उपासना के तरीक़े, आडम्बर, प्रथाएँ, और रीतियाँ, ये सब धर्म नहीं हैं। ये पद्धतियाँ और उत्सवों के तरीक़े हैं। अज्ञानता यह है कि जिसने जिन पद्धतियों और उत्सवों को धारण कर लिया है, वह उन्हें धर्म समझने की भूल करने लगा है। और दुनिया में किताबी धर्मों के बन्धन में बँधे हुए अधिकतर लोग इसी भ्रम में पड़े हैं कि यही सब धर्म है। जबकि सच यह है कि असल धर्म को बिरले ही समझते हैं। असल धर्म का पालन करना आसान भी तो नहीं है। असल धर्म के कई रूप भी नहीं होते। वह तो एक ही है, जिसे मानवता अर्थात् इंसानियत कहते हैं। यही सही मायने में धर्म है, जो सबके लिए एक जैसे नियम बनाता है। और यह बहुत इसका पालन करना बहुत कठिन है। इस धर्म में स्वयं को दु:ख और दूसरों को सुख देना पड़ता है। दूसरों का स्पप्न में भी बुरा नहीं सोचा जा सकता। और अगर भूल से किसी का अहित हो जाए, तो उसके लिए क्षमा माँगते हुए प्रायश्चित करना पड़ता है। यह सब तथाकथित धर्मों के तथाकथित ठेकेदार ही नहीं करते, फिर साधारण लोग क्या करेंगे? इसलिए सब किताबों में बताये गये सरल धर्मों को मानते हैं। और उसमें भी जो बहुत आसानी से अमल में लाया जा सके, उसका पालन करते हैं। यही कारण है कि सभी धर्मों के अधिकतर लोग आडम्बरों में ही उलझे हुए दिखते हैं।
किसी शब्द, कर्म और प्रक्रिया का अर्थ और महत्त्व का पता न होने पर यही होता है। धर्म के मामले में भी यही हुआ है। दुनिया भर के लोगों की मान्यताओं वाले धर्मों में बढ़ते आडम्बरों, रीतियों, प्रथाओं और पाखण्ड के चलते लोग धर्म का अर्थ भी भूल चुके हैं। धर्म के निर्वहन का तरीक़ा भी भूल चुके हैं। इसीलिए किसी को अब धर्म का मर्म समझ में नहीं आता। आज दुनिया में बिरले ही लोग धर्म का सही मर्म पहचानते हैं। यही लोग धर्म के सही मार्ग पर हैं। ये लोग किसी की हत्या नहीं करते। किसी का बुरा नहीं सोचते। किसी का हिस्सा नहीं मारते। किसी के साथ अन्याय नहीं करते। किसी से जाति या धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं करते। सभी पर दया करते हैं। जीव-जन्तुओं पर भी इंसानों की तरह ही दयाभाव रखते हैं। अपनी मेहनत का फल दूसरों को देने में संकोच नहीं करते। ईमानदारी और सत्य के रास्ते पर चलते हैं। किसी की बुराई नहीं करते। सत्य में यदि आलोचना आवश्यक हो, तो डरते नहीं। चाहे सामने वाला राजा हो या गुण्डा। ताक़तवर हो या निर्बल।
आज ऐसे बिरले लोगों से पृथ्वी ख़ाली होती जा रही है। ऐसे असली धर्म के वाहकों की कमी होती जा रही है। इसलिए धरती पर अत्याचार, पाप, व्यभिचार, असम्मान बढ़ते जा रहे हैं और दया, प्यार, करुणा घटते जा रहे हैं। निर्बलों, असहायों के प्रति मदद की भावना समाप्त होती जा रही है। और यह तब तक नहीं हो सकता, जब तक लोग असली मानव धर्म को धारण नहीं करेंगे। असली धर्म के ये वाहक किसी भी कथित धर्म के हो सकते हैं। उन्हें जितना प्यार अपनों से होगा, उतना ही परायों से होगा।
ऐसे लोगों को उनकी वेशभूषा से नहीं, उनके व्यवहार से पहचाना जाता है। लोग क्यों नहीं समझते कि वेशभूषा, शरीर में ऊपरी बदलाव और उपासना पद्धतियाँ धर्म नहीं हैं। यह ठीक वैसे ही हैं, जैसे अपने-अपने ढंग से सभी जीवन जीते हैं; लेकिन जीते सभी जीवन ही हैं। खाना खाने का तरीक़ा सबका अलग-अलग है; लेकिन करते सभी भोजन ही हैं। कोई कैसी भी वेशभूषा धारण कर ले; लेकिन रहेगा इंसान ही। दुनिया में प्रचलन में जितने भी किताबी धर्म हैं, किसी ने धार्मिक दिखने के लिए कोई वेशभूषा या शारीरिक बनावट तय नहीं की है। पूजा पद्धतियाँ ज़रूर बतायी हैं। लेकिन हैं सब उस एक ईश्वर को पाने की कोशिशें ही। धीरे-धीरे इनमें विकृतियाँ आने लगीं। सब एक-दूसरे को जीवन जीने के तरीक़ों, वेशभूषा, शरीर की सजावट, संस्कृति, भाषा और खानपान के तौर-तरीक़ों से अलग-अलग मानने लगे और बँटने लगे।
लोगों के इस बँटने को मूर्खता नहीं कहेंगे, तो और क्या कहेंगे? क्या एक सभी को आपस में एक मानने के लिए एक धरती, एक सूरज, एक हवा, एक पानी, एक आकाश, एक ईश्वर काफ़ी नहीं है। फिर भी दुनिया में लोग क्षेत्रों, देशों, धर्मों, भाषाओं, विचारों और शिक्षाओं के आधार पर बँटे हुए हैं। इन बँटवारों के चलते जो भेदभाव लोगों के बीच बढ़ा है, वह ईर्ष्यापूर्ण है और सबसे ख़तरनाक होता जा रहा है। कहने को सभी धर्मों में दूसरों की मदद करने, किसी से घृर्णा न करने और परोपकार करने की बात कही गयी है। लेकिन सभी धर्मों के लोग इन शिक्षाओं से भटके हुए हैं और लड़ने-मरने पर आमादा हैं। फिर धर्म पर कौन है? इस सवाल का जवाब मानवता से भरे लोगों के बीच रहकर ही मिल सकता है। कथित धर्मों के नाम पर आडम्बर और पाखण्ड करने वालों के बीच तो कभी नहीं मिलेगा। मशहूर शायर अहमद फ़राज़ का एक शेर है-
‘ढूँढ उजड़े हुए लोगों में वफ़ा के मोती
ये ख़ज़ाने तुझे मुमकिन है ख़राबों में मिलें।’