जीतने की आदत होना भी ज़रूरी है

सिंधू की विश्व बैडमिंटन चैंपियनशिप के फाइनल में हार पर सवाल उठने और उस पर चर्चा होना स्वाभाविक है। यह भी कहा जाता है कि हार और जीत तो खेल का हिस्सा है। इसे खेल भावना के हिसाब से लेना चाहिए। यह बात बहुत हद तक सही है। यह भी सही है कि पुसारला वेंकेट सिंधू पिछले कई सालों से देश के लिए पदक जीतती आ रही है। अब तक वह विश्व चैंपियनशिप में दो रजत, दो कांस्य जीत चुकी है। इसके अलावा उसके नाम एक ओलंपिक रजत पदक भी है। बैडमिंटन के कुछ जानकारों का कहना है कि सिंधू की यह उपलब्धि कम नहीं है। वह पिछले पांच साल से लगातार सभी प्रतियोगिताओं के सेमीफाइनल या फाइनल में खेल रही है। इन लोगों को इस बात पर ऐतराज है कि सिंधू के ‘फैन’ और आम आदमी सिंधू की आलोचना करने में लग गए हैं। यह आलोचना नहीं होनी चाहिए। उनके अनुसार सिंधू अगर लगातार अपनी फार्म को बरकरार रख कर ऐसा ही प्रदर्शन करती रहती है तो एक समय वह खिताब भी जीतने लगेगी।

यह बात बहुत हद तक सही हो सकती है पर पूर्णतया सही नहीं है। यदि समय के अनुसार देखा जाए तो यह देखा गया है कि समय के साथ चलते हुए भी खिलाडी एक समय अपनी सर्वश्रेष्ठ फार्म में होता है। बैडमिंटन जैसे खेल में यह फार्म ज़्यादा समय तक बरकरार नहीं रहती। सायना नेहवाल इसकी मिसाल है। राष्ट्रमंडल खेलों में स्वर्ण पदक और ओलंपिक में कांस्य पदक जीतने के बाद वह कोई बहुत बड़ा परिणाम नहीं दे पाई।

बात फाइनल की

इस बात पर प्रश्न उठ रहे हैं कि क्या सिंधू जैसी खिलाडी के प्रशिक्षण में कहीं कोई कमी है? क्या वह मानसिक तौर पर उस स्तर पर नहीं है जिसकी ज़रूरत विश्व स्तर का टूर्नामेंट जीतने के लिए होती है? प्रतिभा और खेल के स्तर के हिसाब से देखें तो सिंधू को नेहवाल से बेहतर खिलाड़ी माना जाता है। इसमें कोई संदेह भी नहीं है। जब सिंधू और नेहवाल का मुकाबला पहले, दूसरे या तीसरे दौर के मैचों में होता है तो जीत सिंधू की होती है लेकिन जब टक्कर फाइनल में होती तो जीत नेहवाल की होती है। राष्ट्रमंडल खेलों के फाइनल में यही हुआ और देश की राष्ट्रीय चैंपियनशिप में भी ऐसा ही परिणाम सामने आया। गोल्डकोस्ट राष्ट्रमंडल खेलों के सेमीफाइनल में सिंधू ने कनाडा की मिशेल को 21-18, 21-8 से परास्त किया जबकि नेहवाल को स्कॉटलैंड की क्रिस्टी गिलमोर को 21-14, 18-21, 21-17 से हराने में एडी चोटी का ज़ोर लगाना पड़ा। पर फाइनल में सायना नेहवाल ने सिंधू को सीधी गेम में 21-18, 23-21 से परास्त कर दिया। जहां तक राष्ट्रमंडल प्रतियोगिता की बात है तो उसमें भी सायना ने सीधी गेमों में 21-17, 27-25 से पराजित किया।

इससे यह बात साबित होती है कि सिंधू फाइनल का दवाब नहीं ले पाती। फिर वह फाइनल चाहे सायना के खिलाफ हो या कैलोरिना मारिन के खिलाफ या फिर जापान की यामागुच्ची सामने हो। यही खिलाडी यदि उसे फाइनल के अलावा किसी और दौर में मिलें तो पूरी संभावना है कि सिंधू जीते।

जीतने की आदत

इन हालात में पंडितों का यह कहना कि सिंधू वक्त के साथ जीतने लगेगी, कोई मायने नहीं रखता। खेल मनोचिकित्सकों की राय में जीतने की भी एक आदत होती है। मारिन चाहे छोटे टूर्नामेंटस में हराती रहे लेकिन वह विश्व चैपिंयनशिप या ओलंपिक में मानसिक तौर पर इतनी मज़बूत हो कर आती है कि उसे फाइनल में हरा पाना किसी भी कमज़ोर दिमाग के खिलाडी के लिए संभव नहीं। रियो में वह पहला गेम 19-21 से हारने के बाद भी दूसरी गेम 21-12, 21-15 से जीत कर स्वर्ण पदक ले गई। दूसरी और सिंधू को लें तो वह विश्व चैंपियनशिप में पहली गेम में 14-9 की और बाद में 15-11 की बढ़त लेने के बाद भी कभी चैंपियन की तरह नहीं खेली। इससे ऐसा लगने लगा था कि शायद वह जीतने के लिए मानसिक रूप से तैयार ही नहीं है। यह दूसरी गेम में सही साबित हो गई। देखा जाए तो सिंधू ने दूसरी गेम तो शुरू होते ही 0-5 से पिछड कर खो दी थी। उसके बाद तो औपचारिकता ही नजऱ आई। बात चाहे कुछ लोगों को पसंद आए या नहीं लेकिन यह सही है कि यदि सिंधू को मानसिक रूप से जीतने के लिए तैयार करने में हमारे प्रशिक्षक और मनोविज्ञानी सफल नहीं होते तो देश के लिए स्वर्ण पदक आना संभव नहीं। बात सिर्फ बैडमिंटन की नहीं, बाकी खेलों की भी यदि स्वर्ण पदक पाना है तो जीतने की आदत डालना ज़रूरी है।