फिनलैंड से सीखें ख़ुश रहने के गुर

फिनलैंड में लोग जब सड़क पर निकलते हैं, तो पास से गुज़रने वाले को एक प्यारी-सी मुस्कान देते हैं और उसका अभिवादन यानी स्वागत भी करते हैं। यह बात फिनलैंड के लोगों की ख़ुशहाली के प्रमुख कारणों में से एक है। इसके अलावा ख़ूबसूरत लैंडस्केप, प्राकृतिक सुन्दरता, जंगल, स्वच्छ और साफ़-सुथरी झीलें और सन्तुलित वाइल्ड लाइफ है। वहाँ के लोग शान्तिप्रिय हैं। सकारात्मक दृष्टिकोण के कारण स्वतंत्र और चैन से रहते हैं। इसीलिए वहाँ क्राइम रेट काफ़ी कम है। लोगों में सद्भावना है। उनका स्टैंडर्ड ऑफ लिविंग काफ़ी ऊँचा है। शिक्षा व्यवस्था अच्छी है। यूनिवर्सल हेल्थ केयर सिस्टम के अलावा वहाँ के लोगों में समानता का भाव है। इसलिए फिनलैंड के लोग अपने को सुरक्षित भी महसूस करते हैं। संयुक्त राष्ट्र द्वारा वल्र्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट के लिए वर्ष 2022 में करवाये गये एक सर्वे में फिनलैंड लगातार पाँचवीं बार विश्व का सबसे ख़ुशहाल देश चुना गया है। वहाँ हैप्पीनेस का ग्राफ दूसरे देशों की तुलना में सबसे ऊँचा है। वल्र्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट में शामिल होने वाले जो 10 देश हैं, उनमें शीर्ष स्थान फिनलैंड का है। उसके बाद क्रमश: डेनमार्क, आइसलैंड, स्वीटजरलैंड, नीदरलैंड्स, लक्जमबर्ग, स्वीडन, नॉर्वे, इजरायल और न्यूजीलैंड शामिल है। भारत का स्थान 136वाँ है।

भारत पीछे क्यों?

परम्परागत जीवन शैली और नैतिक मूल्यों से सम्पन्न भारत जैसे देश की हैप्पीनेस रिपोर्ट या कह लें रैंक इतना पीछे होने के कई कारण हैं। मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें, तो हमारे देश में लोगों में कथनी और करनी में ज़मीन-आसमान का फ़र्क़ है। हम लोग द्वंद्व में जीवन जीते हैं। मन में कुछ और, बाहर कुछ और। ज़िन्दगी जीने का अधिकार तो सबको है। मगर हम ज़िन्दगी को घुट-घुटकर जीते हैं; उसको अभिव्यक्त नहीं कर पाते। इसीलिए हम उसी उलझी हुई ज़िन्दगी जीते रहते हैं।

वल्र्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट को लेकर फिनलैंड के सन्दर्भ में जब पंजाब विश्वविद्यालय चंडीगढ़ के मनोविज्ञान विभाग के प्रमुख डॉ. रोशन लाल दहिया से बातचीत की गयी, तो उन्होंने इसके पीछे कई मनोवैज्ञानिक कारण बताये और कुछ सुझाव भी दिये। ख़ुशी के पैमाने पर बात करते हुए उन्होंने कहा कि सबसे पहले हमें अपने आपको स्वीकार करना आना चाहिए, व्हाट एम आई? (मैं क्या हूँ?)। ‘मैं साइकिल पर जाता हूँ; मैं मारुति 800 में जाता हूँ; मैं पैदल जाता हूँ; इन चीज़ें की परवाह करनी छोडऩी पड़ेगी। अगर ख़ुश रहना है, तो दूसरों के साथ तुलना करना बन्द करना पड़ेगा। डॉ. रोशन लाल कहते हैं कि आज का सबसे बड़ा रोग है कि ‘क्या कहेंगे लोग?’ हमें जीवन की स्वतंत्रता चाहिए। हमारे पास वायुसंचार (वेंटिलेशन) नहीं है। हमें ‘नहीं’ कहना आना चाहिए। हमारे यहाँ सामाजिक समर्थन नहीं है। यह चीज़ अब ख़त्म होती जा रही है। भारत में हम सामाजिक जीवन जीते हैं, व्यक्तिगत जीवन नहीं; जबकि पश्चिमी देशों में लोग व्यक्तिगत जीवन ज़्यादा जीते हैं।

परम्परागत जीवन को छोड़कर हम बनावटी ज़िन्दगी जी रहे हैं। वातानुकूलित (एयर-कंडीशन) जीवन हमें ख़ुशी नहीं दे सकता। पहले ज़माने में जब हम पेड़ों के नीचे बैठकर पढ़ते थे, तो अधिक याद रहता था। अब बच्चों को एसी में बैठकर पढऩे से भी उतना नहीं याद हो पाता। लेकिन अब लोगों की जीवनशैली ऐसी हो गयी है कि एसी उनकी ज़रूरत बन गया है। मेडिकल आधार पर देखें, तो शरीर में पसीना आना ज़रूरी है। लेकिन हमारी मानसिकता ऐसी बन गयी है कि हमें एसी लगाना ऊँची जीवनशैली का मानक (स्टैंडर्ड) लगता है। लेकिन आदमी के स्वास्थ्य पर इसका बुरा असर हो रहा है। लोग आराम की ज़िन्दगी जीना चाहते हैं।

उनका शरीर गतिशील नहीं हो पाता, जिससे बीमारियाँ घेर रही हैं। आरामतलब ज़िन्दगी का शिकार हुआ आज का आदमी उपकरणों पर आश्रित हो गया है। जितनी तरक़्क़ी हो रही है, उतने ही रोग हमें घेर रहे हैं। शहरों में एक्सेसिबिलिटी (उत्कृष्टता), अवेलेबिलिटी (उपलब्धता) और अफोर्डेबिलिटी (सामथ्र्य) शब्द चलते हैं; लेकिन लोगों की मानसिकता नहीं बदल रही।

डॉ. रोशन लाल बताते हैं कि फिनलैंड में लोगों की जीवन का व्यक्तिवादी दृष्टिकोण है, जो कि भारत से एकदम अलग है। अगर हमें अपने बच्चों को या ख़ुद को ख़ुश रखना है, तो उन्हें सामाजिक भावनात्मक शिक्षा सिखानी पड़ेगी। सरकार और वैज्ञानिकों को कम-से-कम मानव जोखिम पर खोज करनी होगी।

कुछ तौर-तरीक़े सरकारों को जबरदस्ती लागू करने होंगे। डॉ. रोशन लाल ने बताया कि एक बार जब वह किसी सम्मेलन के लिए कनाडा में थे। उन्होंने देखा कि वहाँ एक रेस्टोरेंट (भोजनालय) बन रहा था, जिसे सरकार ने स्वीकृति नहीं दी। इसका एक बड़ा कारण यह देखने को मिला कि उस रेस्टोरेंट में 90 कुर्सियाँ अन्दर लगी थीं; लेकिन बाहर 90 गाडिय़ों को पार्क करने के लिए जगह नहीं थी। इसलिए सरकार ने उसका लाइसेंस (अनुज्ञप्ति पत्र) रद्द कर दिया। ऐसे मापदण्ड (पैरामीटर) हमारे देश में भी सरकार को ध्यान में रखने चाहिए।

ईष्या कैसी?

दार्शनिक लाओत्से ने कहा है कि जो हम हो सकते हैं, हो नहीं पाते; और जो हम नहीं हो सकते, वह होने में लगे रहते हैं। इसी में सारा जीवन बीत जाता है। सारा अवसर खो जाता है। कहने का भाव यह हुआ कि हम अपनी क्षमताओं और कौशल को जानने की बजाय दूसरों की तरह बनने में जीवन के सुनहरे अवसरों को खो देते हैं। इस चक्कर में दीन-हीन से बने रहते हैं। इससे हीन भावना पैदा होने लगती है। आत्मग्लानि में ऐसा महसूस होने लगती है कि हम दूसरों की तरह क्यों नहीं बन सके। इसी उधेड़बुन में सारा जीवन निकल जाता है और हम हाथ मलते रह जाते हैं।

ख़ुशी क्या है?

आख़िर ख़ुशी क्या है? आदमी ख़ुश क्यों होना चाहता है? इसका सीधा-सा जवाब है कि जब वह ख़ुश होता है, तो स्पष्ट सोचता है, तनाव से दूर होता है। ऐसी अवस्था में वह मुश्किलों में भी सहजता का अनुभव करता है। ख़ुशी एक आंतरिक अवस्था है, जहाँ कोई विचार शेष नहीं रहता। इस अवस्था में एक गहरा मौन होता है, जब सब तनाव ख़त्म हो जाते हैं। लेकिन ख़ुशी की यह अवस्था देश-काल और वातावरण पर निर्भर करती है।

आदमी ख़ुश होने के लिए बड़े और ख़ास मौक़े ढूँढता रहता है और इसी तलाश में उसका जीवन बीत जाता है। आम ज़िन्दगी में रोज़ाना कई पल ऐसे आते हैं, जब ख़ुशी को बटोरा जा सकता है। और उस बटोरी हुई ख़ुशी से ज़िन्दगी के तमाम संघर्षों और दु:खों से पार पाया जा सकता है। ओशो कहते हैं कि एक कलाकार, कवि और संगीतकार अपनी कलाकृति से जितना सुख, आनंद और तृप्ति प्राप्त करता है, उतना एक धनी व्यक्ति नहीं। वास्तविक ख़ुशी अन्तर में है।

कैसे मिले ख़ुशी?

गहन मौन की अवस्था में ही असल ख़ुशी का स्थान है, जहाँ कोई बाहरी परिस्थितियों का प्रभाव नहीं रहता। इस अनुभव को जितना दोहराया जाएगा, उतनी अधिक यह अवस्था प्राप्त होगी। इससे पूरा व्यक्तित्व रूपांतरित हो जाता है।