पत्रकारिता की दो सच्चाइयाँ

शैलेंद्र कुमार ‘इंसान’

पत्रकारिता का स्तर जितनी तेज़ी से पिछले नौ वर्षों में गिरा है, वह दु:ख का विषय है। लम्बे समय तक जो आम समाज पत्रकारों को अपनी आवाज मानता रहा, आज पत्रकारिता के गिरते स्तर को देखते हुए वही आम समाज अब उन्हें काफ़ी हद तक नकारने लगा है। आज का अहम सवाल यह है कि लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ की गरिमा कैसे बचे? क्या छोटे-छोटे मीडिया संस्थानों के ईमानदार पत्रकार और सोशल मीडिया पर सक्रिय ईमानदार पत्रकार इस चौथे स्तंभ की गरिमा बचा सकेंगे?

एनडीटीवी को कैसे स्तरहीन किया गया हम सबने देखा ही है। बीबीसी (ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन) पर भी प्रधानमंत्री की डाक्यूमेंट्री को लेकर भी उसी तरह शिकंजा कसा जाना था; लेकिन इस मामले में बीबीसी ने दिल्ली के रोहिणी कोर्ट में साफ़ कह दिया कि सरकार को अधिकार नहीं है कि वह हेग कन्वेंशन के तहत उसके ख़िलाफ़ मानहानि का मुक़दमा चलाये। हेग कन्वेंशन में बीबीसी को जो अधिकार मिले हैं, उसके तहत भारत की अदालत उसके ख़िलाफ़ मानहानि का मुक़दमा नहीं चला सकती।

मुख्य सवाल यह है कि क्या भारत में मीडिया के गिरते स्तर के लिए सिर्फ़ चैनल ही ज़िम्मेदार हैं? इसी बार 3 मई को विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस के उपलक्ष्य में रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स (आरएसएफ) द्वारा जारी विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक 2023 यह बताते हैं कि भारत में सरकार का मीडिया के क्षेत्र में कितना प्रभावी दख़ल है। इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 180 देशों के इस सूचकांक में 36.62 अंक के साथ भारत 161वें स्थान पर है। वर्ष 2022 में भारत की रैंक 150 थी। वहीं 2014 में 120 थी। 2016 में भारत की रैंकिंग 133 पर चली गयी थी। इसका मतलब यह हुआ कि भारत पत्रकारिता की स्वतंत्रता के मामले में बहुत तेज़ी से पिछड़ा है, अर्थात् मीडिया के गोदी मीडिया होने में बढ़ोतरी हुई है, जिसके पीछे कॉरपोरेट सोच वाले मीडिया संस्थानों के मालिकों और पत्रकारों का लालच तो हैं ही, साथ ही सरकार का दबाव और अपना स्तुतिगान कराने की मंशा से भी इन्कार नहीं किया जा सकता।

अगर हम भारत के दो महत्त्वपूर्ण पड़ोसी देशों की बात करें, तो श्रीलंका की रैंकिंग इस साल 135 है, जबकि पाकिस्तान की 150 है। मतलब ये दोनों देश प्रेस स्वतंत्रता के मामले में भारत से कहीं बेहतर हैं। अगर यही हाल रहा तो कोई बड़ी बात नहीं कि आने वाले आधे दशक के अंदर भारत का मीडिया स्वतंत्रता के मामले में आख़िरी पायदान पर खड़ा दिखे।

इस गिरावट की वजह ईमानदार और निष्पक्ष पत्रकारों के ख़िलाफ़ बढ़ती हिंसा और पक्षपाती पत्रकारों के लिए राजनीतिक कोष के खुले दरवाज़े हैं। इसके साथ हीं कुलीन वर्गों द्वारा मीडिया आउटलेट्स का अधिग्रहण करना भी इसका एक कारण है, जो सत्ताधारी और बाहुबली नेताओं के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध बनाए रखने में रुचि रखता हैं। मीडिया के पतन का तीसरा और सबसे महत्त्वपूर्ण कारण है कॉरपोरेट घरानों की मीडिया में घुसपैठ, जिसे रोकना भारत में अब बिलकुल नामुमकिन हो गया है। रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स (आरएसएफ) ने तो यहाँ तक दावा किया है कि भारत में कई पत्रकार अत्यधिक दबाव के कारण ख़ुद को सेंसर करने के लिए मजबूर हैं।

तसल्ली की बात यह है कि भारतीय पत्रकारिता के इस तेज़ी से गिरते स्तर के बावजूद कई पत्रकार ऐसे हैं, जो सोशल मीडिया के माध्यम से निष्पक्ष पत्रकारिता कर रहे हैं और देश व समाज के मुद्दे लगातार उठा रहे हैं। कई मीडिया संस्थान भी अभी ऐसे बचे हैं, जिन्हें भले ही कोई सरकारी या ग़ैर-सरकारी विज्ञापन नहीं मिल रहा हो; लेकिन उन्होंने पत्रकारिता की गरिमा को ज़िन्दा रखे हुए है।

इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं कि आज की पत्रकारिता पर व्यावसायिकता हावी हो चुकी है; लेकिन अभी भी कई मीडिया संस्थान चलाने वालों की दिलचस्पी विशुद्ध पत्रकारिता में है। लेकिन फिर भी एक सवाल, जो और भी अहम है, वो यह है कि जो लाखों बच्चे देश में पत्रकारिता की पढ़ाई कर रहे हैं, उनका भविष्य कितना उज्ज्वल है? क्योंकि निजी फ़ायदे के लिए टीआरपी के खेल में फँसे अधिकतर मीडिया संस्थान ग़ुलामी और चाटुकारिता की पत्रकारिता की ओर अपने पत्रकार इंप्लाई को धकेल रहे हैं। सोशल मीडिया पर भी इसी तरह के लालची और पैसे की भूख से जुड़े पत्रकारों की एक भीड़ है, जो फेक न्यूज को बढ़ावा देने के लिए किसी भी हद तक चली जा रही है और पत्रकारिता का गला घोंट रही है, जिसका सीधा असर समाज पर तो पड़ रहा है, पत्रकारिता की छवि पर भी बहुत-ही बुरा पड़ रहा है। इसे सीधे शब्दों में कहा जाए, तो यही कहा जाएगा कि पत्रकारिता के सिद्धातों का पालन करने वालों की संख्या भारत में बहुत तेज़ी से घट रही है, जिससे लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ पर से लोगों का भरोसा उठता जा रहा है।

इन हालातों को बदलने में युवा पत्रकार अपनी भूमिका निभा सकते हैं, लेकिन इसके लिए शिक्षण संस्थानों से ही उनमें बदलाव की भावना भरने के साथ हीं उन्हें ईमानदार और निष्पक्ष पत्रकार बनाने की दिशा में शिक्षकों को अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी। क्योंकि देश को सही दिशा में ले जाने के लिए ईमानदार सरकारों के साथ ही पत्रकारों का ईमानदार होना बहुत ज़रूरी है। आज कुछ पत्रकार मीडिया को ग्लैमर की दुनिया का हिस्सा मानकर जिस तरह मोटी कमायी करने और अपनी धाक जमाने के लिए गाड़ी, बंगला और गाड़ी पर तथा घर की चौखट पर प्रेस अथवा पत्रकार लिखवाने के शौ$कीन हुए हैं, उसने उनके ज़मीर को मार दिया है और उन्हें मीडिया जैसे निष्पक्ष पेशे में एक लालची व्यापारी की तरह स्थापित किया है। लेकिन इसका नतीजा भी यह हुआ है कि जनता ने अभी तक कई ऐसे ही पत्रकारों पर हमले किये हैं और इस तरह के पत्रकारों की राष्ट्रीय ही नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय छवि भी बुरी तरह ख़राब हुई है। बड़े-बड़े मीडिया हाउसेज के इन पत्रकारों की अपेक्षा स्वतंत्र रूप से और छोटे संस्थानों में काम करने वाले निष्पक्ष पत्रकारों की छवि में सुधार देखा गया है। हालाँकि सरकारों द्वारा ऐसे निष्पक्ष और ईमानदार पत्रकारों के ख़िलाफ़ मुक़दमेबाज़ी और पुलिस कार्रवाई ने, अज्ञात लोगों के हमलों ने उन्हें भी डराने की कोशिश की है; लेकिन फिर भी कई पत्रकार ऐसे हैं, जिन्होंने बिना किसी से डरे अपनी निष्पक्ष पत्रकारिता को ज़िन्दा रखा है और एक सच्चे पत्रकार का धर्म निभाया है।

दूसरी ओर पत्रकारों की एक ऐसी जमात भी है, जो अवैध कारोबारियों से; भ्रष्ट अधिकारियों-कर्मचारियों से और यहाँ तक कि पुलिस तक से ह$फ्ता वसूली करने के काम में लगे हैं। ऐसे पत्रकार जनता के बीच निष्पक्ष और ईमानदार पत्रकारों की छवि को भी ख़राब कर रहे हैं। आजकल चैनलों पर ऐसे पत्रकारों की हर रोज़ अखाड़ेबाज़ी होती है, जिनमें कुछ को छोडक़र ज़्यादातर पक्षपात के शिकार होते हैं। ये लोग लिफ़ाफ़ों के लज़न के आधार पर ही अपना पक्ष रखते हैं और यहाँ तक ड्रामा करते हैं कि एक-दूसरे के साथ अभद्रता पर भी उतारू हो जाते हैं। प्रेस क्लब में बैठकर दिन भर गप्पे मारने वाले यही पत्रकार एक साथ चाय की चुस्कियों का लुत्फ़ उठाते हुए नज़र आ जाएँ, तो हैरान होने की ज़रूरत नहीं; क्योंकि इनका काम ही है लिफ़ाफ़ा देने वाले अपने-अपने पक्ष के नेताओं को ख़ुश करना। ये वही पत्रकार हैं, जो आदर्श पत्रकार होने की छवि बनाये रखने के लिए भी हर तरह की ड्रामेबाज़ी करते हैं।

पत्रकारिता जगत की इन विसंगतियों के बीच आज के दौर में पत्रकार बनना उतना ही मुश्किल है, जितना कि आज के दौर में ग़लत को ग़लत साबित करना। बहुत आसानी से साल-दो साल के भीतर ही एक नामचीन पत्रकार बनने के साथ ही बंगला और गाड़ी की भूख ने युवा पत्रकारों को भी बुरी तरह भटका रखा है। इस छवि को बदल भी यही युवा पत्रकार सकते हैं। लेकिन उन्हें इसके लिए समझना होगा कि अगर टैलेंट है, तो मीडिया संस्थानों में भी अच्छी सेलरी मिलती है, जिससे उनकी ज़िन्दगी आराम से गुज़र सकती है। अगर कहीं मौक़ा नहीं है, तो पत्रकारों के लिए सोशल मीडिया के दरवाज़े सहज ही खुल जाते हैं, जिसमें शुरू में सही दिशा में मेहनत करने पर एक अच्छी आमदनी हो सकती है और पत्रकारिता की आत्मा को ज़िन्दा रखने की ज़िम्मेदारी भी निभायी जा सकती है। बस एक ही बात ध्यान रखनी होगी कि निष्पक्ष और ईमानदार पत्रकारों से सरकारें भी डरती हैं और इसका हालिया सबसे बड़ा उदाहरण है रवीश कुमार।

ध्यातव्य हो कि 30 मई को पत्रकारिता दिवस है। ऐसे में सभी पत्रकारों को एक संकल्प लेने की ज़रूरत है कि भारतीय लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ को किसी भी हाल में ढहने नहीं देना है, भले ही कितना भी दबाव हो। मन से लालच निकालकर ख़ुद को बड़े स्तर पर स्थापित करने का सबसे अच्छा रास्ता आख़िर को निष्पक्षता और ईमानदारी का ही है। भले ही उसमें कुछ अड़चने शुरू शुरू में आनी तय हैं; लेकिन भविष्य ख़राब नहीं होगा।