वाकया काफी दिलचस्प है. एक टपोरी ने सज्जन को धमकाते हुए कहा, ‘दूं क्या खर्चा-पानी?’ सज्जन तपाक से बोले, ‘खर्चा दे न दे, बस पानी दे दे यार’. ये सुनते ही टपोरी के मनोबल पर घड़ों पानी पड़ गया. जाहिर है, उन सज्जन की हाजिर जवाबी के आगे टपोरी की धृष्टता पानी भरने लगी. मगर इतना पानी-पानी होने के बावजूद उन सज्जन की पानी की समस्या जस की तस रही. कबीर की उलटबांसी इसे नहीं तो किसे कहेंगे!
रंगहीन पानी कैसे-कैसे रंग दिखा रहा है. जब टोंटी से आता है तो आता है, मगर जब नहीं आता तब आती है, आती है, नानी की याद. इधर गर्मी अपने पूरे शबाब पर आई नहीं कि उधर सरकारी विभाग द्वारा कटौती का जाल फेंका गया. सरकारी नल शांत ऐसे जैसे जीवन रक्षक प्रणाली पर रखा मरीज.
सभ्यता की शुरुआत नदियों के कगार पर हुई, तो उसी सभ्यता के कारण अब नदियां विनाश के कगार पर हैं. यह बात पानीदार लोग बोतलबंद पानी पी-पीकर चेता रहे हैं. कैसा अद्भुत दृश्य है प्यारे! आज भगीरथ आएं तो शर्तिया उनके पैर कांप जाएं. यह देखकर कि उस भागीरथी को अपने सहजरूप से बहने के लिए भगीरथ प्रयास करना पड़ रहा है जिसे उन्होंने आकाश से उतारा था. तब भगीरथ ने गंगा को धरती पर लाकर अपने पुरखों को तार दिया था. आज यहां मात्र दो बूंद पानी के लिए ही भगीरथ प्रयास करना पड़ रहा है. पुरखों की कौन कहे, खुद ही तर जाए तो मोक्ष जानो!
जीनियस कह रहे हैं कि पानी के लिए तृतीय विश्व युद्ध होगा. और मैं मूढ़मति कह रहा हूं कि विश्व युद्ध तो बाद में होगा, उससे पहले पानी के लिए गृह युद्ध होगा. प्रेमियों की जगह पानी पर पहरे बिठाए जाएंगे. सास-बहू के झगडे़ नहीं, घर-घर पानी के लफडे़ होंगे. विलासितापूर्वक जीवन उसका कहा जाएगा जो शौच के बाद शौचालय में एक लोटा पानी डालेगा. ‘जीते रहो’ की जगह ‘पीते रहो’ का आशीर्वाद नौनिहालों को अपने बुजुर्गों से मिलेगा. पनघट पर गोपियां बोर होंगी और नंदलाल उनसे ज्यादा बोर होंगे. न गोपियां कपडे़ बदलेंगी न नंदलाल चुराएंगे. क्योंकि नदी तो सूखी होगी न!
अभी तक पानी बचाने के लिए सिर्फ पानी मथा गया है. जब आंखों का पानी मर गया हो तो ‘जल ही जीवन है’ जैसे स्लोगन से काम चलने वाला नहीं है. देश में ऐसे भी रत्न होंगे जो सिर्फ होली दर होली को चमकते होंगे. उन्हें खोजकर निकाला जाए और सार्वजनिक रूप से सम्मानित किया जाए. दीगर है, चुल्लू भर पानी में डूब मरने वाला आदमी नहाने के लिए पूरी टंकी खाली कर देता है.
अपनी सारी मेधा पेट्रोल का विकल्प तलाशने में भिड़ा रखने वाले आदमी को फिलहाल पानी का कोई विकल्प नजर नहीं आ रहा. उसे महसूस हो रहा कि उसकी स्थिति तो जल बिच मीन प्यासी जैसी होकर रह गई है. वह पूछ रहा है कि जब दाने-दाने पर खाने वाले का नाम लिखा है, तब बूंद-बूंद पर पीने वाले का नाम क्यों नहीं लिखा!
दरअसल, पानी की चिंता से ज्यादा चिंता, पानी के पीछे पानी की तरह पैसा बहाने को लेकर है. गुरू दिक्कत प्रबंधन की है, पानी की किल्लत की नहीं. यक्ष प्रश्न आदमी के गिरने का है, जल स्तर गिरने का नहीं. असल में, सूखा संवेदनाओं का है, पानी का नहीं. अब आदमी चाहे जितना भी गला फाडे़ कि पानी खत्म हो रहा, तो फाड़ता रहे. पानी पर लाठी मारने से पानी फटता है कहीं!
– अनूप मणि त्रिपाठी