नष्ट न होने दें मिट्टी की उर्वरा शक्ति

उर्वरक खादों और कीटनाशकों के ज़्यादा उपयोग से बंजर और कमज़ोर हो रही है कृषि भूमि

योगेश

जिस तरह से ग़लत खाना खाने से हमारा पेट ख़राब हो जाता है और पेट ख़राब व कमज़ोर होने पर पूरे शरीर में रोग लगने लगते हैं, उसी तरह से कृषि योग्य भूमि की ताक़त यानी मृदा उर्वरता कम होने पर फ़सलें ख़राब व कमज़ोर पैदा होती हैं। हमारे देश में जबसे यूरिया, डीएपी, फास्फोरस, जिंक, पोटाश, कीटनाशक, फर्टिलाइजर बीज खेती का हिस्सा बने हैं, हमारी कृषि भूमि कमज़ोर होने लगी है। आज देश में मृदा उर्वरता में गिरावट और कृषि भूमि में बढ़ती बंजरता किसानों के सामने एक बड़ी चुनौती है।

समस्या यह खड़ी हो गयी है कि किसान अपने खेतों में रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों, फर्टिलाइजर बीजों और शाकनाशियों का उपयोग बढ़ाते जा रहे हैं। अब हमारे किसानों के पास जैविक खाद नहीं हैं और न ही उनके पास देसी बीजों का भंडार है। मुश्किल से देश के 5-6 प्रतिशत किसानों के पास देसी बीज सुरक्षित हैं और जितनी जैविक खाद देश में होगी, उससे 10 प्रतिशत खेती भी नहीं हो सकेगी। उर्वरक खादों और कीटनाशकों के अत्यधिक उपयोग ने मिट्टी की गुणवत्ता को ख़राब किया है। खरपतवारनाशी दवाओं और कीटनाशकों के चलते खेती में उगने वाले खरपतवारों से मिलने वाली उर्वरता भी कृषि भूमि को नहीं मिल पा रही है। इससे पशुओं का चारा भी कम हुआ है। मृदा की उर्वरता कम होने से फ़सलों की उत्पादकता और गुणवत्ता दोनों कम हुई हैं। इससे हमारे स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ रहा है। मिट्टी का स्वास्थ्य का ख़राब होने से कृषि और लोगों का सतत् विकास प्रभावित हुआ है।

हमारे देश में कृषि आजीविका का मुख्य स्रोत है। देश में जनसंख्या बढऩे के हिसाब से हमारी कृषि पैदावार वैश्विक औसत पैदावार की तुलना में बेहद कम है। फ़सलों की पैदावार और मृदा उर्वरता के कम होने के मुख्य कारण ख़राब कृषि पद्धति, ख़राब उर्वरक, ख़राब कीटनाशक और ख़राब बीज हैं। इसके साथ ही कृषि भूमि पर कार्बन की जमती परत, प्रौद्योगिकी और सूचना तक किसानों की अपर्याप्त पहुँच, बुनियादी ढाँचे का कमज़ोर होना भी इसके कारण हैं। सूखा, बाढ़ और चक्रवात जैसी अत्यधिक मौसमी आपदाएँ भी मृदा उर्वरता को कम कर रही हैं।

मृदा की उर्वरता कम होने से ज़्यादा चिन्ता की बात यह है कि देश भर में कृषि क्षेत्र का बड़ा भूभाग अनुपजाऊ या बंजर हो रहा है। बंजर भूमि बढऩे के भी कई कारण हैं। बढ़ते शहरीकरण, भूमि में पानी की कमी, भूजल में बढ़ती क्षारीयता, सिंचाई के पानी की कमी, नहरों नदियों का सूखना और उनमें गंदगी बढऩा इसके मुख्य कारण हैं। मृदा की उर्वरता कम होने और कृषि भूमि को बंजर होने से बचाने के लिए सबसे पहले किसानों को आगे आना होगा। हमने कई किसानों से मृदा में कम होती उर्वरता को लेकर सवाल पूछे। लेकिन ज़्यादातर किसानों को तो मृदा उर्वरता का नाम ही नहीं पता, उन्हें इस बारे में बिलकुल भी जानकारी नहीं है। कई किसानों ने सवाल का अर्थ कुछ और ही समझते हुए अपनी समस्याएँ बतानी शुरू कर दीं।

साफ़ पता चलता है कि किसानों में जागरूकता और समझ की बहुत कमी है। जागरूकता की कमी और संसाधनों के अभाव के कारण किसान अपने खेतों की मिट्टी के कमज़ोर होने को नहीं समझ पा रहे हैं। उन्हें लगता है कि वे खाद की कमी से अच्छी फ़सल नहीं ले पा रहे हैं। इसलिए अच्छी फ़सल लेने के लिए वे कभी अपने खेतों में उर्वरक, डीएपी, जिंक, फास्फोरस, पोटाश डालते रहते हैं। किसानों में जागरूरता लाने और उनकी कृषि भूमि को बचाने के लिए कृषि मंत्रालय, कृषि विभागों और कृषि वैज्ञानिकों को उनकी मदद करनी चहिए। अगर इसी तरह से मृदा की उर्वरता गिरती रही, तो कृषि क्षेत्र और बुरी दशा में पहुँच जाएगा।

हमारे देश में भूमि के बंजर होने को लेकर हमारे शोधकर्ताओं ने दक्षिण भारत की उपजाऊ भूमि को लेकर 2011 से 2013 के बीच किये अपने अध्ययन के $खुलासे में सबको चौंका दिया है। शोधकर्ताओं के अनुसार, आंध्र प्रदेश में 14.35 प्रतिशत, कर्नाटक में 36.24 प्रतिशत और तेलंगाना में 31.40 प्रतिशत भूमि बंजर होती जा रही है। शोधकर्ताओं के अनुसार, पेड़-पौधों और जंगली वनस्पतियों का कम होना, भूक्षरण, कहीं पानी का अभाव, कहीं पानी की कमी आंध्र प्रदेश में भूमि के बंजर होने के कारण हैं। भूक्षरण, पेड़-पौधों और वनस्पतियों का कम होना और भूमि में लवणीकरण कर्नाटक में भूमि को बंजर बनाने के कारण निकले। यही सब कारण तेलंगाना की भूमि को बंजर बनाने के रहे। शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन के दौरान रिमोट सेंसिंग से मिले आँकड़ों के आधार पर इन तीनों प्रदेशों में बंजर होती जा रही भूमि की स्थिति दर्शाने के लिए कई मानचित्र तैयार किये। उन्होंने इन प्रदेशों की कृषि भूमि को बंजर होने से बचाने के लिए सुझाव भी दिये। लोगों को सलाह दी कि वे प्राकृतिक संसाधनों के साथ खिलवाड़ न करें और उन्हें बढ़ावा दें। भूमि का अत्यधिक दोहन न करें और मिट्टी के गुण-धर्म के अनुसार खेती करें। औद्योगीकरण और शहरीकरण को बढ़ावा न दें, पर्यावरण को सुधारने के लिए पेड़-पौधे लगाएँ और भूजल को दूषित न करें।

हमें सोचना होगा कि मृदा की उर्वरता लगातार घटते रहने से कृषि भूमि बंजर हो जाएगी। ऐसा होने से हमारे परिस्थितिकी तंत्र और आजीविका पर बुरा असर पड़ेगा, जिससे हमारा जीवन संकट में पड़ेगा। इसलिए जितनी जल्दी हो सके, हमें कृषि भूमि को उपजाऊ बनाने का प्रयास करना होगा। कृषि भूमि कहाँ पर सही है और कहाँ पर उसमें उर्वरता की कमी हो रही है, कहाँ पर कृषि भूमि बंजर हो चुकी है, यह जाँचने के लिए हमें पूरे देश में कृषि भूमि की समय-समय पर जाँच करनी होगी। मृदा की उर्वरता के मूल्यांकन के आधार पर उसमें सुधार के रास्ते अपनाने होंगे। किसानों को उचित कृषि शिक्षा देनी होगी कि वे अपने क्षेत्र की जलवायु, सिंचाई की उपलब्धता और फ़सलों की माँगों के हिसाब से खेती करें। इसके साथ ही किसानों के पास जिन संसाधनों की कमी है, उनकी उपलब्धता सुनिश्चित करनी होगी। इसके लिए कृषि मंत्रालय, कृषि विश्वविद्यालयों, कृषि विभागों को आगे आना होगा।

किसानों में मृदा की उर्वरता घटने की जानकारी के अभाव के चलते वे इसे नहीं समझते हैं। अब किसान अपने खेतों की मिट्टी की जाँच भी नहीं कराते हैं। जाँच करने पर उन्हें सलाह देने वाले कृषि जानकार उन उर्वरक खादों को खेतों में डालने की सलाह देते हैं, जो कृषि भूमि के लिए हानिकारक हैं। उत्तर भारत की कृषि भूमि अनाजों, फलों सब्ज़ियों, शर्करा फ़सलों, तिलहनों, दालों और औषधियों के लिए बहुत उपयोगी है। दक्षिण भरत की कृषि भूमि अनाजों, मसालों, फलों के लिए बहुत उपयोगी है। पश्चिम भारत की कृषि भूमि अनाजों, सब्ज़ियों, शर्करा फ़सलों और औषधियों के लिए बहुत उपयोगी है। पूर्व भारत की कृषि भूमि फलों, मेवों, औषधियों, सब्ज़ियों और जलस्रोतों के लिए बहुत उपयोगी है। हमारे पूरे देश में जितने खाद्यान्न पैदा होते हैं, उतने दुनिया में कहीं पैदा नहीं होते। लेकिन किसानों के पास कृषि ज्ञान की कमी और कृषि सम्बन्धी विभागों की नीरसता ने हमारी कृषि भूमि को ख़राब करने का काम किया है। हमारे देश में कहीं सिंचाई के पानी की अधिकता है। कहीं बाढ़ आती है, तो कहीं लगातार सूखा पड़ता है। सिंचाई के लिए देश के ज़्यादातर किसान आज भी मानसून पर निर्भर हैं। वर्षा, नदियों और नहरों के अलावा अन्य संसाधनों से सिंचाई करना किसानों के लिए बहुत महँगा पड़ता है। कृषि में बढ़ती लागत से भी किसानों का मनोबल टूटा रहता है। प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना का लाभ भी किसानों को नहीं मिल पा रहा है। इसी की तरह देश में कई सरकारी कृषि योजनाएँ ठंडे बस्ते में पड़ी रहती है। कृषि मंत्रालय का यह कर्तव्य है कि अपने अधीन विभागों को हमारे कृषि क्षेत्र को बचने के लिए आदेश दे और समय-समय पर उनसे रिपोर्ट की माँग करे। कृषि भूमि को बचाने के लिए केंद्र सरकार को एक उचित बजट पास करना चाहिए। राष्ट्रीय कृषि बाज़ारों और कृषि मेलों को बढ़ावा देना चाहिए। इन बाज़ारों और मेलों में किसानों को प्रशिक्षित करने वाले शिविर लगाने चाहिए। हमारे देश में फ़सलों की गिरती गुणवत्ता के चलते हमारे खाद्यान्नों की माँग कई देशों में नहीं है। इन देशों में जैविक खाद्यान्नों की माँग ही रहती है। मिलावटी और उर्वरक खाद्यान्न इन देशों में प्रतिबंधित है।

हमारे किसानों के पास यह एक अवसर है कि वे अपनी खेती को उर्वरक खादों, ख़तरनाक कीटनाशकों और फर्टिलाइजर बीजों से बचाएँ। इससे उनकी फ़सलों की माँग बढ़ेगी और उनके खेतों की मृदा उर्वरता भी बढ़ेगी। इसके लिए किसानों को फ़सल चक्र भी अपनाना होगा और पौधे भी लगाने होंगे। हमारे किसान सबसे बड़े पर्यावरण संरक्षक हैं; इसलिए सरकार को उनके हित में काम करना चहिए।