वोटर ही गारंटी

पाँच राज्यों के अहम चुनाव हो गये और भाजपा तीन राज्यों में अच्छी बढ़त के साथ जीत गयी। दक्षिण में अपनी पकड़ मज़बूत करते हुए कांग्रेस ने कर्नाटक के बाद तेलंगाना में भी अपना झंडा फहरा दिया और पूर्वोत्तर के मिजोरम में कांग्रेस और भाजपा दोनों की ही नहीं चली, जहाँ जनता ने क्षेत्रीय दल जेडपीएम पर भरोसा जताया। देश के लिहाज़ से देखें, तो यह चुनाव 60-40 से भाजपा के पक्ष में रहा। कह सकते हैं कि देश ने मिला-जुला जनादेश दिया है। इन चुनाव नतीजों से जो लोग यह संकेत निकाल रहे हैं कि 2024 का चुनाव दक्षिण और उत्तर भारत के बीच होगा, वे ग़लत साबित हो सकते हैं। पूरे देश के राजनीतिक परिदृश्य को गहराई से देखें, तो हाल के वर्षों में मोदी-शाह की जोड़ी ने अपनी राजनीति का एक ख़ास तरह का अपना इलाक़ा विकसित किया है, जहाँ भाजपा बहुत ताक़तवर है। लेकिन इसके बावजूद ज़मीनी हक़ीक़त यह है कि इस ख़ास इलाक़े के बाहर भाजपा भी अनगिनत चुनौतियाँ झेल रही है, जिनमें दक्षिण (तामिलनाडु आदि), पूर्वी तटीय क्षेत्र (आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, ओडिशा) के साथ-साथ पश्चिमी तटीय क्षेत्र (कर्नाटक, केरल) में वह हाशिये पर है। ऐसे में एक बहुत संगठित और रणनीति से बनाया विपक्षी गठबंधन भाजपा के लिए गम्भीर चुनौती पेश कर सकता है।

भाजपा का थिंक टैंक जानता है कि तीन राज्यों में उसकी बड़ी जीत 2024 में उसके पूरा लोकसभा चुनाव जीतने की गारंटी नहीं देती। इन तीन राज्यों की कमोवेश सभी सीटें तो उसने 2019 में भी जीती थीं। ऐसे में अधिकतम वह 2019 का नतीजा ही इन तीन राज्यों में दोहरा सकती है। अपनी मज़बूत भाषा और राजनीतिक चतुराई से हार को भी जीत जैसा बताने में माहिर प्रधानमंत्री मोदी ने इसलिए नतीजों की शाम अपने कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए बार-बार यह कहा- ‘इन नतीजों से साफ़ हो गया है कि देश की जनता भाजपा को चाहती है।’ मोदी का यह भाषण अपने कार्यकर्ताओं का हौसला बढ़ाने और विपक्ष, ख़ासकर कांग्रेस के कार्यकर्ताओं, का हौसला तोडऩे की एक मनोवैज्ञानिक कोशिश थी। कांग्रेस के कार्यकर्ता उनके इस जाल में फँसे होंगे, तो ज़रूर गहरी निराशा में गये होंगे; क्योंकि ख़ुद उसके नेतृत्व ने इस तरह का मनोवैज्ञानिक जवाबी हमला भाजपा पर नहीं किया।

देखें, तो सच यह है कि कुल पाँच राज्यों में से दो में भाजपा हारी है। इसलिए देश भर का जनादेश उसको नहीं मिला है; जैसा कि प्रधानमंत्री मोदी ने अपने भाषण में दावा किया था। हक़ीक़त यह है कि भाजपा के वर्चस्व को कांग्रेस ने अब दक्षिण में मज़बूत चुनौती दे दी है। आज दक्षिण भारत में भाजपा कहीं भी सत्ता में नहीं। लेकिन सिर्फ़ दक्षिण ही भाजपा की राजनीतिक चिन्ता में नहीं है। देश का राजनीतिक नक़्शा बताता है कि भाजपा आज भी 1980 के दशक वाली कांग्रेस की तरह पैन-इंडिया जनाधार वाली पार्टी नहीं बन पायी है। कुछ राज्य ऐसे हैं, जहाँ भाजपा का एक भी विधायक नहीं है। नहीं भूलना चाहिए कि देश में आज की तारीख़ में सिर्फ़ नौ राज्य ऐसे हैं, जहाँ भाजपा की अपने बहुमत वाली सरकार है। बाक़ी नौ राज्यों में उसकी सरकारें अन्य दलों के गठबंधनों के सहयोग से हैं। इनमें भी कुछ जगह उसकी अपनी सीटें नाममात्र की ही हैं।

तीन राज्यों में हार के बाद कांग्रेस के नेताओं ने ईवीएम की विश्वसनीयता पर सवाल उठाये; लेकिन इसके लिए गम्भीर देशव्यापी मुहिम चलाने या क़ानून के दरवाज़े पर दस्तक देने जैसी कोई बात नहीं की। विरोध यदि दिखावे भर का हो, तो जनता उस पर विश्वास नहीं करती। ईवीएम एक ऐसी मशीन है, जिसकी विश्वसनीयता पर सत्ता में आने से पहले सबसे ज़्यादा विरोध भाजपा का रहा है। पार्टी के दिग्गज नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने तो ईवीएम के इस्तेमाल को लोकतंत्र के लिए ख़तरा तक कहा था और बैलट पेपर से ही चुनाव की मज़बूत वकालत की थी। बहुत-से लोग अमेरिका जैसे आधुनिक तकनीक वाले देश का उदाहरण देते हैं, जहाँ आज भी ईवीएम से नहीं, बैलट पेपर से राष्ट्रपति का चुनाव होता है। देश में कई बड़े लोग मानते हैं कि यदि संदेह है, तो ईवीएम की जगह बैलट पेपर से चुनाव करवाने में क्या दिक़्क़त है? 

राजनीतिक गलियारों में चर्चा है कि जनवरी में अयोध्या में राम मंदिर का उद्घाटन होने के बाद भाजपा उसके असर को बनाये रखने के लिए अंतरिम बजट लाकर तय समय से एकाध महीने पहले चुनाव करवाने की कोशिश कर सकती है। अनुच्छेद-370 ख़त्म करने के मोदी सरकार के फ़ैसले पर सर्वोच्च न्यायालय की मुहर भी भाजपा को देश में राजनीतिक लाभ दे सकती है। ऐसे में 2024 में प्रधानमंत्री मोदी यह नारा दे सकते हैं कि यह उनका आख़िरी चुनाव है। लिहाज़ा जनता उन्हें एक और मौक़ा दे। राजनीतिक रूप से यह एक मज़बूत रणनीति होगी, जिसका सामना कांग्रेस के लिए सरल नहीं होगा। इसकी काट के लिए कांग्रेस को भी अपनी तरफ़ से जनता को कोई गारंटी देनी होगी। इंडिया गठबंधन का चेहरा अभी अस्पष्ट है। यदि यह गाठबंधन गति पकड़ता है, तो भाजपा को एक संगठित चुनौती दी जा सकती है। अन्यथा कांग्रेस के पास अकेले चुनाव में जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं होगा। ऐसा करके वह दक्षिण के राज्यों में तो कमाल कर सकती है; लेकिन हिन्दुत्व की पकड़ वाली मोदी-शाह की मज़बूत पट्टी में उसे दिक़्क़त आएगी।

इस परिदृश्य में भाजपा से मुक़ाबला करने के लिए विपक्ष को अब अपने इंडिया गठबंधन पर जल्दी और गहराई से काम करने की ज़रूरत है। निश्चित ही कांग्रेस उसकी अगुआ होगी और सभी दलों को अपने अहम छोडक़र सीटों का तालमेल करना होगा। इंडिया गठबंधन की 19 दिसंबर को दिल्ली में होने वाली बैठक में इस दिशा में काम हो सकता है। कांग्रेस के पास अवसर है कि वह हिम्मत दिखाए और कुछ बड़े फ़ैसले करे। उसके सभी सांसद चार महीने फील्ड में जाकर पार्टी को ज़मीन पर मज़बूत करने का काम करें। राहुल गाँधी के पास भी अवसर है कि वह ‘भारत जोड़ो’ की एक और यात्रा शुरू करके अधिकतर राज्यों में पार्टी कार्यकर्ताओं को सक्रिय कर दें। चार महीने चीज़ें बदलने के लिए कम नहीं होते। इसका सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि तीन राज्यों में हार की उसकी निराशा भी ख़त्म होगी और नयी ऊर्जा से पार्टी कार्यकर्ता आगे बढ़ पाएँगे।

यह चुनाव अपने आपमें काफ़ी विविधता लिये था। कांग्रेस ने सभी राज्यों- ख़ासकर राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में पूरी तरह अपने क्षेत्रीय क्षत्रपों अशोक गहलोत, कमलनाथ और भूपेश बघेल को आगे करके उन्हें पूरी छूट दी हुई थी। ये तीन नेता अपने हिसाब से सब चीज़ें तय कर रहे थे। मल्लिकार्जुन खडग़े, राहुल गाँधी और प्रियंका गाँधी ने तीनों राज्यों में चुनाव सभाएँ भले कीं; लेकिन उनका रोल यहीं तक सीमित रहा। कहा जा सकता है कि इन तीन राज्यों में कांग्रेस की हार दरअसल राहुल गाँधी या खडग़े की नहीं, इन तीन नेताओं की हार ज़्यादा है। वैसे ही, जैसे तेलंगाना में रेवंथ रेड्डी की कड़ी मेहनत कांग्रेस की बड़ी जीत का आधार है। भाजपा ने सिर्फ़ प्रधानमंत्री मोदी का चेहरा आगे रखा था और अपनी रणनीति के मुताबिक उसने बहुत चतुराई से जहाँ-जहाँ भी हो सकता था, धार्मिक ध्रुवीकरण का कार्ड भी खेला। भाजपा इस रणनीति में इन तीन राज्यों में विजयी रही। लेकिन प्रधानमंत्री मोदी का चेहरा आगे रखना भाजपा की एक और रणनीति का बड़ा हिस्सा था। इस रणनीति को अपनाकर भाजपा ने चुनाव के बाद अपने क्षेत्रीय क्षत्रपों के लिए मुख्यमंत्री पद की किसी भी दावेदारी का रास्ता भी बंद कर दिया। अर्थात् जीत के बाद मुख्यमंत्री तय करने की सारी ताक़त भाजपा नेतृत्व ने अपने हाथ में ले ली।

पाँच राज्यों के नतीजे ज़ाहिर करते हैं कि कांग्रेस ने कुल मिलाकर भाजपा से 10.5 लाख  से ज़्यादा वोट लिये। पार्टी ने छत्तीसगढ़ में 42.23, मध्य प्रदेश में 40.40 और राजस्थान में 39.53 फ़ीसदी वोट लिये, जो उसकी हार के बावजूद उसके जनाधार को दर्शाता है। लेकिन कांग्रेस को भाजपा के मुक़ाबले सिर्फ़ तेलंगाना में ही 59,78,281 वोट ज़्यादा मिले, जो दोनों दलों के बीच 10 लाख के अंतर का बड़ा कारण रहा। मध्य प्रदेश में भाजपा ने कांग्रेस से 35,44,615 वोट ज़्यादा लिये। छत्तीसगढ़ में भाजपा को कांग्रेस से सिर्फ़ 6,32,382 वोट ही ज़्यादा मिले, जो बड़ा अंतर नहीं है। राजस्थान में भी दोनों दलों के बीच सिर्फ़ 8,56,840 का ही अंतर है, जो पूरे राज्य के लिहाज़ से ज़्यादा नहीं है। मिजोरम में भाजपा से दो सीटें कम जीतने के बावजूद कांग्रेस ने उससे 1,10,589 वोट ज़्यादा लिये।

वोटों के इस गणित और विधानसभा बार कांग्रेस की बढ़त वाली लोकसभा सीटों को देखें, तो आज की तारीख़ में कांग्रेस के नेतृत्व वाले पुराने यूपीए को देश भर में 225 सीटों पर बढ़त है। ऐसे में कांग्रेस के लिए यह नतीजे उतने निराशा वाले नहीं हैं। लोकसभा में बेहतर रणनीति और जीत सकने वाली सीटों पर पूरी ताक़त झोंककर वह भाजपा को रक्षात्मक कर सकती है। यह चुनाव गारंटी वाले नेता के नारों से भरा रहा। मोदी की गारंटी, गहलोत और कांग्रेस की गारंटी आदि। लेकिन नेता की गारंटी राजनीतिक है। यह एक नारा हो सकता है। वोटर की गारंटी अपनी ज़रूरतों की पूर्ति और सत्ता के कामकाज पर हाँ या न की मुहर लगाने के लिए है। नेता अपनी तरफ़ से वोट की गारंटी भले मान ले; लेकिन वोटर की कोई गारंटी नहीं है कि वह किसके नाम पर मुहर लगाएगा। अंतिम फ़ैसला वोटर का है। क्योंकि वोटर लोकतंत्र का भगवान है!