अयोध्या में राम मंदिर बने या न बन पाए लेकिन देश में इसका खासा असर तो रहा। आज़ादी के बाद ही देश की अपनी प्राचीन संस्कृति और गौरव को बचाने की चाहत बढ़ी। यह चाहत धीरे-धीरे देश के विभिन्न हिस्सों में अपनी पकड़ मज़बूत करती गई। यह पकड़ धीरे-धीरे चुनौती देने की स्थिति में आ गई। जाने कितनों ने बड़ी खामोशी से अयोध्या में युद्ध के की प्रक्रिया जारी रखी और एक दिन वह ढांचा टूट गया जो भारत में विदेशी आक्रामण की याद दिलाता था।
आज़ाद भारत में ढांचे का टूटना भी सदियों से अयोध्या में लगातार चलते रहे युद्धों का समाज में प्रथम महासंग्राम था। यह महासंग्राम निश्चय था समाज में परिवर्तन का। यह एक कोशिश थी बदलाव की। बदलाव हुआ भी।
आधुनिक हिंदी के प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह ने ‘युद्ध में अयोध्या’ और ‘आयोध्या का चश्मदीद’ पुस्तकों की कड़ी को राम और जन्मभूमि पर प्रामाणिक पुस्तक माना है। उन्होंने तो यह तक लिखा ‘भगवान राम अयोध्या में रहे लेकिन उन्हें आम लोगों तक काशी (बनारस या वाराणसी का प्राचीन नाम) ने पहुंचाया। तुलसीदास ने काशी में रामचरित मानस रची और अब पांच सौ साल से भी ज्य़ादा समय के बाद बनारस के ही लेखक हेमंत शर्मा की ये पुस्तकें आई हैं।’
आधुनिक पत्रकारिता को इतिहास जैसा महत्व देने के लिए मशहूर पत्रकार हेमंत शर्मा ने शहर अयोध्या को उसके प्राचीन गौरव के साथ जहां तलाशा है, वहीं आधुनिक अयोध्या की एक पहचान रही तीन गुबंदों के खिलाफ चले महासंग्राम को महाभारत के संजय की तरह वह युद्धभूमि में मौजूद रह कर पूरे महासंग्राम का चश्मदीद बन कर अपनी तब की रिपोर्टिंग से वह पेशेवर तेज दिखाया है जो तब की ‘जनसत्ता’ में छपा था।
तब ‘जनसत्ता’ के संपादक थे दिग्गज पत्रकार प्रभाष जोशी। यहां यह बताना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि तब अयोध्या में हुए महासंग्राम की रिपोर्टिंग तटस्थता, गुणवत्ता और सच्चाई के साथ दूसरे कई अखबारों ने तब नहीं की। जिस पर प्रेस आयोग ने आपत्ति जताई।
लेकिन ऐसा कोई आक्षेप तब की ‘जनसत्ता’ पर नहीं लगा।
‘युद्ध में अयोध्या’ और ‘अयोध्या का चश्मदीद’ दोनों ही किताबें पहली नज़र में आपको देखने और पढऩे के लिए बेबस कर देती हैं। आप भी इन्हें देखें और पढ़ डालें। खूबसूरत छपाई, ढेरों चित्र और पूरी प्रस्तुति बेहद बढिय़ा है।