यदि देश का नक्शा उठाया जाए तो हिंदीभाषी पट्टी के केंद्र में स्थित मध्य प्रदेश की चुनावी राजनीति का इतिहास काफी शांत और साफ-सुथरा माना जाता रहा है. किंतु बीते एक दशक से इस सूबे को ऐसी नजर लगी है कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी और बहुजन समाज पार्टी जैसे सभी प्रमुख दल यहां अब बाहुबल और धनबल के दलदल में धंसते जा रहे हैं. काबिले गौर है कि 25 नवंबर को संपन्न हुए विधानसभा चुनाव के मतदान के साथ ही यहां सभी उम्मीदवारों का भविष्य फिलहाल मतपेटियों में बंद हो चुका है. मगर इसी से जुड़ी एक बड़ी चिंता की बात यह है कि इनमें से करीब एक तिहाई उम्मीदवार ऐसे हैं जिन पर आपराधिक मामले दर्ज हैं. ध्यान देने वाली बात यह भी है कि 2008 के मुकाबले आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों की संख्या में इस बार अप्रत्याशित तरीके से इजाफा हुआ है.
मप्र का विधानसभा चुनाव इस मामले में अभूतपूर्व कहा जाएगा कि यहां इस बार कांग्रेस, भाजपा और बसपा द्वारा खड़े किए गए कुल 683 उम्मीदवारों में से 206 के खिलाफ आपराधिक प्रकरण दर्ज हैं. इनमें भी विशेष बात है कि 120 यानी करीब एक तिहाई उम्मीदवारों के खिलाफ तो हत्या, अपहरण और महिला-अपराध जैसे संगीन प्रकरण दर्ज हैं. इस मामले में जहां तक अलग-अलग दलों की स्थिति की बात है तो सूबे के विपक्षी दल कांग्रेस ने कुल 228 में से 91 यानी सबसे ज्यादा 40 प्रतिशत आपराधिक प्रवृत्ति के उम्मीदवारों को मैदान में उतारा. इसी तर्ज पर सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा ने 229 में से 61 यानी 27 प्रतिशत आपराधिक प्रवृत्ति के उम्मीदवारों को मौका दिया तो वहीं बसपा ने भी 226 में से 54 यानी 24 प्रतिशत दागियों पर अपना दांव आजमाया है. 2008 के विधानसभा चुनाव को देखें तो इन तीनों दलों के 170 यानी 25 प्रतिशत उम्मीदवार दागी थे. यदि तब और अब के चुनाव में खड़े दागी उम्मीदवारों की पृष्ठभूमि की पड़ताल की जाए तो इस मामले में कांग्रेस का ग्राफ 31 प्रतिशत से बढ़कर 40 प्रतिशत तक आ गया है. वहीं भाजपा का ग्राफ 22 प्रतिशत से बढ़कर 27 प्रतिशत और बसपा का 20 प्रतिशत से बढ़कर 24 प्रतिशत तक आ गया है. 2013 के चुनाव में करीब एक दर्जन उम्मीदवार ऐसे हैं जो किसी न किसी अपराध के चलते जेल की सजा तक काट चुके हैं. वहीं कांग्रेस के टिकट पर लड़ रहे ब्रजेंद्र सिंह (पृथ्वीपुर) और बसपा की टिकट पर चुनावी मैदान में सुखलाल प्रसाद (नागौद) सरीखे कई उम्मीदवार भी हैं जिनके ऊपर हत्या के प्रकरण चल रहे हैं. भाजपा के रुस्तम सिंह (मुरैना), बहादुर सिंह (मेहंदीपुर) और कांग्रेस के चौधरी गंभीर सिंह (चुरई) जैसे कई उम्मीदवारों पर महिलाओं के खिलाफ गंभीर अपराधों में लिप्त होने के आरोप हैं.
दूसरी तरफ, 2013 के विधानसभा चुनाव में करोड़पति उम्मीदवारों की तादाद भी बीते चुनाव के मुकाबले करीब दुगनी हो गई है. इस बार तीनों प्रमुख दलों के कुल 683 उम्मीदवारों में से 350 यानी आधे से अधिक उम्मीदवार करोड़पति हैं. जबकि 2008 में तीनों दलों के 639 उम्मीदवारों में से 184 उम्मीदवार करोड़पति थे. तब इन प्रत्याशियों की औसत संपत्ति 1.07 करोड़ रुपये प्रति उम्मीदवार थी. दिलचस्प है कि अब इनकी औसत संपत्ति बढ़कर 3.38 करोड़ रुपये प्रति उम्मीदवार हो चुकी है और इस बार इसका असर भी चुनाव में देखा गया. मध्य प्रदेश में दर्जनों जगह खुलेआम मतदाताओं को नोट बांटने की बात सामने आई. भाजपा सरकार में उद्योगमंत्री कैलाश विजयवर्गीय द्वारा अपने चुनावक्षेत्र महू में नोट बांटने की बात तो राष्ट्रीय स्तर तक सुर्खियों में रही है.
वरिष्ठ पत्रकार विजयदत्त श्रीधर मप्र की राजनीति के बलपिशाच और धनपिशाच की गिरफ्त में आने की वजह बताते हुए कहते हैं कि बीते कई सालों के दौरान राजनीति अब लाभ का धंधा बन चुकी है. चुनाव जीतकर अब कई कारोबारी उत्खनन, निर्माण और परिवहन में काली कमाई कर रहे हैं. श्रीधर के मुताबिक, ‘मप्र की राजनीति में चंदे का धंधा इस हद तक हावी हो गया है कि कभी स्वाभाविक रूप से आगे बढ़ने वाले राजनीतिक कार्यकर्ताओं का रास्ता अब बंद हो गया है.’ दूसरी तरफ, कांग्रेस के प्रदेश उपाध्यक्ष रामेश्वर नीखरा का मानना है कि उनकी पार्टी ने नेक लोगों को ही प्रत्याशी बनाया है. उनके मुताबिक, ‘अपराध सिद्ध हुए बिना किसी को साफ-सुथरा न कहना ठीक नहीं है.’ वहीं भाजपा इस बात पर खुश है कि कांग्रेस के मुकाबले उसने दागी नेताओं का कम तवज्जो दी है. भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष प्रभात झा के मुताबिक, ‘अपराधियों को शरण देने के मामले में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी है.’ लेकिन आरोप-प्रत्यारोप के बीच यह सवाल अहम है कि धनबल और बाहुबल की बैसाखियों के सहारे आगे बढ़ने वाले दल कहीं मप्र के राजनीतिक हितों पर डाका न डाल दें.