एकबारगी ऐसा क्या हुआ कि माओवादियों ने बड़ी घटनाओं को अंजाम देना शुरू कर दिया? वह भी उस इलाके में जो एक समय उनका सबसे सुरक्षित बसेरा हुआ करता था, लेकिन जिससे कुछ वर्षों से उन्होंने एक हद तक दूरी बना ली थी. एक बार फिर से पलामू में ही ताबड़तोड़ हमला क्यों कर रहे हैं माओवादी, यह अब तक साफ नहीं हो पा रहा है. कुछ का कहना है कि यह झारखंड के ही निवासी मिसिर बेसरा नामक माओवादी को अहम कमान देने के पहले उसके राज्य में मजबूत उपस्थिति दर्ज करवाने की कवायद है. कुछ मानते हैं कि हाल के दिनों में लगातार कमजोर पड़ने और अपने साथियों के गिरफ्त में आने के कारण बौखलाए माओवादी दहशत फैलाकर अपनी ताकत दिखाने और बताने की कवायद में लगे हुए हैं. कुछ यह भी मानते हैं कि माओवादी अपने नेता किशनजी के मार दिए जाने के बाद बंगाल में चारा नहीं चलने के कारण उसका हिसाब-किताब आसानी से झारखंड में पुलिसवालों को मारकर कर रहे हैं.
ये अनुमान हैं, ठोस और असल वजह यही सब हों, कहा नहीं जा सकता. लेकिन यह जरूर कहा जा सकता है कि सारंडा जैसे बीहड़ और मालदार जोन को छोड़ अचानक से माओवादियों ने भूख, अकाल, गरीबी, सूखे और पलायन से जलते पलामू को फिर से अपना ठिकाना बनाने की कोशिश शुरू कर दी है. पलामू में पिछले साल के दिसंबर महीने में एक घटना को अंजाम देते हुए माओवादियों ने 11 पुलिसकर्मियों को मार दिया था. अभी इस साल का पहला महीना भी नहीं गुजरा कि फिर से पलामू में माओवादियों ने उतने ही पुलिसकर्मियों की निर्ममता से हत्या कर दी.
पलामू के गढ़वा जिले वाला एक हिस्सा 21 जनवरी को जोरदार आवाजों से थर्रा गया. वर्षों बाद हुई ऐसी दहल से लोग अब भी दहशत में हैं. भंडरिया के पास माओवादियों ने पहले तो पुलिस की ऐंटी लैंडमाइंस गाड़ी को निशाना बनाकर बारूदी सुरंग से विस्फोट किया और फिर सारे जवानों को घेर कर उन पर गोलियां बरसा दीं. संख्या में 40 के करीब नक्सलियों ने इसके बाद पुलिसकर्मियों के हथियार कब्जे में लिए और थाना प्रभारी राजबलि चौधरी की गाड़ी में आग लगाकर उन्हें जिंदा ही आग के हवाले कर दिया.
मारे गए सभी पुलिसकर्मी उस दिन भंडरिया इसलिए जा रहे थे कि वहां के मुखिया रामदास मिंज स्वास्थ्य उपकेंद्र को जनता की सुविधा वाले स्थान पर बनवाना चाहते थे. पर ठेकेदार और बिचौलिए इसके लिए राजी नहीं थे. कुछ ग्रामीणों को साथ लेकर मुखिया मांग पूरी करवाने के लिए धरने पर बैठ गए. प्रशासन को जब इसकी भनक लगी तो प्रखंड विकास पदाधिकारी बासुदेव प्रसाद, जिला पार्षद सुषमा मेहता, माले नेता अख्तर अंसारी तथा उनके ड्राइवर महबूब व अंगरक्षक सुनेश राम के साथ धरनास्थल के लिए रवाना हुए. इस काफिले के साथ एक ऐंटी लैंड माइंस वैन भी थी. इसी मौके का फायदा माओवादियों ने उठाया.
पलामू तीन राज्यों की सीमा से लगता है इसलिए यहां माओवादियों को गतिविधियां चलाने में आसानी होती है
इस मिशन को अंजाम देने के बाद माओवादियों ने चार लोगों को बंदी बना लिया और अपनी मांग पूरी करने की बात कही. मांग यह कि इलाके में चल रहा ऐंटी नक्सल ऑपरेशन तुरंत बंद किया जाए और पुलिस पिकेट को हटाया जाए. अपनी मांग रखकर माओवादियों ने 23 जनवरी को तीन लोगों को तो छोड़ दिया लेकिन जिला पार्षद सुषमा मेहता के अंगरक्षक सुनेश को प्रशासन पर दबाव बनाने के लिए अपने पास ही रख लिया. ऐसा माना जा रहा है कि यदि सरकार पिकेट हटाने को तैयार नहीं हुई तो दबाव बनाने व दहशत फैलाने के लिए सुनेश की हत्या कर दी जाएगी क्योंकि वह सरकारी कर्मचारी होने के साथ-साथ पुलिसकर्मी भी है.
घटना के बाद राज्य के मुखिया अर्जुन मुंडा का यह बयान आया कि इस घटना के लिए केंद्र सरकार दोषी है क्योंकि वह राज्य सरकार की मदद नहीं कर रही. यह बयान अपने आप में हैरान करने वाला था क्योंकि नक्सल समस्या को लेकर हाल ही में केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम ने झारखंड का दौरा किया था और उस समय मुंडा ने केंद्र के असहयोगात्मक रवैये का मुद्दा उनके सामने नहीं उठाया था. हैरानी की बात यह भी रही कि इतनी बड़ी घटना के बाद खुद मुख्यमंत्री या फिर उनके सहयोगी किसी भी मंत्री ने एक बार भी पलामू पहुंचने की जहमत नहीं उठाई. राज्य में घटित बड़ी से बड़ी घटना पर राजधानी रांची से ही बयान देना एक परंपरा बन गई है जबकि झारखंड गठन के बाद से अब तक औसतन हर साल 40 जवानों की नक्सली हमले में मौत हो जाती है. माले नेता विनोद सिंह पलामू जरूर पहुंचे और उन्होंने कहा भी कि पुलिस और माओवादियों का फर्क मिट गया है और दोनों की क्रूरता से आम जनता पिस रही है. बकौल विनोद, ‘धरने पर बैठे मुखिया रामदास मिंज और ग्रामीण फिदा हुसैन को इस तर्क के साथ हिरासत में ले लिया जाना कि इस घटना की साजिश में इन्हीं का हाथ है, इसी को प्रमाणित करता है.’
पलामू प्रमंडल के तीनों जिलों पलामू, लातेहार और गढ़वा में नक्सलियों की धमक तब से रही है जब नक्सलबाड़ी से नक्सल आंदोलन की शुरुआत हुई थी. शुरुआती दिनों में माओवादियों ने जमींदारों के खिलाफ यहां झंडे गाड़े और वे तारणहार के रूप में देखे गए. उसे भुनाने के लिए माओवादियों ने राजनीति के अखाड़े में भी अपना भाग्य आजमाया. पिछली बार विधानसभा चुनाव में करीब छह माओवादी मैदान में उतरे. पलामू में तो जेल में रहते हुए पूर्व माओवादी नेता कामेश्वर बैठा सांसद ही चुन लिए गए. गत दिसंबर में भी माओवादियों ने पलामू को दहलाकर संकेत दिया था कि अब उनका नया ठिकाना फिर यही इलाका बन रहा है. बीते तीन दिसंबर को चतरा सांसद इंदरसिंह नामधारी के काफिले पर भी पलामू के ही लातेहार इलाके में गारू के पास हमला हुआ था. नामधारी तो तब बच निकले थे लेकिन 11 जवानों की जान माओवादियों ने ले ली थी. ठीक दो दिन बाद यानी पांच दिसंबर को पलामू के ही हरिहरगंज थाने पर करीब 60 माओवादियों ने हमला करके 250 राउंड गोलियां चलाकर दहशत का माहौल बनाया था. इस बीच घोषित किए गए बंद में भंडरिया थाना के ही बोरदरी गांव के हाई स्कूल को भी माओवादियों ने केन बम लगाकर उड़ा दिया था.
हाल के दिनों में पलामू में माओवादियों की बढ़ती हलचल के बारे में जानकार बताते हैं कि पलामू एक ऐसा इलाका है जो बिहार, छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश की सीमा से लगता है. इसलिए माओवादियों को यहां अपनी गतिविधियां चलाने में आसानी होती है. उनके लिए घटना को अंजाम देकर भागना या छिपना आसान हो जाता है. पूरे पलामू की गरीबी और गरीबों की उपेक्षा भी इन्हें पनपने में खाद-पानी का काम करती रही है. स्थानीय पत्रकार आशीष कहते हैं, ‘हाल के दिनों में माओवादियों के कई बड़े नेताओं को या तो मार दिया गया है या पकड़कर जेल में डाल दिया गया है जिससे वे बैकफुट पर आ गए हैं.
अब वे अपनी ताकत का अहसास कराने के लिए ऐसी दहशत वाली घटनाओं को अंजाम दे रहे हैं ताकि पुलिस-प्रशासन और सरकार इनके खिलाफ चलाए जा रहे अभियानों पर विराम लगाए और आम जनता उनके खिलाफ कुछ न बोले.’ पलामू में रहने वाले राजनीतिक कार्यकर्ता शैलेंद्र कहते हैं, ‘यह सच है कि झारखंड के इलाके में पिछले कुछ समय में माओवादियों की ताकत थोड़ी घटी है. लेकिन उड़ीसा, छत्तीसगढ़ व अन्य राज्यों में इसका विस्तार हुआ है. जहां तक पलामू जोन की बात है तो यहां की जनता हमेशा माओवादियों का साथ देती रही है. इसका मुख्य कारण है इस इलाके में उनके द्वारा बनवाए गए कई चेक डैम, स्कूल व अन्य सामाजिक व सार्वजनिक उपयोग की चीजें. उत्पीड़ित महिलाओं व दलितों को भी उन्होंने अपनी अदालत लगाकर न्याय दिलवाया है.’नक्सल मामलों के जानकार फैसल अनुराग बताते हैं कि माओवाद का मुख्य मकसद उत्पीड़ित समाज को न्याय दिलाना ही रहा है. यह अलग मसला है कि बाद में इसमें कई खामियां और भटकाव देखने को मिलने लगे हैं.
पलामू की इस हालिया घटना के बाद सबसे ज्यादा भय पुलिस के जवानों में व्याप्त है. लगातार बढ़ती घटनाओं से उनके सामने संकट है और सुविधा के नाम पर अब भी उन्हें झारखंड में वे सुविधाएं मुहैया नहीं कराई जा सकी हैं जिनकी उन्हें जरूरत है. हालांकि राज्य पुलिस एसोसिएशन के अध्यक्ष सुनील कुमार कहते हैं कि माओवादियों की कायरतापूर्ण हरकतों से पुलिस का मनोबल नहीं टूटेगा. वे कहते हैं, ‘हम आगे भी लड़ाई जारी रखेंगे.’ सीआरपीएफ के महानिदेशक विजय कुमार तहलका से बातचीत में कहते हैं, ‘हम इससे डरने वाले नहीं हंै. हमने इलाके के आसपास घेरेबंदी करवा दी है और हम मुकाबला करेंगे.’
सीआरपीएफ के डीजी का इरादा हो सकता है लड़ने का हो लेकिन इस अर्धसैनिक बल के जवानों को अपनी सुरक्षा की चिंता सता रही है. एक जवान साफ कहते हैं कि उन्हें भेड़-बकरियों की तरह मरवाया जा रहा है. वे बताते हैं, ‘मेरे सारे साथी एक-एक कर मारे जा रहे हैं और हम हर पल इस डर के साथ जीते हैं कि कब बुलावा आएगा और कौन-सा दिन हमारे लिए आखिरी दिन होगा.’
इन सबके बीच झारखंड पुलिस के होश उड़े हुए हैं. झारखंड पुलिस के प्रवक्ता आरके मल्लिक कहते हैं कि यह माओवादियों की कायराना हरकत है. विडंबना यह है कि ऐसे वाक्य दोहराए जाते हैं और माओवादी बर्बर घटनाओं को अंजाम देते रहते हैं.
इस घटना के बाद उड़ीसा पुलिस ने संबलपुर इलाके से एक माओवादी गिरिश मोहंतो को पकड़ कर यह जताया है कि पुलिस सतर्क है. मोहंतो को 2007 में ही झारखंड पुलिस ने पकड़ा था, लेकिन पिछले साल वह चाईबासा जेल से फरार होने में सफल रहा था. अब इस माओवादी के पकड़े जाने से क्या होगा, यह किसी को पता नहीं. इससे पुलिस कुछ सफलता हासिल कर पाएगी या फिर गढ़वा की यह घटना भी माओवादी घटनाओं के इतिहास में एक और कड़ी की तरह दर्ज भर होकर रह जाएगी? सवाल के जवाब तो कई हैं पर साफ कोई भी नहीं.