता तक उनकी सार्थक पहुंच बन पाई है. धूमाकोट विधानसभा स्थित दिलकोट गांव के विनोद चतुर्वेदी बताते हैं, ‘टीपीएस का साधारण व्यवहार और गांव के लोगों से घुल-मिल जाना उन्हें जननेता बनाता है यही कारण है कि दोनों बड़े दलों के दिग्गज नेता उनके मुकाबले में उतरने से डरकर पलायन कर गए हैं.’ मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूड़ी जिस धूमाकोट सीट से विधायक हैं उसके सारे क्षेत्र परिसीमन के बाद लैंसडाउन में आ गए हैं. उधर प्रतिपक्ष के नेता हरक सिंह 2002 से अब तक लैंसडाउन सीट से ही विधायक रहे हैं. लेकिन ये दोनों दिग्गज टीपीएस के मुकाबले में उतरने का साहस नहीं कर पाए और अब दूसरी सीटों से चुनाव लड़ रहे हैं. नैनीडांडा विकास खंड के बैराठ गांव में लोगों को संबोधित करते हुए टीपीएस कहते हैं,‘ खंडूड़ी ने यहां विकास के नाम पर केवल विधायक निधि ही बांटी जो काम एक साधारण विधायक भी कर सकता था और इन पांच सालों में छह बार भी धूमाकोट नहीं आए हैं.’
निर्दलीयों में ज्यादातर कांग्रेस और भाजपा का टिकट पाने में नाकामयाब जमीनी नेता हैं या फिर इन दलों के असंतुष्ट
टीपीएस रावत के अलावा पौड़ी की चौबट्टाखाल सीट से चुनाव लड़ रहे निर्दलीय यशपाल बेनाम भी अपनी अच्छी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं. राज्य आंदोलनकारी और पौड़ी नगरपालिका के अध्यक्ष रहे बेनाम अभी पौड़ी विधानसभा से विधायक हैं. परिसीमन में पौड़ी सीट आरक्षित होने के कारण वे चौबट्टाखाल से चुनाव लड़ रहे है. यहां से कांग्रेस के प्रत्याशी, युवा कांग्रेसी राजपाल बिष्ट हैं और भाजपा के तीरथ सिंह रावत. दिल्ली में युवा कांग्रेस संगठन की राजनीति करने वाले राजपाल बिष्ट के लिए पहाड़ की यह विधानसभा नयी है. चुनावों में यहां के कांग्रेसी खास सक्रियता नहीं दिखा रहे हैं. अनमने ढंग से काम कर रहे कांग्रेसियों के बल पर यदि राजपाल चुनाव जीतते हैं तो यह एक चमत्कार ही होगा. यही हाल भाजपा का भी है. भाजपा ने इस सीट पर खंडूड़ी के खास तीरथ सिंह रावत को टिकट दिया है. उनका भी चौबट्टाखाल से कम ही नाता रहा है. राष्ट्रीय पार्टियों के प्रत्याशियों से उलट बेनाम दो साल से चौबट्टखाल में पसीना बहा रहे हैं. उनकी यह मेहनत उन्हें एक बार फिर निर्दलीय के रूप में विधानसभा तक पंहुचा सकती है. बेनाम कहते हैं, ‘मुझे कोई चिंता ही नहीं है कि मेरी टक्कर में कौन है?’
पौड़ी के अलावा गढ़वाल लोकसभा के चमोली जिले की बदरीनाथ विधानसभा से रक्षा मोर्चे के टिकट पर चुनाव लड़ रहे भाजपा के पूर्व विधायक और पूर्व मंत्री केदार सिंह फोनिया भी अच्छी स्थिति में हैं. मुख्यमंत्री खंडूड़ी के बाल सखा रहे फोनिया अपनी ईमानदार और अच्छी छवि के कारण मतदाताओं की पसंद बन रहे हैं. इस सीट पर निर्दलीय के रूप में चुनाव लड़ रहे दशोली के पूर्व प्रमुख और कांग्रेस के बागी नंदन सिंह बिष्ट भी अपनी अच्छी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं. इन दोनों उम्मीदवारों के कारण बदरीनाथ सीट पर हाल तक भाजपा सरकार में मंत्री रहे और अब कांग्रेस के उम्मीदवार राजेंद्र भंडारी, भाजपा के प्रेम बल्लभ भट्ट, फोनिया व बिष्ट के बीच चतुष्कोणीय मुकाबला हो रहा है. ऐसे में जनता के बीच अच्छी पकड़, टिकट न मिलने की सहानुभूति और ईमानदारी के मुद्दे पर फोनिया या नंदन विष्ट कुछ भी अप्रत्याशित नतीजा ला सकते हैं.
चमोली की ही कर्णप्रयाग विधानसभा से कांग्रेस के बागी बन कर चुनाव लड़ रहे गैरसैंण के पूर्व प्रमुख सुरेंद्र सिंह नेगी भी दमदार निर्दलीयों में से एक हैं. इस सीट पर कांग्रेस ने पिछला विधानसभा चुनाव बदरीनाथ विधानसभा से चुनाव हारे अनुसूया प्रसाद मैखुरी पर दांव खेला है. भाजपा ने भी दो बार के विधायक रहे अनिल नौटियाल का टिकट काट कर अधिवक्ता हरीश पुजारी को टिकट दिया है. अनिल नौटियाल भी निर्दलीय चुनाव लड़ रहे हैं और उनका जनाधार भी अच्छा माना जाता है. जानकार बताते हैं कि प्रबल प्रत्याशी होने के बावजूद नेगी को 2002 और 2007 में कांग्रेस का टिकट नहीं दिया गया. इसलिए उन्हें मिल रही सहानुभूति और उनके पक्ष में दिख रहे जातीय समीकरण उन्हें जीत के रूप में लाभ पहुंचा सकते हैं.
एक साथ कई कद्दावर बागियों के मैदान में उतरने से बहुत सी सीटों पर मुकाबला बहुकोणीय हो गया है
ऋषिकेश विधानसभा से चुनाव लड़ रहे निर्दलीय और वर्तमान नगर-पालिका अध्यक्ष दीप शर्मा भी अच्छी स्थिति में दिख रहे हैं. वे पहले भी एक बार नगरपालिका अध्यक्ष रहे हैं. इन्हें जीत के लिए अपने परंपरागत मतदाताओं के अलावा भाजपा के असंतुष्ट गुट का भी भरोसा है. इस सीट पर हो रहे त्रिकोणीय मुकाबले में दीप शर्मा की टक्कर में कांग्रेस के राजपाल खरोला और भाजपा के वर्तमान विधायक प्रेमचंद्र अग्रवाल हैं. यमनोत्री सीट पर त्रिकोणीय मुकाबले में उक्रांद-पी के प्रत्याशी और पूर्व विधायक प्रीतम सिंह पंवार के प्रति मतदाताओं का अच्छा रुझान दिख रहा है. टिहरी जिले की छह सीटों में से टिहरी, धनोल्टी, देवप्रयाग और प्रतापनगर विधानसभाओं में निर्दलीय भाजपा और कांग्रेस के साथ त्रिकोणीय मुकाबले में हैं. कांग्रेस के बागी और धनोल्टी से लड़ रहे जोत सिंह बिष्ट और देवप्रयाग से मंत्री प्रसाद नैथानी किसी भी तरह का उलट-फेर करने का माद्दा रखते हैं. प्रताप नगर विधानसभा से भाजपा के विद्रोही राजेश्वर पैन्यूली क्षेत्रीय और जातीय समीकरणों के दम पर विधानसभा पहुंच सकते हैं. टिहरी से निर्दलीय चुनाव लड़ रहे पूर्व नगरपालिका अध्यक्ष दिनेश धनाई भी अच्छी स्थिति में हैं.
कुमाऊं में धारचूला सीट पर उक्रांद-पी के वरिष्ठ नेता काशी सिंह ऐरी चुनाव लड़ रहे हैं. ऐरी की छवि भी आम और अच्छे नेताओं में है. इसका लाभ उन्हें मिलना तय है. कुमायूं के नैनीताल जिले की लालकुआं सीट पर कांग्रेस के बागी प्रत्याशी और पूर्व विधायक हरीश दुर्गापाल लगातार अच्छी पकड़ बनाए हुए हैं. यह बुजुर्ग गांधीवादी कांग्रेसी अपनी पकड़ को जीत में बदलने की पूरी क्षमता रखता है. नैनीताल जिले की ही कालाढ़ूंगी सीट पर कांग्रेस के बागी महेश शर्मा पूरे दमखम के साथ चुनाव लड़ रहे हैं. प्रचार और आम जन पर पकड़ के मामले में उन्हें कांग्रेस के प्रकाश जोशी और भाजपा के वंशीधर भगत से आगे बताया जाता है.
दिग्गज माने जाने वाले कई नेताओं के इस चुनाव में पसीने छूट रहे हैं. प्रतिपक्ष के नेता हरक सिंह रावत भी उनमें से एक हैं
अभी तक राज्य में हुए दो चुनावों को देखा जाए तो 2002 में सामान्य बहुमत से कांग्रेस की सरकार बनी थी. 2007 में निर्दलीयों और उक्रांद की मदद से भाजपा की सरकार बनी. तब 69 विधानसभा क्षेत्रों में हुए चुनावों के समय भाजपा को 34 सीटें मिली थीं.
सुरक्षित नहीं हैं दिग्गज
पौड़ी जिले का भाभर यानी मैदानी इलाका है कोटद्वार. यह कस्बा गढ़वाल का प्रवेश द्वार भी है और सबसे बड़ा व्यापारिक केंद्र भी. यहीं से उत्तराखंड के मुख्यमंत्री मेजर जनरल (रिटायर्ड) भुवन चंद्र खंडूड़ी चुनाव लड़ रहे हैं. कोटद्वार-भाभर के मूल निवासी कभी बोक्सा जनजाति के सीधे-सादे लोग हुआ करते थे, पर अब वे झंडी चौड, हल्दूखाता और मोटाढाक जैसे कुछ गांवों में सिमट गए हैं. अब कोटद्वार में बहुसंख्यक लोगों में गढ़वाल राइफल्स के पूर्व सैनिक अधिक हैं. गढ़वाल से पलायन कर गए काफी लोगों ने भी कोटद्वार को अपना घर बना लिया है. कोटद्वार में खंडूड़ी का सीधा मुकाबला कांग्रेस के सुरेंद्र सिंह नेगी से है. नेगी भी पूर्व सैनिक हैं. 1985 में नेगी उत्तर प्रदेश की लैंसडाउन विधानसभा से विधायक चुने गए थे. 1991 में वे निर्दलीय विधायक बने. राज्य बनने के बाद 2002 और 2005 में कांग्रेस के टिकट पर विधायक चुने गए नेगी लगभग ढाई साल तक तिवारी सरकार में मंत्री रहे. 2007 में वे भाजपा के शैलेंद्र रावत से कोटद्वार में और उसी साल धूमाकोट उपचूनाव में मुख्यमंत्री से चुनाव हार गए थे. नेगी जमीन से जुड़े नेता हैं और कोटद्वार उनकी राजनैतिक कर्मभूमि है. जबकि मुख्यमंत्री खंडूड़ी का गृह क्षेत्र पौड़ी जिले में पड़ता है. कई बार सांसद रह चुके खंडूड़ी ने मुख्यमंत्री बनने के बाद विधानसभा चुनाव धूमाकोट से लड़ा, इसलिए उन्हें कांग्रेसी बाहरी प्रत्याशी बता रहे हैं. नेगी कांग्रेस सरकार के कार्यकाल की उपलब्धियां गिनाते हुए बताते हैं, ‘सत्ता में आने के बाद पहली ही कैबिनेट की बैठक में हमने प्रदेश में बेरोजगारी दूर करने और हर गांव में शुद्ध पेयजल की आपूर्ति करने का निर्णय लिया था. हमारी सरकार ने पांच साल में इन दोनों संकल्पों को पूरा करने का भरपूर प्रयास किया.’ वे लोगों को यह बताना भी नहीं भूलते कि उनके समय में कोटद्वार में 1400 करोड़ की लागत से राष्ट्रीय ग्राम्य विकास संस्थान खुलना था जिसके लिए बाद की भाजपा सरकार ने जमीन तक उपलब्ध नहीं कराई नतीजा यह हुआ कि अब वह संस्थान राजस्थान में खुला है. खंडूड़ी पर कटाक्ष करते हुए वे कहते हैं, ‘उन्होंने पिछला चुनाव धूमाकोट से लड़ा था. वहां भी उन्होंने जनता से मुख्यमंत्री के रूप में वोट मांगा था और तब वादा किया था कि वे धूमाकोट को प्रदेश ही नहीं पूरे देश की सबसे अच्छी विधानसभा बना देंगे. अब वे धूमाकोट छोड़ कर क्यों आ गए? क्या उनकी अपने क्षेत्र की जनता के लिए कोई नैतिक जिम्मेदारी नहीं है.’
दूसरी ओर स्टार प्रचारक होने के कारण खंडूड़ी राज्य के अन्य हिस्सों में चुनावी जनसभाएं करने के बाद दोपहर के बाद कोटद्वार पहुंचते हैं. अपने भाषणों में वे वोटरों से अपील करते हैं कि वे अपना उम्मीदवार चुनते समय उसके चरित्र और पार्टी की कार्यशैली जैसी कुछ बुनियादी बातों का ध्यान जरूर रखें. एक भाषण के दौरान वे जनता को उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दिनों हुए अत्याचारों की याद दिलाते हुए कहते हैं,‘उस समय भले ही राज्य में मुलायम सिंह यादव की सरकार थी पर उसे समर्थन तो कांग्रेस पार्टी का था.’ वे कांग्रेस की सरकार के पांच साल के कार्यकाल को भ्रष्टाचार युग बताते हुए दावा करते हैं कि उन्होंने जनता की भलाई के लिए अपने अधिकारों को सीमित किया. मुख्यमंत्री केंद्रीय सड़क परिवहन मंत्री रहते हुए उनके द्वारा बनाए गए सात पुलों का जिक्र करते हैं. वे कांग्रेस के सुरेंद्र सिंह नेगी को चुनौती देते हैं कि वे भी ढाई साल मंत्री रहे हैं इसलिए अपने किए काम भी दिखाएं. बाहरी होने और धूमाकोट छोड़ कर आने के आरोप के जवाब में खंडूड़ी बताते हैं, ‘मैंने जो भी चुनाव लड़ा उसमें मैंने कोशिश की कि मैं जनता के भरोसे पर खरा उतरूं.’
भाजपा उत्तराखंड में चुनाव ही खंडूड़ी के नाम पर लड़ रही है. खंडूड़ी है जरुरी स्लोगन भाजपा की हर चुनाव सामग्री का हिस्सा है. कोटद्वार के क्षेत्रीय और जातीय समीकरण उनके विपरीत हैं फिर भी मुख्यमंत्री के रूप में चुनाव लड़ने का खंडूड़ी को हर रूप में फायदा मिल रहा है. हालांकि यह बात भी गौर करने वाली है कि उत्तराखंड में ही वर्ष 2002 और 2007 में पूर्व मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी भी चुनाव हार चुके हैं. यदि ऐसा फिर हुआ तो सारा चुनाव खंडूड़ी पर केंद्रित कर चुकी भाजपा के लिए जवाब देना मुश्किल हो जाएगा. देखना होगा कि सिपाही और जनरल की लड़ाई के साथ-साथ बाहरी और भीतरी की जंग में मैदान कौन मारता है.
अगर खंडूड़ी नहीं जीते तो सारा चुनाव उन पर केंद्रित कर चुकी भाजपा के लिए जवाब देना मुश्किल हो जाएगा
उधर, छाया मुख्यमंत्री यानी प्रतिपक्ष के नेता हरक सिंह रावत भी अपने चुनाव क्षेत्र रुद्रप्रयाग में सुरक्षित नहीं हैं. वे भी पौड़ी की लैंसडाउन सीट को त्याग कर चुनाव से ऐन पहले रुद्रप्रयाग पहुंचे थे. उनके शब्दों में, ‘पार्टी के कुछ बड़े नेताओं ने उनकी राजनैतिक हत्या करने के लिए उन्हें रुद्रप्रयाग भेजा. रुद्रप्रयाग में उनके मुकाबले में उनके खास साढू और मंत्री मातबर सिंह कंडारी भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं. 10 साल से लगातार विधायक रहे कंडारी भी पहले प्रतिपक्ष के नेता के पद पर रह चुके हैं.
हरक सिंह अब रुद्रप्रयाग को ही अपनी नियति मानते हुए पूरा दम लगा कर चुनाव लड़ रहे हैं. उनका मुकाबला कंडारी जैसे जमीनी नेता से तो है ही, उनकी नींद कांग्रेस के बागी चौधरी और बीरेंद्र बिष्ट ने भी उड़ा रखी है. चौधरी पिछले पांच साल से रुद्रप्रयाग विधानसभा से चुनावी तैयारी कर रहे थे मगर उन्हें पार्टी का टिकट नहीं मिला. वे कहते हैं, ‘मैं रुद्रप्रयाग जिले के स्वाभिमान के मुद्दे पर चुनाव लड़ रहा हूं. हरक सिंह पौड़ी जिले के हैं और भाजपा के मातबर सिंह कंडारी टिहरी जिले के निवासी. उधर, कंडारी कहते हैं, ‘मैं रुद्रप्रयाग के जखोली क्षेत्र में ही पहले से राजनीति करता रहा हूं, इसलिए मुझे बाहरी कहना गलत है.’ उधर हरक सिंह कहते हैं, ‘मैंने बसपा में रहते हुए रुद्रप्रयाग जिले का निर्माण कराया था. इस जिले को जन्म देने वाला व्यक्ति कैसे बाहरी हो सकता है.’ कांग्रेस ने भले ही मुख्यमंत्री पद के लिए किसी भी नेता का नाम घोषित नहीं किया हो पर हरक सिंह लोगों को बताते हैं कि चुनाव जीतते ही वे ही कांग्रेस की ओर से मुख्यमंत्री होंगे.
अन्य दिग्गजों के अलावा विधानसभा अध्यक्ष हरबंस कपूर, पिथौरागढ़ से भाजपा प्रत्याशी और मंत्री प्रकाश पंत, रुद्रपुर से कांग्रेस के दिग्गज और पूर्व मंत्री तिलक राज बेहड़ और हरिद्वार से चुनाव लड़ रहे मंत्री मदन कौशिक को उनके परंपरागत और सुरक्षित विधानसभा क्षेत्रों में कड़े मुकाबले का सामना करना पड़ रहा है. हरिद्वार से कांग्रेस के एकमात्र विधायक कुंवर प्रणव सिंह ‘चैंपियन’ भी दस साल से लक्सर से विधायक रहे हैं. परिसीमन के बाद अब खानपुर से चुनाव लड़ रहे चैंपियन के लिए वहां से जीतना उतना आसान नहीं.
पूर्व मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ की राह भी डोईवाला सीट से इतनी आसान नहीं लग रही. प्रतिपक्ष के नेता हरक सिंह रावत पिछले कई महीनों से डोईवाला सीट से चुनाव लड़ने की हुंकार भर रहे थे. मगर ऐन वक्त पर जब उन्हें रुद्रप्रयाग रवाना किया गया तो इस सीट पर निशंक का विजय रथ दौड़ने लगा था. कांग्रेस ने इस क्षेत्र से रायपुर से कांग्रेस का टिकट मांग रहे देहरादून के दिग्गज कांग्रेसी नेता और पूर्व मंत्री हीरा सिंह बिष्ट को उतारा. बिष्ट डोईवाला से चुनाव लड़ने के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं थे. ऐसे में निशंक के लिए चुनाव जीतना निरापद लग रहा था. लेकिन चुनाव की तिथि आते-आते स्थिति बदलती लग रही है. निशंक की जीत में सबसे बड़ी बाधा उनकी छवि बन रही है. हाल ही में टीम अन्ना भी उन्हें निशाना बना कर गई.
यह सब देखते हुए हो सकता है कि राज्य में इस बार चौथे खेमे की ताकत भी देखने को मिले.