पायलट की राह नहीं आसान

राजस्थान में सत्ता की दौड़ से धिक्कार के साथ धकेल दिये गये कांग्रेस नेता सचिन पायलट आज भी बाज़ नहीं आ रहे। अपनी मौजूदगी बनाये रखने के लिए हालिया अनशन और प्रदेश के गुर्जर बहुल इलाक़ों में अपनी शान बघारने के लिए वह कोई कसर नहीं छोड़ रहे। पायलट आख़िर में राजनीति-हित का अंतिम ब्रह्मास्त्र छोड़ते हुए अजमेर से जयपुर की पदयात्रा पर चले हैं। वह कभी कसमसाकर तो कभी गुर्राकर हरीश चौधरी और हेमाराम चौधरी सरीखे अपने शंकालु साथियों के साथ भ्रष्टाचार के आरोप लगाकर नोसिखियापन दिखा चुके हैं। मंचीय सभाओं में अपने तमाम सियासी मुनाफों को भी दाँव लगा चुके हैं, ताकि झूठे होने के कलंक से बच सकें। लेकिन कहीं-न-कहीं लंगड़ी खाकर फिर चारों खाने चित्त हो जाते हैं।

मुख्यमंत्री गहलोत कहते हैं- ‘मैं इससे पेरशान नहीं हूँ कि पायलट ने मुझसे झूठ बोला। मेरी दिक़्क़त यह है कि अब मैं उन पर भरोसा नहीं कर सकता। राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि झूठ एक बार किसी सियासतदान को छू लेता है, तो वो दागी हो जाता है। पिछले दिनों वसुंधरा राजे पर भ्रष्टाचार के आरोपों का मर्सिया पढऩे की ओट में अनशन का कोतुक करने वाले पायलट इस बार फिर दामन में दा$ग लगा बैठे। पार्टी का शीर्ष नेतृत्व इस कौतुक को नज़रअंदाज़ नहीं कर सका। नतीजतन पायलट अनुशासनहीनता के दलदल में फँस गये। राजनीतिक ताक़त के पैमाने पर पार्टी संगठन का कर्ता-धर्ता और अधिकारों के लिहाज़ से मुख्यमंत्री से ज़्यादा क़द्दावर होता है। पायलट सियासत का यह गूढ़ ज्ञान नहीं समझ पाये और बग़ावत का झंडालेकर मुट्ठी भर ‘कुर्सी चिपको’ समर्थकों के साथ मानेसर जाकर बैठ गये। पायलट का यह काफिला बहुत छोटा था; लेकिन प्रदेश की राजनीति में सबसे बड़ी दुर्घटना थी। पार्टी में जिस शख़्स की हैसियत शुभंकर की थी, अब सिर्फ़ कंकर बनकर रह गया था। पायलट ने जितना ख़म ठोंककर पानी में आग लगाने की कोशिश की थी, उसमें उनके ही अरमान भस्म हो गये।

सूत्रों की मानें, तो उनके परिवार के एक पितामह ने पायलट के सियासी ज्ञान पर हैरानी ज़ाहिर की थी। पायलट का कहना था- ‘मैं कुश्ती के खेल का महारथी हूँ। मौक़ा मिलते ही अपने प्रतिद्वंद्वी के पाँव खींच लूँगा। जबकि पितामह ने उनके कुतर्क की सोच पर खीझते हुए समझाया था कि राजनीति कबड्डी का खेल नहीं होता, बल्कि ख़ामोशी से सियासी दाँव-पेंच चलने पड़ते हैं। अगर कुश्ती के फेर में पड़ोगे, तो औंधे मुँह गिरोगे। आख़िर यही हुआ भी। सरकार में उप मुख्यमंत्री की शपथ लेने पर माननीय शब्द जोड़ा जाता है। राज्य की अखंडता और स्थिरता की शपथ लेने का अर्थ होता है- व्यापक हित में अपने स्वहित को न्योछावर कर देना। लेकिन पायलट ने अपनी महत्त्वाकांक्षा के आगे घुटने टेक दिये। इस शेर की तर्ज पर कि, ‘मैदान की हार-जीत तो $िकस्मत की बात है। टूटी है किसके हाथ में तलवार देखिए।।’

पता नहीं क्यों पायलट भूल गये कि भारतीय राजनीति एक वीभत्स बिजनेस मॉडल पर आधारित है और आज की तारीख़ में गहलोत उसके ब्रांड एंबेसडर हैं। राजनीति ही उनका कारोबार है, जो पूरी तरह संगठन और सरकार को बढ़ाते रहने में जुटे हैं। दिलचस्प बात है कि पायलट ने सरकार को फिटनेस का मंत्र देने की बजाय गहलोत का ताज गिराने का बीड़ा उठा लिया। विश्लेषकों का कहना है कि पायलट ने प्रधानमंत्री रहे वी.पी. सिंह का जुमला दोहरा दिया। वह कहते थे- ‘मैं एक रॉकेट की तरह हूँ, जो उपग्रह की परिक्रमा कक्ष में छोडऩे के बाद जलकर खाक हो जाता है।’ जानकार सूत्र कहते हैं कि राजस्थान की सत्ता का ताज पहनने के लिए जब जयपुर से दिल्ली की मैराथन दौड़ चल ही थी, दिवंगत विधायक भंवरलाल शर्मा की सीख उन्हें गुमराह कर गयी कि मौक़ा मिलते ही तुम गहलोत के नीचे से जाजम छीन लेना। लेकिन इस सीख पर अमल करना पायलट को कितना भारी पड़ा? कहने की ज़रूरत नहीं।

वरिष्ठ पत्रकार वैदिक सवाल करते हैं कि क्या आज तक किसी पार्टी के मुखिया ने अपनी ही सरकार गिराने की कोशिश की? वाच एंड वेट की इस फ़िज़ा में एक बात तो पूरी तरह स्पष्ट है कि ‘न तो गहलोत को मुख्यमंत्री पद से हटाया जा सकता है और न ही पायलट को मुख्यमंत्री का ताज सौंपा जा सकता है। विश्लेषक कहते हैं कि इस पूरे घमासान में गहलोत ने जिस जुस्तजू से सरकार को बचाये रखने की मशक़्क़त की, किसी तीसरे व्यक्ति की ताजपोशी सम्भव ही नहीं है। पायलट की लड़ाई विचारधारा की लड़ाई नहीं है। यह मुख्यमंत्री बनने की महत्त्वाकांक्षा में गले-गले तक डूबे एक ऐसे राजनेता की लड़ाई है, जो अपने उद्देश्य में व्यक्तिवादी टकराव की खाइयाँ खोद रहा है।

पायलट अपनी भड़ास निकालने का कोई अवसर नहीं चूकते। उनके विवादास्पद बयान इस बात की तस्दीक करते हैं। 2 अक्टूबर को गाँधी जयंती के मौक़े पर भी उन्होंने भावनाओं की हवा बाँधने में कसर नहीं छोड़ी। उन्होंने कहा था- ‘राजनीति में अपने मन की बात रखनी चाहिए। महात्मा गाँधी भी यही करते थे। महात्मा गाँधी विरोधियों को भी सम्मान देते थे। किन्तु आज की राजनीति में विरोधियों के साथ द्वेषपूर्ण व्यवहार किया जा रहा है।’ पायलट बराबर भाजपा को यह मौक़ा देते आ रहे हैं। क्या अब यह समझ लिया जाना चाहिए कि मुख्यमंत्री नहीं बन पाने से पायलट बहुत दु:खी हैं। वह इसे पचा नहीं पा रहे हैं। कुछ और तथ्य भी पायलट की पीड़ा की पुष्टि करते हैं। पिछले दिनों पायलट ने यह कहकर अपनी ही सरकार पर हमला किया कि राज्य में क़ानून-व्यवस्था की स्थिति ठीक नहीं है। गहलोत तीसरी बार राजस्थान के मुख्यमंत्री हैं। राजनीति के अनुभवी खिलाड़ी हैं। सन् 2008 में सी.पी. जोशी कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष थे। जोशी भले ही एक वोट से हार गये; लेकिन उन्होंने मैदान नहीं छोड़ा। सरकार के मुखिया के लिए जाट नेता शीशराम ओला ने भी धमक दिखायी। विधायकों की रायशुमारी की पर्चियाँ डाली गयीं, तो नाम गहलोत का ही निकला। सन् 1998 में कांग्रेस 153 सीटों के साथ अपने सबसे बड़े बहुमत से सत्ता में लौटी थी। उस समय जाट राजनीति के क़द्दावर नेता परसराम मदेरणा प्रदेश अध्यक्ष थे। विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता भी थे। तकरीबन तय हो चुका था कि मदेरणा मुख्यमंत्री बनेंगे। लेकिन जादू गहलोत का ही चला।

विश्लेषक कहते हैं कि आलाकमान का गहलोत पर भरोसा है। फिर गहलोत राजनीति का सबक़ गहनता से पढ़ चुके हैं कि यहाँ वो ज़्यादा महत्त्व की बात नहीं है, जो आप कर रहे हो। महत्त्व इस बात का है कि आपका जनता में मैसेज क्या जा रहा है? गुजरात और कर्नाटक में अपनी बड़ी भूमिका निभाकर गहलोत ने राहुल का विश्वास जीता। जहाँ तक सत्ता सन्तुलन का सवाल है, तो गहलोत को ब$खूबी साधना आता है। वहीं पायलट एक तर$फ सरकार दोहराने के लिए सत्ता और संगठन में तालमेल बैठाने की दुहाई दे रहे हैं, तो दूसरी तर$फ गहलोत पर भ्रष्टाचार को पनाह देने के आरोप लगा रहे हैं। हालाँकि राजस्थान कृषि बोर्ड के अध्यक्ष रामेश्वर डूडी इस अदावती खेल को छोटी-मोटी बात कहकर हवा में उड़ाते हैं। लेकिन गहलोत ने 7 मई को मानेसर कथा को बेपर्दा करते हुए कहा कि केंद्रीय मंत्री अमित शाह, धमेंद्र प्रधान और गजेंद्र सिंह शेखावत ने हमारी सकार को गिराने की साज़िश रची। लेकिन पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे, कैलाश मेघवाल पैसे के बूते चुनी हुई सरकार को गिराने के षड्यंत्र में शामिल होने से इन्कार कर दिया। गहलोत ने कहा कि रोहित बोहरा, चेतन डूडी और दानिश अबरार ने मुझे सही समय पर इसकी सूचना दे दी, नतीजतन एक बड़ी दुर्घटना को समय रहते इस भूचाल को रोक दिया। गहलोत ने यहाँ तक इस साज़िश को बेपर्दा किया कि बग़ावत पर आमादा विधायकों को 20-20 करोड़ दिये गये।

नहीं छूटती प्रपंच की राजनीति

प्रदेश कांग्रेस के सचिव राम सिंह कस्वां बड़ी बेबाकी से कहते हैं- ‘सचिन के साथ सबसे बड़ी दुविधा है कि वह अपने अतीत से भी सबक़ नहीं लेना चाहते। उन्होंने सियासत को नहीं समझा और ‘मैं’ ही सब कुछ के खाँचे में चिपके रहे। सचिन के लिए गहलोत की सोहबत से सीखने-समझने का बेहतरीन मौक़ा था, जो न सिर्फ़ राजनीति के एनसाइक्लोपीडिया हैं, बल्कि पूरी राजनीति उनमें समायी हुई है। उन्होंने इस बात को नहीं समझा कि राजनीति में लालच नहीं लय बनाये रखने से आगे की राह बनती है। लेकिन उन्होंने सल्तनत डिगाने के लिए तुगलकी राजनीति की राह पकड़ी। मानेसर के स$फर से लोटकर उन्हें गहलोत के साथ बग़ावत के संक्रमण को दूर करने की कोशिश की होती, तो शायद कहा जा सकता था कि सुबह का भूला शाम को घर लौट आये, तो उसे भूला नहीं कहा जाता। लेकिन उन्होंने तो $फासले पाटने के लिए दरारें डाल दीं।’

कस्वां कहते हैं कि सचिन की शख़्सियत में पूर्वाग्रह की संस्कृति रची बसी है। उनकी इच्छाशक्ति एक जुएबाज़ सरीखी उड़ान है, जिसका जोश हार के बाद भी उसी अनुपात में बढ़ता ही जाता है। अब जब सचिन केंद्रीय सुरक्षा बल की सुरक्षा में अजमेर से पैदल यात्रा निकाल रहे हैं, तो समझना क्या मुश्किल है कि उनकी राह अब कौन-सी है? ‘जमाने में अजी ऐसे कई नादान होते हैं। वहाँ ले जाते हैं कश्ती जहाँ तूफान होते हैं।।’ हर रोज़ कोई नित नया खटराग छेडऩा उनकी आदत में शुमार हो गया है। जब एक राजनेता भरोसा गँवा देता है, तो उससे ज़्यादा अकेला कोई नहीं होता।