उत्तर भारत की अधिकांश बारहमासी नदियों का उद्गम स्थल होने के बावजूद उत्तराखंड में गर्मी का मौसम शुरू होते ही पेयजल संकट पैदा हो गया है. इससे ग्रामीण के साथ-साथ शहरी इलाकों के लोग भी जूझ रहे हैं. देहरादून से महिपाल कुंवर की रिपोर्ट
पिछले साल पर्याप्त बारिश और बर्फबारी के बावजूद भी उत्तराखंड की कई बस्तियां बढ़ती गर्मी में पानी के लिए तरस रही हैं. उत्तराखंड उत्तर भारत की अधिकांश बारहमासी नदियों का उद्गम स्थल है. पहाड़ों से निकली इन नदियों का पानी दिल्ली से लेकर कोलकाता तक देश की आबादी के बड़े हिस्से की प्यास बुझाता है लेकिन हर साल पारा चढ़ते ही गंगा, यमुना, सरयू आदि नदियों के मायके के लोग पेयजल की समस्या से जूझने लगते हैं.
गढ़वाल जल संस्थान के अप्रैजल सचिव पी.सी. किमोठी के अनुसार राज्य के 63 नगरों और 39,000 गांवों में से अभी 27 नगर और 14,000 गांव पेयजल की समस्या से प्रभावित हैं. पर इन नगरों या गांवों में पेयजल ने संकट का रूप नहीं लिया है. राज्य सरकार के मानकों के अनुसार गर्मी में शहरों में प्रति व्यक्ति 135 लीटर और गांवों में 70 लीटर पानी दिया जाना चाहिए. राज्य के लोगों तक पानी पहुंचाने की जिम्मेदारी जल संस्थान पर है. प्रदेश की तकरीबन एक लाख किलोमीटर लंबी पेयजल लाइनों से 3.99 लाख बस्तियों तक पानी पहुंचाया जाता है. सरकारी मशीनरी के अनुसार इन बस्तियों में से 416 में पेयजल की किल्लत है. पेयजल किल्लत वाली इन बस्तियों में से कुमायूं के 142 ग्रामीण इलाके और 25 शहरी क्षेत्र के हैं. सरकारी दावों के हिसाब से गढ़वाल मंडल में 27 शहरों के अलावा 222 ग्रामीण इलाकों में पीने के पानी की समस्या है. किमोठी बताते हैं कि इन इलाकों में पानी की आपूर्ति टैंकरों पर निर्भर रखी गई है. आम जन को पानी की आपूर्ति के लिए राज्य में 58,476 स्टैंड पोस्ट और 8,078 हैंड पंप लगाए गए हैं. राज्य में 98 मिनी नलकूप और 490 संचालित नलकूप भी पेयजल आपूर्ति करते है.
गढ़वाल जल संस्थान के अप्रैजल सचिव पी.सी. किमोठी के अनुसार राज्य के 63 नगरों और 39,000 गांवों में से अभी 27 नगर और 14,000 गांव पेयजल की समस्या से प्रभावित हैं.
पेयजल मंत्री प्रकाश पंत के गृहक्षेत्र में भी पानी की समुचित आपूर्ति नहीं हो रही है. शहर में 11 मिलीयन लीटर प्रतिदन (एमएलडी) पानी की मांग है. शहर में 20 किलोमीटर लंबी घाट पंपिंग पेयजल योजना से केवल 5.9 एमएलडी पानी की आपूर्ति हो रही है. जिससे शहर में पानी की समस्या बढ़ रही है. पिथौरागढ़ जल संस्थान के अधिक्षण अभियंता डी.के. मिश्रा भी स्वीकारते हैं कि शहर में पानी की कमी है. मिश्रा बताते हैं कि लोगों को उनकी आवश्यकता के अनुसार पानी उपलब्ध नहीं हो पा रहा है. मिश्रा बताते हैं कि अब भी पिथौरागढ़ शहर और आस-पास के गांवों को 32 साल पुरानी घाट पंपिंग पेयजल योजना से पानी की आपूर्ति की जा रही है. शहर के निवासी वसंत वल्लभ भट्ट बताते हैं कि उस समय घाट पपिंग योजना एशिया की सबसे बड़ी पेयजल योजना थी लेकिन वह 32 साल पहले शहर के 30,000 लोगों के लिए बनी थी लेकिन अब आबादी 1.30 लाख हो गई है. इसलिए दिन-प्रतिदिन इस पहाड़ी कस्बे में पानी का संकट गहराता जा रहा है. वसंत वल्लभ भट्ट का आरोप है कि शहर के धनी होटल व्यवसायी सीधे पेयजल लाइन से हजारों लीटर के टैंक भरते हैं. जिस कारण पानी की कमी हो जाती है और शहर के आम लोगों को पानी नहीं मिल पा रहा है. भट्ट बताते हैं कि शहर की सीवर लाइनें लीक होने के कारण पारंपरिक धारे-नौलों का पानी भी अब पीने लायक नहीं रह गया है. भट्ट का मानना है कि आपूर्ति में कमी के बावजूद भी पिथौरागढ़ में पानी की यह कृत्रिम समस्या है. इसके लिए जल संस्थान, नेता और सरकार जिम्मेदार है.
मुख्यमंत्री के गृह जनपद के मुख्यालय और गढवाल मंडल के मुख्यालय पौड़ी शहर में पानी की समस्या चिरस्थाई है. पौड़ी में पानी की आपूर्ति के लिए श्रीनगर के निकट अलकनंदा नदी से पेयजल योजना चल रही है. जिस योजना पर जल संस्थान ने बीते कुछ दिनों पहले नए पंप भी लगाए. अपनी उम्र पार कर चुकी इस पंपिग योजना द्वारा श्रीनगर से 16 किलोमीटर ऊपर पौड़ी तक पानी चढ़ाना सरकार के लिए एक चुनौती है. इसलिए गर्मी तो क्या सर्दी में भी पौड़ी जिला मुख्यालय सहित आस-पास के गांवों में पानी का संकट छाया रहता है. जल संस्थान के अधिशासी अभियंता आर.के. रोहिला बताते हैं कि पौड़ी के नगर और ग्रामीण इलाकों में पानी की किल्लत को दूर करने के लिए एक नई योजना नानघाट गधेरे से बन रही है. जिसकी लागत 43.57 करोड़ है. पत्रकार संदीप गुसांई बताते हैं कि अब भी पौड़ी शहर में लोगों को तीन-तीन दिनों तक पानी का इंतजार करना पड़ता है. वे बताते हैं कि पौड़ी मुख्यालय में पानी की समस्या की शिकायत दर्ज कराने के लिए जल संस्थान ने एक नियंत्रण कक्ष खोला है. यहां बड़ी संख्या में हर रोज शिकायतें आ रही हैं. गुसांई बताते हैं कि पौड़ी बाजार और आसपास के लोग लक्ष्मी नारायण मंदिर के पास बने स्टैंड पोस्ट से कनस्तरों और डब्बों में पानी भर कर गुजारा कर रहे हैं तो होटल व्यवसायियों ने तो पानी लाने के लिए मजदूर लगा रखे हैं. आर.के. रोहिला सफाई देते हैं कि पौड़ी शहर में पानी की दिक्कत नहीं है लेकिन पानी की आपूर्ति जरूर कम है.
एशिया के सबसे बड़े टिहरी बांध की झील के आसपास के गांवों में भी पेयजल संकट छाया हुआ है.
पानी के स्रोत सूखने के कारण चंबा, गजा-चाका, पीपलडाली में पानी की किल्लत से लोग परेशान हैं. प्रताप नगर तहसील के कुड़ियाल गांव निवासी प्रदीप थलवाल बताते हैं कि रैका पट्टी और औण पट्टी के कई गांवों के हजारों लोग पानी की समस्या से जूझ रहे हैं. थलवाल का आरोप है कि जल संस्थान मनुष्यों तक को पीने का पानी ही नहीं दे पा रहा है फिर पशुओं की क्या बिसात. जल संस्थान टिहरी के अधिशासी अभियंता जी.बी. डिमरी भी स्वीकारते हैं कि जिले में सबसे अधिक पानी की समस्या प्रताप नगर ब्लॉक के गांवों में है. जहां साल भर जल संस्थान टैंकरों के माध्यम से पानी की आपूर्ति करता है. वे बताते हैं कि प्रताप नगर बाजार में 4,000 लीटर की क्षमता वाले टैंकर से दिन में चार बार जनता के लिए पानी की आपूर्ति की जा रही है. डिमरी बताते हैं कि नई टिहरी शहर में भी छह एमएलडी पानी की आवश्यकता है. पर आवश्यकता के अनुरूप अधिकांश जगहों पर पानी की आपूर्ति नहीं हो पा रही है.
महिला समाख्या चंपावत की जिला समन्वयक भगवती पांडे बताती हैं कि जिला मुख्यालय और लोहाघाट ब्लॉक में पानी की समस्या है. उनके अनुसार पानी की कमी होने से सबसे अधिक महिलाऐं प्रभावित होती हैं. जल संस्थान के स्टैंड पोस्टों पर पानी न आने से पहाड़ी क्षेत्रों में गांव की महिलाओं को कई किलोमीटर दूर प्राकृतिक स्रोतों से पानी लाने जाना पड़ता है. चंपावत के जल संस्थान के अधिशासी अभियंता पी.सी. करगेती बताते हैं कि पूरे जिले में 73 एमएलडी पानी की आवश्यकता है. जबकि आपूर्ति महज 44 एमएलडी ही है. इस वजह से चंपावत जिला मुख्यालय के आसपास और जिले के लोहाघाट ब्लॉक के कई गांवों में लोगों को पानी की समस्या से जूझना पड़ रहा है.
देहरादून जिले के 82 मोहल्लों में भी पेयजल संकट है. इनमें 36 कॉलोनियां शहरी और 46 ग्रामीण इलाके के हैं. इससे यही कहा जा सकता है कि प्रदेश की राजधानी भी पेयजल संकट से अछूती नहीं है. राजधानी देहरादून में मांग 190 एमएलडी पानी की है जबकि आपूर्ति 230 एमएलडी हो रही है. इसके बावजूद शहर की अधिकांश कॉलोनियों में रोज पानी की समस्या से लोग परेशान रहते हैं. रेस कोर्स के पार्षद गणेश डंगवाल का आरोप है कि जल संस्थान देहरादून को शहर में बिछी पेयजल लाइनों की सही स्थिति के बारे में पता ही नहीं है. जिससे कई किलोमीटर लंबी पेयजल लाइनें आए दिन रिसती रहती है. पिछले तीन सालों में देहरादून में पानी की आपूर्ति बढ़ाने के लिए 70 करोड़ रुपये विभिन्न योजनाओं पर खर्च किए गए.
देहरादून जिले के 82 मोहल्लों में भी पेयजल संकट है. इनमें 36 कॉलोनियां शहरी और 46 ग्रामीण इलाके के हैं. इससे यही कहा जा सकता है कि प्रदेश की राजधानी भी पेयजल संकट से अछूती नहीं है.
डंगवाल का आरोप है कि करोड़ो रुपये खर्च करने के बाद शुरू हुई अतिरिक्त जल आपूर्ति के प्रबंधन के लिए जल संस्थान ने कोई प्रयास नहीं किए हैं. जिस कारण नगर निगम के 60 वार्डों में से अधिकांश में पानी की समस्या बनी रहती है. जल संस्थान देहरादून के अधीक्षण अभियंता (नगर) एच.के. पांडे भी स्वीकारते हैं कि पानी का एक बड़ा हिस्सा रिसकर बर्बाद हो रहा है. जिससे पानी की आपूर्ति व्यवस्था चरमरा जाती है. राजधानी देहरादून की 70 साल पुरानी पेयजल लाइनों को बदलने का बीड़ा शहरी विकास निदेशालय ने उठाया है. इसके लिए विभाग ने शहर में तकरीबन 300 किलोमीटर लंबी पानी की लाइन बिछाने के लिए 80 करोड़ रुपये का प्रस्ताव सरकार को भेजा है.
उत्तराखंड के 3,550 वर्ग किलोमीटर से अधिक क्षेत्र में तकरीबन 917 ग्लेशियर हैं. इन्हें नदियों का उद्गम स्थल भी माना जाता है. इसके बाद भी जल स्रोत सूख रहे हैं. एचएनबी गढ़वाल केंद्रीय विश्वविद्यालय श्रीनगर के भू-गर्भ विभाग के विभागाध्यक्ष राजेन्द्र सिंह राणा बताते हैं, ‘भूकंप या विस्फोटों से पृथ्वी के भीतर के फॉल्ट खुल जाते हैं या बंद हो जाते हैं जिससे पानी का स्तर बदल जाता है और पानी जमीन के भीतर अपना रास्ता बदल देता है. यह भी पानी के स्रोतों के सूखने का एक बड़ा कारण है.’
उत्तराखंड सरकार कुछ सालों से परंपरागत कुओं, धारों, चाल-खालों और नौलों के संरक्षण की बात कर रही है लेकिन सरकारी अधिकारी यह जबाब नहीं दे पा रहे हैं कि सरकार कुल कितना धन इन परंपरागत स्रोतों के संवर्धन पर खर्च कर रही है. उत्तराखंड में पानी के परंपरागत स्रोतों को पुनर्जीवित करने में लगे सुरेश भाई का मानना है कि पाइप लाइनों से पहले पहाड़ो में परंरागत स्रोतों से ही पीने के पानी के साथ-साथ सिंचाई का पानी भी लिया जाता था. अब भी ऊंचाई के जिन ढालदार स्थानों पर कच्चे खालें बनाई गई हैं, वहां नीचे सूखे स्थानों पर फिर से पानी फूट पड़ा है. वे बताते हैं कि सच्चिदानन्द भारती की अगुवाई में पौड़ी के उफरैंखाल क्षेत्र में 8.9 हजार खालों को बनाने से वहां सूखी नदी में पानी फूट पड़ा है. काश सरकार भी इन सफल प्रयोगों से प्रेरणा लेती!