यूं तो देश के सभी राज्यों की भांति केंद्र शासित प्रदेश दिल्ली का बजट भी आम तौर पर वहां की विधान सभा में ही पास होता है. लेकिन राष्ट्रपति शासन लागू होने की स्थिति में राज्यों के साथ ही दिल्ली का बजट बनाने की जिम्मेदारी केंद्र सरकार के हाथों में आ जाती है. लिहाजा केजरीवाल सरकार के इस्तीफे और फिर राष्ट्रपति शासन लग जाने के चलते इस बार दिल्ली का बजट संसद में पास हुआ. इस बजट के जरिए केंद्र सरकार ने अगले एक साल तक दिल्ली के लिए बहुत सी योजनाओं का खाका खींच लिया है. लेकिन उसने चंद दिन पुरानी दिल्ली सरकार के एक ऐसे फैसले को इस बजट में जगह नहीं दी जो आने वाले दिनों में पूरी दिल्ली का सियासी पारा बढा सकता है. केंद्र सरकार ने दिल्ली की पूर्ववर्ती केजरीवाल सरकार द्वारा घोषित उस बिजली सब्सिडी के प्रावधान को इस बजट से बाहर कर दिया है जिसके सहारे आम आदमी पार्टी की सरकार ने दिल्ली की जनता को बिजली के दामों में पचास फीसदी रियायत बख्शी थी. केंद्र ने दिल्ली के लिए वित्तीय वर्ष 2014-15 की पहली छमाही के लिए पारित किए गए लेखानुदान प्रस्ताव में आगामी पहली अप्रैल से बिजली की सब्सिडी देने का प्रावधान नहीं रखा है. जबकि इस सब्सिडी को अलगे छह महीने तक बरकरार रखने के लिए दिल्ली सरकार ने लेखानुदान मांग के जरिए केंद्र से गुजारिश भी की थी. वित्त राज्यमंत्री नमो नारायण मीणा ने राज्यसभा में कहा कि केजरीवाल सरकार ने जिन सब्सिडियों की घोषणा की थी, उनके लिए नए बजट में कोई आवंटन नहीं किया गया है.
इस तरह केंद्र के इस फैसले के बाद साफ हो गया कि चार दिनों की चांदनी के बाद आगामी एक अप्रैल से दिल्ली के साढ़े 34 लाख उपभोक्ताओं को बिजली के बढ़े हुए दाम चुकाने होंगे. इस फैसले से आम आदमी पार्टी आगबबूला हो गई और उसने इसे कांग्रेस और भाजपा की मिलीभगत बता दिया. केंद्र सरकार से नाराज पार्टी का सवाल था कि जब दिल्ली के 90 फीसदी विधायक बिजली बिल में 30 फीसदी कमी करने के हिमायती थे तो ऐसे में सब्सिडी खत्म करने का क्या आधार था. गौरतलब है कि भाजपा ने भी अपने चुनावी घोषणापत्र में बिजली दरों में 30 फीसदी कमी करने की बात कही थी. उधर, कांग्रेस और भाजपा ने इसका ठीकरा केजरीवाल सरकार के 49 दिनों के कार्यकाल पर फोड़ना शुरू कर दिया.
तीनों पार्टियों के बीच छिड़े इस वाक युद्ध नें अभी गर्मी पकड़ी ही थी कि एक और खबर ने इस आग में घी उड़ेल दिया. इस खबर का ताल्लुक भी बिजली को लेकर आम आदमी पार्टी के एक दूसरे फैसले से था. लेकिन इस बार खबर संसद के बजाय न्यायपालिका के रास्ते से आई. 21 फरवरी को दिल्ली हाईकोर्ट ने राजधानी की सरकार को निर्देश दिया कि वह अक्तूबर 2012 से दिसंबर 2013 तक के बिजली बिल नहीं चुकाने वाले उपभोक्ताओं को दी गई 50 फीसदी माफी को लागू न करे. यह वह छूट थी जिसे केजरीवाल सरकार ने पिछले साल आंदोलन के दौरान बिजली के बिल नहीं भरने वाले तकरीबन 24 हजार लोगों के लिए लागू किया था. गौरतलब है कि दिल्ली में कांग्रेस पार्टी की सरकार के दौरान आम आदमी पार्टी जब बिजली को लेकर आंदोलन कर रही थी तो उसने लोगों से बढ़े हुए बिल नहीं देने की अपील की थी. इसके बाद कई लोगों ने बिजली के बिल जमा नहीं कराए थे. सत्ता में आने के बाद केजरीवाल सरकार ने इन लोगों के बिलों में 50 फीसदी छूट का फैसला किया था. लेकिन अब हाई कोर्ट ने इस छूट को खत्म करके पूरा बिल वसूलने का आदेश सरकार को दे दिया है.
इस तरह देखा जाए तो बिजली जैसे मुद्दे को लेकर लिए गए केजरीवाल सरकार के दो अहम फैसले एक ही दिन में पलट गए. इसके अलावा दिल्ली की इस भूतपूर्व हो चुकी सरकार का 700 लीटर मुफ्त पानी देने का फैसला भी खतरे की जद में बताया जा रहा है. क्योंकि संसद में पास हुई दिल्ली सरकार की लेखानुदान मांगों में इस सब्सिडी को भी शामिल नहीं किया गया है. ऐसे में बिजली वाले फैसले की भांति इसकी मियाद भी 31 मार्च तक सिमटनी तय लग रही है. जानकारों की मानें तो जब तक दिल्ली में नई सरकार का गठन नहीं हो जाता तब तक सब्सिडी समेत दूसरे सभी फैसलों को लागू रखने के लिए केंद्र का फैसला ही बरकरार रहेगा. ऐसे में केजरीवाल सरकार के कार्यकाल के दूसरे कई फैसलों का भविष्य भी खतरे में दिख रहा है.
दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर पुष्पेश पंत की मानें तो केजरीवाल सरकार के फैसलों को बदला जाना किसी भी नजरिए से अप्रत्याशित नहीं माना जाना चाहिए. वे कहते हैं, ‘केजरीवाल सरकार के फैसले पलटकर कांग्रेस पार्टी अपनी उस गलती को सुधारने की कोशिश कर रही है जो उसने अाप को समर्थन देकर की थी. बहुत संभव है कि बिजली पानी के बाद केंद्र केजरीवाल के दूसरे फैसलों को भी बदल दे, लेकिन यह भी साफ है कि इस तरह की हरकतों से नुकसान उसको ही उठाना पड़ेगा.’
केजरीवाल सरकार द्वारा लिए गए फैसलों के जारी रहने या खारिज हो जाने की संभावनाओं और आशंकाओं के बीच एक सरसरी नजर उसके 49 दिनों के कामकाज पर दौड़ाते हैं. 28 दिसंबर 2013 को रामलीला मैदान में शपथ लेने वाली आम आदमी पार्टी की सरकार ने अपने ड्रीम प्रोजेक्ट यानी जनलोकपाल बिल के मुद्दे पर 14 फरवरी को इस्तीफा दे दिया था. तमाम विवादों के बावजूद इस बहुत छोटे कार्यकाल में केजरीवाल सरकार ने कुछ उल्लेखनीय निर्णय भी लिए. इनमें वीआईपी कल्चर खत्म करने, भ्रष्टाचार रोकने के लिए हेल्पलाइन चलाने, बिजली-पानी के दाम घटाने और बिजली कंपनियों का आडिट करने जैसे निर्णय थे. साथ ही कॉमनवेल्थ खेलों में भ्रष्टाचार के आरोपों पर पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित और गैस के दामों में गड़बड़ी की शिकायत पर मुकेश अंबानी से लेकर केंद्रीय मंत्री वीरप्पा मोइली तक के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने के आदेश देने जैसे अहम फैसले भी थे. इसके अलावा महिलाओं और बुजुर्गों की सुरक्षा के लिए सुरक्षा दल बनाने तथा संविदा कर्मियों के नियमितीकरण को लेकर भी आम आदमी पार्टी की सरकार कुछ कदम बढ़ा चुकी थी. लेकिन अब उसके इस्तीफे और फिर दिल्ली में राष्ट्रपति शासन लग जाने के बाद इन फैसलों के भविष्य को लेकर सवाल खड़े होने शुरू हो गए हैं. बिजली-पानी के फैसलों को लेकर जिस तरह पहले केंद्र सरकार और फिर हाईकोर्ट का फैसला आया है उसे देखते हुए इन फैसलों के पूरे होने पर भी संदेह बढ़ने लगा है. हालांकि केजरीवाल सरकार के इस्तीफे के बाद उप राज्यपाल नजीब जंग आम आदमी पार्टी की सरकार के आदेशों को जारी रखने की बात कही थी. सरकार के इस्तीफे के फौरन बाद उन्होंने दिल्ली सरकार के उच्च अधिकारियों के साथ एक बैठक भी की जिसके बाद केजरीवाल सरकार के आदेशों को जारी रखने का फैसला लिया गया. उपराज्यपाल ने जन शिकायत प्रकोष्ठ व एंटी करप्शन हैल्पलाइन को जारी रखने के निर्देश देकर इस बात के संकेत भी दिए हैं. लेकिन जानकारों का मानना है कि इन संकेतों के बावजूद बहुत संभव है कि केजरीवाल सरकार के हल्के-फुल्के आदेशों को ही लागू रखा जाएगा जबकि बड़े फैसलों को रोल बैक या फिर स्लो मोशन वाले काम चलाऊ तरीके से निपटाया जा सकता है. कानूनी पहलुओं की पड़ताल करने पर जो पता चलता है उसका लब्बोलुआब यही है कि उप राज्यपाल और केंद्र सरकार ही अब दिल्ली को लेकर कोई फैसला करने के अधिकारी हैं. संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप कहते हैं, ‘किसी भी राज्य अथवा केंद्र शासित प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगने की स्थिति में सरकारी फैसले लेने का अधिकार राज्यपाल अथवा उप राज्यपाल के पास रहता है. इसके अलावा केंद्र सरकार चाहे तो जरूरी समझे जाने पर उनके फैसलों में फेरबदल कर सकता है. इस लिहाज से देखा जाए तो दिल्ली को लेकर किसी भी तरह के फैसले लेने की ताकत इस वक्त उप राज्यपाल नजीब जंग के पास ही है और अगर केंद्र सरकार चाहे ते उनके फैसलों को बदल भी सकती है.’ दिल्ली की वर्तमान संवैधानिक परिस्थितियों के संदर्भ में देंखे तो बिजली पानी के दामों पर उप राज्यपाल द्वारा केंद्र को भेजी गई लेखानुदान मांग का जो हश्र हुआ है वह सुभाष कश्यप की बातों को साफ तौर पर सिद्ध करता नजर आता है. ऐसे में इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि भले ही आम आदमी पार्टी की सरकार के बाकी फैसलों को सर के बल खड़ा न किया जाए लेकिन उन्हें तिरछा कर लटकाया तो जा ही सकता है. आम आदमी पार्टी भी इस आशंका से इंकार नहीं कर रही है. पार्टी प्रवक्ता गोपाल राय का कहना है कि पार्टी उपराज्यपाल के सभी आदेशों पर लगातार नजर रखे हुए है और सरकार द्वारा जनहित में लिए गए फैसलों को लेकर किसी भी तरह का रोल बैक मंजूर नहीं किया जाएगा. उनका यह भी कहना था कि बिजली और पानी को लेकर केजरीवाल सरकार के फैसले को बरकरार रखा जाना चाहिए था.
बिजली और पानी को लेकर केंद्र सरकार के रोल बैक के बाद आम आदमी पार्टी द्वारा लिए गए ऐसे दूसरे प्रमुख फैसलों पर नजर डालते हैं जिनके भविष्य को लेकर आशंका नजर आती है.
अस्थाई कर्मियों का नियमितीकरण
दिल्ली में अलग-अलग सरकारी विभागों में तकरीबन ढाई लाख कर्मचारी अस्थाई तौर पर काम करते हैं. ये लोग काफी समय से नौकरी स्थाई किए जाने या नियमितीकरण की मांग कर रहे हैं. आम आदमी पार्टी ने इस मुद्दे को अपने घोषणापत्र में प्रमुखता से शामिल भी किया था. सरकार में आने के बाद केजरीवाल सरकार ने ठेके पर काम करने वाले लोगों को नियमित करने के लिए एक उच्च स्तरीय कमेटी का गठन किया. तत्कालीन लोक निर्माण मंत्री मनीष सिसोदिया का कहना था कि यह कमेटी ढाई लाख लोगों को नहीं, बल्कि इन ढाई लाख पदों को नियमित करेगी. इस कमेटी को एक महीने के अंतर्गत अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपनी थी. लेकिन अब सरकार के इस्तीफे के बाद इस कमेटी और उसकी रिपोर्ट को लेकर अनिश्चितता है. क्योंकि सवाल यह है कि अगर यह कमेटी नियत समय में अपनी रिपोर्ट सौंप भी देती है तब भी उस रिपोर्ट पर कोई कार्रवाई कर पाना मुश्किल होगा. जानकारों की मानें तो जब तक नई सरकार का गठन नहीं होता इस रिपोर्ट पर कोई एक्शन नहीं लिया जा सकता. वैसे भी अगले कुछ दिनों में लोकसभा चुनाव से संबंधित अधिसूचना जारी होने वाली है लिहाजा तब तक कोई नया फैसला संभव नहीं लगता.
सुरक्षा दस्ता बनाने की घोषणा
महिलाओं और वरिष्ठ नागरिकों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए आप ने चुनाव प्रचार के दौरान महिला सुरक्षा दल के गठन का वादा किया था. सरकार में आने के बाद इस वादे पर अमल करते हुए केजरीवाल सरकार ने मुख्य सचिव की अध्यक्षता में एक उच्चस्तरीय समिति का गठन किया. इस समिति में गृह सुरक्षा के महानिदेशक, महिला एवं बाल विकास विभाग के निदेशक के साथ ही दूसरे क्षेत्रों के विशेषज्ञों को शामिल किया गया. लेकिन यह कमेटी अपना काम शुरू करती इससे पहले ही सरकार चली गई. हालांकि उपराज्यपाल के आदेश के मुताबिक सरकारी विभागों में ठेके पर काम कर रहे कर्मचारियों को नियमित करने व महिला सुरक्षा दल पर सिफारिश देने के लिए गठित की गई कमेटियां अपना काम करती रहेंगी, लेकिन माना जा रहा है कि इन कमेटियों की सिफारिशों का भविष्य नई सरकार के आने के बाद ही तय होगा. इन कमेटियों द्वारा दी गई संस्तुतियों के पक्ष में एक संभावना यह भी है कि उप राज्यपाल नजीब जंग इसके लिए केंद्र सरकार से अनुरोध करें. लेकिन केंद्र इसकी मंजूरी देगा या नहीं यह उसके विवेक पर निर्भर करेगा. सुभाष कश्यप कहते हैं, ‘उप राज्यपाल और केंद्र सरकार चाहे तो खुद ही इन पर कोई निर्णय ले सकती है या फिर इन्हें नई सरकार के लिए छोड़ सकती है’. यहां एक दिलचस्प तथ्य यह भी गौर करने वाला है कि दिल्ली के उप राज्यपाल द्वारा बिजली और पानी की सब्सिडी जारी रखने के हालिया अनुरोध को केंद्र पहले ही टरका चुका है.
दीक्षित, मोइली और अंबानी के खिलाफ जांच
दिल्ली विधानसभा चुनाव से पहले आम आदमी पार्टी ने तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित पर कामनवेल्थ खेलों के दौरान घपले करने का आरोप लगाया था. पार्टी का कहना था कि यदि उनकी सरकार बनी तो दीक्षित के खिलाफ जांच की जाएगी. सत्ता में आने के बाद पार्टी ने इस दिशा में कदम भी बढ़ाया और कॉमनवेल्थ खेलों के दौरान लगाई गईं स्ट्रीट लाइटों की खरीद में हुए घोटाले में तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के खिलाफ एफआईआर दर्ज करा दी. इसके अलावा आप सरकार ने प्राकृतिक गैस की कीमतों में गड़बड़ी के आरोपों के आधार पर कांग्रेस पार्टी के साथ ही देश के सबसे बड़े औद्योगिक घराने यानी रिलायंस इंडस्ट्रीज से भी सीधी टक्कर ली. एक शिकायत के आधार पर मुख्यमंत्री केजरीवाल ने मुकेश अंबानी, केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्री वीरप्पा मोइली, पूर्व पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा सहित चार लोगों के खिलाफ मुकदमे दर्ज कराने के आदेश दिए. दिल्ली सरकार की एंटी करप्शन ब्रांच ने इन मामलों में जांच शुरू कर दी थी. लेकिन अब केजरीवाल के इस्तीफे के बाद इन मामलों की जांच की रफ्तार को लेकर सूबे की नौकरशाही में अंदरखाने बहुत सारी चर्चाएं चल रही हैं. नाम न बताने की शर्त पर दिल्ली सरकार के एक अधिकारी का कहना है कि भले ही भ्रष्टाचार निरोधक शाखा अपनी जांच जारी रखे लेकिन निजाम बदलने का असर जरूर पड़ सकता है. इस बात की संभावना इसलिए भी बहुत हद तक बलवती दिख रही है कि दिल्ली सरकार की जिस एंटी करप्शन ब्रांच ने गैस की कीमतें बढ़ाने की साजिश रचने के मामले में केंद्रीय मंत्री वीरप्पा मोइली, मुकेश अंबानी, और मुरली देवड़ा समेत अन्य के खिलाफ एफआईआर दर्ज की है उसी एंटी करप्शन ब्रांच ने समान प्रकृति के एक दूसरे मामले को अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर बता कर जांच करने से हाथ खड़े कर दिए हैं. दरअसल कुछ दिन पहले एक व्यक्ति ने दिल्ली सरकार के एंटी करप्शन ब्यूरो में केंद्रीय गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे के खिलाफ एक शिकायत दर्ज की थी.यह शिकायत पूर्व गृह सचिव आरके सिंह द्वारा शिंदे के खिलाफ लगाए गए उन आरोपों के आधार पर की गई थी जिनके मुताबिक एसएचओ के तबादलों के लिए गृह मंत्री के दफ्तर से दिल्ली पुलिस कमिश्नर को पर्चियां भेजी जाती थीं. शिकायतकर्ता ने शिंदे के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने की मांग की थी. लेकिन एंटी करप्शन ब्यूरो ने एफआईआर दर्ज करने के बजाय उस शिकायत को दिल्ली सरकार के सतर्कता निदेशालय के पास भेज दिया. बाद में इस बाबत जानकारी मांगी गई तो एंटी करप्शन ब्रांच का कहना था कि केंद्रीय मंत्रियों के खिलाफ शिकायत की जांच करना उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर है. ऐसे में बहुत संभावना है कि मोइली और देवड़ा के खिलाफ जांच को लेकर भी ऐसा रुख अपनाया जा सकता है. हालांकि इस दशा में आम आदमी पार्टी के पास अदालत का दरवाजा खटखटाने का विकल्प होगा, लेकिन ऐसा होने के बाद इस जांच प्रक्रिया में तेजी आने की संभावना ढीली पड़नी निश्चित है.
इन फैसलों के अलावा रिटेल सेक्टर में एफडीआई को मंजूरी न देने वाले केजरीवाल सरकार के फैसले को लेकर भी राजनीतिक पंडित ‘न’ होने की संभावना से इंकार नहीं कर रहे हैं. गौरतलब है कि तमाम राज्यों के विरोध के बावजूद केंद्र सरकार एफडीआई की जम कर पैरवी करती रही है. दिल्ली में शीला दीक्षित सरकार ने भी केजरीवाल के आने से पहले एफडीआई को मंजूरी दी थी. इसके अलावा 1984 के सिख विरोधी दंगों की जांच के लिए केजरीवाल सरकार द्वारा एसआईटी जांच की मांग उप राज्यपाल द्वारा मान लिए जाने के बाद भी इसकी रफ्तार पर कुछ नहीं कहा जा सकता. इस मामले में गौर करने वाली बात यह भी है कि केजरीवाल सरकार द्वारा एसआईटी की मांग का उस वक्त कांग्रेस विधायकों ने विरोध किया था.
जेएनयू में समाजशास्त्र के प्रोफेसर और कुछ ही समय पहले आम आदमी पार्टी से जुड़ने वाले प्रोफेसर आनंद कुमार कहते हैं, ‘बिजली पानी पर लिए गए आप सरकार के अहम फैसलों के पलट जाने के बाद अगर सरकार के कुछ और फैसलों पर कैंची चलती है तो जाहिर तौर पर कांग्रेस और भाजपा इसे केजरीवाल सरकार की नाकामी के रूप में ही प्रचारित करेंगे. लेकिन दिल्ली की जनता इसकी असल वजह अच्छे से समझ चुकी है.’ वे बात आगे बढ़ाते हैं, ‘आम आदमी पार्टी इन सभी मुद्दों पर जनता के बीच जाने को तैयार है. हालांकि पार्टी के सामने बड़ी चुनौती यह भी है कि वह अपने पक्ष में बने जनता के भरोसे को बचा कर रखे.’
प्रोफेसर आनंद कुमार की बातों को सच माना जाए तो यह भी एक बड़ी वजह है जिसके चलते आप अपने दूसरे फैसलों के भविष्य को लेकर सशंकित है. पार्टी का मानना है कि उसके कार्यकाल में लिए गए निर्णयों को बदले जाने की सूरत में भाजपा और कांग्रेस इसकी जिम्मेदारी उसके सर पर ही डालेगी. इन सब बातों के निकलने वाले नफे नुकसान को ध्यान में रखते हुए पार्टी ने दिल्ली में राष्ट्रपति शासन लागू किए जाने के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है. पार्टी की तरफ से दायर याचिका में कहा गया है कि यह फैसला न सिर्फ मनमाना व अवैध है बल्कि दिल्ली के नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन भी है. पार्टी ने याचिका के जरिए दिल्ली में जल्द से जल्द चुनाव कराने की मांग भी की है. आम आदमी पार्टी की इस याचिका को सुनने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से 10 दिनों में जवाब मांगा है. इस मामले में अगली सुनवाई सात मार्च को होनी है. इस तरह देखा जाए तो सात मार्च का दिन दिल्ली सरकार के फैसलों के संदर्भ में कई मायनों में महत्वपूर्ण साबित हो सकता है.
कुल मिलाकर देखा जाए तो केजरीवाल सरकार द्वारा लिए गए फैसलों को लागू करने का पूरा जिम्मा आम आदमी पार्टी के हाथों से निकल कर दिल्ली के उप राज्यपाल और केंद्र सरकार के दरबार में पहुंच चुका है.इन दोनों के साथ आम आदमी पार्टी के संबंध कितने मधुर हैं, जन लोकपाल बिल को लेकर केजरीवाल सरकार का इस्तीफा इस बात का प्रमाण पहले ही दे चुका है.