अनंत काल की उड़ान के लिए यायावर मन

मनुष्य यात्राएँ क्यों करता है! क्या स्वभाव से यायावरी उसके भीतर है? अथवा कुछ नया जानने की जिज्ञासा उसे सुदूर देशों की यात्रा के लिए प्रेरित करती रहती है? चरैवति-चरैवति का सिद्धांत पहली बार पैर का अहसास होते ही क्षण भर भी न बैठने के लिए उत्सुक बालक के भीतर देखा जा सकता है जो अपनी यात्रा का गंतव्य नहीं जानता पर चलना चाहता है-निरंतर! ऐसा ही भाव कुछ उन कलमकारों के भीतर जरूर पैदा हुआ होगा जिन्होंने अनंत यात्राएँ की-आँख खोलकर, मन की आँख जो सब देख सकती है, शिव की तरह! सोचिए कि वास्को डी गामा यात्रानुमा खोज पर न निकला होता तो हमारी पहचान क्योंकर हमसे हो पाती! या ऐसी ही यात्राएँ मैगास्थानीज ने चन्द्रगुप्त के राज्य में न की होती या ह्वेनसांग भारत न आता या कुमारजीव चीन न जाते तो कितना ही ज्ञान-संवेदना का सागर सूखा ही रह जाता! ‘जिन खोजा तिन पाईया गहरे पानी पैठ’ कहना बिना अनुभव के तो संभव नहीं हुआ होगा। अलेक्जेंडर पोप ने कहा था ‘जिसने केवल घर देखा है उसने संसार की किताब का केवल पहला पन्ना पढ़ा है, बाकी पूरी पुस्तक अभी पलटनी बाकी है’

मेघदूत लिखने वाला कवि कितना बड़ा घुमक्कड़ होगा, इसकी केवल कल्पना ही की जा सकती है। मेघ के बहाने रामगिरी पर्वत से लेकर अल्कापुरी तक की यात्रा क्या मेघ और यक्ष ही कर रहे थे? कवि कालिदास साथ नहीं दिखे? पाठक रम्य होकर अल्कापुरी तक पहुँच जाता है और सारी यात्रा एक सुखद रोमांच में तब्दील हो जाती है।

साहित्य की परिधि में यात्रा कभी वृत्तांत बनकर आई, तो कभी घुमक्कड़ी का शास्त्र बनकर! कभी यात्रा संस्मरण लिखे गए तो कभी यात्रा ललित निबन्ध का रूप लेकर आई। रूखे- सूखे वृतांतों में यात्रा एक विवरण रिपोर्ट नुमा आलेख भर होकर ही रह गई वहीं काव्य और रहस्य के बादलों के भीतर उतरे पाठक के लिए गहन जीवनानुभव भी बनी।

आधुनिक काल में भारतेंदु युग में गद्य की शुरुआत होती है। गद्य के आरम्भ के साथ ही यात्राओं का रोचक विवरण इसी काल से मिलने लगता है। बनारसी दास जैन की आत्मकथा ‘अर्धकथानक’ को किसी अर्थ में यात्रावृत्त भी समझना चाहिए। व्यापार के सिलसिले में देश भर की यात्राएँ करने वाले जैन साहब ने चोरों के साथ यात्रा के अपने अनुभवों को बड़ी रोचकता से पिरोया है। भारतेंदु युग में तीर्थाटन से जुड़े अनुभव ही यात्रा साहित्य के रूप में रचे गए। भारतेंदु के 5 यात्रा वृत्तांत कवि वचन सुधा में 1871 के आसपास प्रकाशित हुए। ये सभी हरिद्वार, लखनऊ, सरयूपार, वैद्यनाथ की यात्रा पर आधारित थे। इस काल में तीर्थ स्थान से लेकर विदेश यात्राओं से जुड़े अनुभवों को यात्रा वृत्त के रूप में लिखा गया। 1883 में प्रकाशित ‘मेरी लंदन यात्रा’ को पहला यात्रा वृत्तांत माना गया। द्विवेदी युग में महावीर प्रसाद द्विवेदी ने उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुव यात्रा तथा ठाकुर गदाधर सिंह ने चीन यात्रा (चीन में तेरह मास) पर यात्रा विवरण प्रस्तुत किए। सत्यदेव परिव्राजक इस युग के प्रमुख यात्रा साहित्यकार हैं।

यात्रा साहित्य का वास्तविक स्वरूप राहुल जी के आने से निर्मित होता है। राहुल सांकृत्यायन ने घुमक्कड़ी पर पूरा शास्त्र लिखा जिसे पढ़कर वास्तव में महाभिनिष्क्रमण के लिए तरुण एवं तरुणियाँ निकल पड़े। सचमुच पूरा शास्त्र है- किस उम्र में घर छोडऩा चाहिए, किस श्रेणी के घुमक्कड़ के लिए क्या जानना आवश्यक है, माता की भूमिका, पिता की भूमिका, पति पत्नी की भूमिका, स्वयं घुमक्कड़ का संतुलन और जिज्ञासा का मेल सभी पर अत्यंत विस्तार से राहुल जी बात करते हैं ‘कौन समय है जबकि तरुण को महाभिनिष्क्रमण करना चाहिए? मैं समझता हूँ इसके लिए कम-से-कम आयु 16-18 की होनी चाहिए और कम-से-कम पढऩे की योग्यता मैट्रिक या उसके आसपास वाली दूसरी तरह की पढ़ाई। मैट्रिक से मेरा मतलब खास परीक्षा से नहीं है, बल्कि उतना पढऩे में जितना साधारण साहित्य, इतिहास, भूगोल गणित का ज्ञान होता है, घुमकक्ड़ी के लिए वह अल्पतम आवश्यक ज्ञान है। मैं चाहता हूँ कि एक बार चल देने पर फिर आदमी को बीच में मामूली ज्ञान के अर्जन की फिक्र में रुकना नहीं पड़े।’ (घुमक्कड़ शास्त्र)

उनके घुमक्कड़ धर्म की खासियत है- कि वह किसी जाति-धर्म-वर्ण भेद को नहीं मानता, समदर्शिता और आत्मीयता का व्यवहार सिखाता है, काव्य रस के समान आह्लादकारी है, आत्मसम्मान सिखाता है, शारीरिक श्रम पर बल देता है, प्राथमिक चिकित्सा का ज्ञान रखने पर बल देता है तथा बेहतर आदमी होना सिखाता है। राहुल जी की लद्दाख यात्रा, तिब्बत यात्रा, यूरोप यात्रा, एशिया के दुर्गम भूखंडों में एवं ऐसी ही अनेक यात्राओं के उनके अनुभव यात्रा संसार से ही परिचय नहीं कराते बल्कि स्वधर्म की पहचान के लिए भी प्रेरित करते हैं। उनकी यात्राएँ केवल पुरुषों के लिए ई नहीं बल्कि समान रूप से स्त्रियों के लिए भी हैं ‘स्त्रियों को घुमक्कडी के लिए प्रोत्सांहित करने पर कितने ही भाई मुझसे नाराज होंगे, और इस पथ की पथिका तरुणियों से तो और भी। लेकिन जो तरुणी मनस्विनी और कार्यार्थिनी है, वह इसकी परवाह नहीं करेगी, यह मुझे विश्वास है। उसे इन पीले पत्तों की बकवाद पर ध्यान नहीं देना चाहिए। जिन नारियों ने आँगन की कैद छोड़कर घर से बाहर पैर रखा है, अब उन्होंने बाहर विश्वन में निकलना है। स्त्रियों ने पहले-पहल जब घूँघट छोड़ा तो क्या कम हल्ला मचा था, और उन पर क्या कम लांछन लगाये गये थे? लेकिन हमारी आधुनिक-पंचकन्याओं ने दिखला दिया कि साहस करने वाला सफल होता है, और सफल होने वाले के सामने सभी सिर झुकाते हैं। मैं तो चाहता हूँ, तरुणों की भाँति तरुणियाँ भी हजारों की संख्या में विशाल पृथ्वी पर निकल पड़े और दर्जनों की तादाद में प्रथम श्रेणी की घुमक्कड़ा बनें।’

राहुल जी के बाद स्वामी सत्यदेव परिव्राजक, भगवत शरण उपाध्याय, रामवृक्ष बेनीपुरी जी का नाम भी उल्लेखनीय है। यूरोपीय देशों पर बेनीपुरी जी ने दो यात्रा वृत्तांत लिखे- पैरों में पंख बाँधकर तथा उड़ते चलो-उड़ते चलो। डायरी शैली में खोजपूर्ण और नाटकीय तरीके से उन्होंने इन यात्राओं का वर्णन किया। ‘फ्रांस की कामिनियाँ-कैसी रंगीन कल्पना है उनके बारे में! किन्तु सामने के पेड़ पर जो दो पंडुक बैठे दीख रहे हैं, यह कहते हैं-कामिनियों को पेरिस में देखना, अभी हमें देखो!’

वास्तव में यात्रा साहित्य के मील के पत्थर हैं- मोहन राकेश, अज्ञेय और निर्मल वर्मा जिनके यात्रा संस्मरण, यात्रा काव्य पाठक को यात्रा का सुखबोध ही नहीं कराते बल्कि उस कालानुभव को साकार भी कर देते हैं। अज्ञेय जैसे संगीत की तान लेते हुए लय और रागिनियों के साज-ओ-सामान के साथ ‘एक बूँद सहसा उछली’ में इटली का चित्र संजोते हैं। सचमुच पाठक उन भव्य इमारतों की गलियों के भीतर कदम रख देता है, फौन्तेना त्रेविया तक पहुँच जाता है पर अज्ञेय उसे सिर्फ सैर नहीं कराते बल्कि पूर्व और पश्चिम के बीच की लकीर को भी साफ़-साफ़ दिखा देते हैं-

‘अंगूर की कटी-छटी बेलें-इतनी नीची कटी हुई कि पौधे मालूम हों। लिलाक की झाडिय़ाँ जिनके बकायन-जैसे फूलों के गुच्छों का रंग रात में नहीं पहचाना जाता। पर मधुर गन्ध वायुमण्डल को भर रही है। तरह-तरह के खंडहर जिनमें कुछ चित्रों द्वारा परिचित हैं कुछ अपरिचित। स्वच्छ सुन्दर सड़कें, जहाँ-तहाँ प्रतिमा-मण्डित फव्वारे-ये फव्वारे न केवल इटली की मूर्तिशिल्प और वास्तु-प्रतिभा के उत्कृष्ट नमूने हैं वरन पौराणिक आख्यानों से इतने गुँथे हुए हैं कि पूरी क्लासिकल परम्परा उनकी फुहार के साथ मानो झरती रहती है। नगर के मध्य में फोन्तांना दि त्रेवी मानो कल्पस्रोत्र हैं-वहाँ पर यात्री जल में सिक्का फेंककर मन्नत करते हैं कि उनका फिर रोम आना हो। सुना है कि त्रेवी की शक्ति दिल्ली के ‘हडिय़ा पीर’ से कुछ कम नहीं है; किन्तु इटली फिर आना चाहकर भी मैंने उसका सहयोग नहीं माँगा! यों उत्सुक अथवा चिन्तित प्रेमी-युगलों की भीड़ त्रेवी पर लगी ही रहती है और विदेशी यात्रियों को स्थायी स्मृति-सुख देने के लिए गिद्धों की-सी तीव्र द्वष्टिवाले फोटोग्राफरों की पंक्तियाँ भी दिन-रात कैमरे और रोशनी का सामान लिये फव्वारे के आस-पास मंडराती रहती हैं।’ (एक बूँद सहसा उछली)

अज्ञेय अपने यात्रा काव्य में पूर्व और पश्चिम को समझने की युक्तियाँ देते हैं, काव्यास्वादन कराते हैं, विचार और संवेदना को साथ जगाते हैं, साथ ही पाठक के लिए सोचने की अनेक सरणियाँ निर्मित कर देते हैं। अज्ञेय के समान काव्यात्मक प्रतिमाएं बहुत कम ही यात्रा पथिक बना सके हैं। अज्ञेय कला के पारखी तो हैं ही!

मोहन राकेश के यात्रा वृत्त ‘आखिऱी चट्टान तक’ को पढ़ते हुए कुछ वैसी ही भटकन का अहसास रहता है जैसा किसी अनजान पथ पर चलें वाले यात्री को होता होगा! भटकन भी है और उतना ही और जान्ने, भीतर धंसने का उत्साह भी! एक क्षण के लिए भी उससे अलग नहीं हो सकते, जब तक आखिरी चट्टान तक पहुँच न जाएँ। पढ़ते हुए भवानी प्रसाद मिश्र की कविता सतपुड़ा के जंगल याद आ जाती है। धंस सको तो धँसो इनमें….

बम्बई से कन्याकुमारी की यात्रा के इस वृत्तांत में बूढ़े आशिकमिजाज मल्लाह के किस्से भी हैं, सिंधी परिवार के साथ बिताई शाम है, अविनाश के साथ भोपाल का टाल है और बीना तक के टिकट पर बम्बई जाते लडके के किस्से भी। ‘हर आबाद शहर में कोई एकाध सडक़ ज़रूर ऐसी होती है जो न जाने किस मनहूस वजह से अपने में अलग और सुनसान पड़ी रहती है। इधर-उधर की सडक़ों पर ख़ूब चहल-पहल होगी, पर बीच की वह सडक़, अभिशप्त उदास और वीरान ऐसे नजऱ आती है जैसे बाक़ी सडक़ों ने कोई षडयन्त्र करके उसका बहिष्कार कर रखा हो। मडगांव में एक ऐसी ही सडक़ के बीच में रुककर मैं कुछ देर चार-पाँच अधनंगे बच्चों को सिगरेट की ख़ाली डिबियों से अपना ही एक खेल खेलते देखता रहा।’ (आखिऱी चट्टान तक)

निर्मल वर्मा एक कदम आगे चलकर चीड़ों पर चांदनी में यूरोप के पूर्वी और पश्चिमी बर्लिन के अंतर को दिन और रात के वर्णन से जीवित कर देते हैं। विश्व युद्ध के बाद बर्लिन की दीवार का गिरना यूरोप के लिए जिस परिवर्तन का सूचक बना, उसकी मौजूदगी निर्मल वर्मा के इस वृत्तांत में हर जगह है। ब्रेख्त के बर्लिन एन्सेम्बल की ओर जाते हुए या प्राग के ‘होस्पेदाओं’ से होकर आइसलैंड जाते हुए! निर्मल जैसे जीवन को, साँस लेने को चमत्कार मानते हैं, वैसे ही यात्राओं को भी। यात्राएँ उनको चमत्तकृत करती हैं, और हर बार लौट कर आने के लिए निमंत्रित करती हैं। चीड़ों पर चांदनी की भूमिका में ही वे लिखते हैं ‘अरसे बाद अपने इन स्मृति-खंडों को दोबारा पढ़ते समय मुझे एक अजीब-सा सूनापन अनुभव होता रहा है। कुछ वैसा ही रीता अनुभव जब हम किसी जिन्दा फडफ़ड़ाते पक्षी को क्षण-भर पकड़कर छोड़ देते हैं। उसकी देह हमसे अलग हो जाती है लेकिन देर तक हथेलियों पर उसकी धड़कन महसूस होती रहती है। एक दूरी का अभाव जो सफ़ारी-सूटकेस पर विभिन्न देशों के लेबलों पर लटका रहता है। उन्हें न रख पाने का मोह रह जाता है न फेंक पाने की निर्ममता ही जुड़ पाती है।

इन फटे-पुराने लेबलों के पीछे कितने चेहरे हाथ से हाथ मिलाने के गरम स्पर्श, होटलों के खाली कमरे छिपे हैं, क्या इनका लेखा-जोखा कभी संभव हो सकेगा’।

यह अहसास लगभग हर यात्री के भीतर मौजूद होता है। यात्राएँ छूट जाती हैं, पर हथेलियों पर उसकी धडकन हमेशा के लिए अंकित हो जाती है। निर्मल सिर्फ यात्रा ही नहीं करते बल्कि उस यात्रा के विचार सूत्रों को साहित्य और जीवन की परिधि पर ले जाकर खड़ा कर देते हैं। ब्रेख्त का जिक्र करते हुए वे पूर्वी और पश्चिमी देशों के बनावटीपन को भी सामने ले आते हैं ‘पश्चिम के साहित्यकार ब्रेख्त के महान कृतित्व को स्वीकार करते हैं उनके कम्युनिस्ट व्यक्तित्व को नहीं। पूर्वी देशों के आलोचक उनके कम्युनिस्ट व्यक्तित्व की सराहना करते हैं, किन्तु उनके कृतित्व के संबंध में, शायद पूरी तरह से आश्वस्त नहीं।’ (चीड़ों पर चांदनी)।

यात्राएं अद्भुत संसार बनाती हैं। इस संसार के भीतर अनेकों यात्रा संस्मरण यूरोप और विदेश यात्राओं के संसर्ग से बने (नए चीन में दस दिन: गोविन्द मिश्र) (चलते तो अच्छा था: असगर वजाहत- ईरान और आइजारविजान की यात्रा) तो वहीं किसी पर्वतीय प्रदेश के अद्भुत सौन्दर्य से अभिभूत होकर (कृष्णा सोबती: बुद्ध का कमंडल लद्दाख) पर अभी हाल में ही प्रकाशित यह भी कोई देस है महराज (अनिल यादव) पढ़कर एक नई यात्रा का अहसास होता है- जो पूर्वोत्तर राज्य के भीतर के अंतर्विरोधों, समस्याओं, मान्यताओं के साथ-साथ उनकी शोचनीय स्थिति को भी दिखती है। उग्रवाद का अध्ययन करता लेखक पहले ही झटके में सुनता है कि उग्रवादी तो वहाँ ऐसे घुमते हैं जैसे पानी में मछली। बेरोजगारी, पलायन, भाषा के संकट से जूझते पूर्वोत्तर के लिए सरकारें कितनी सजग हैं, यह सवाल हवा में लगातार तैरता रहता है। आदिवासी अस्मिताओं, रीति रिवाजों से लेकर शोषित होने वाले और शोषण करने वालों की दुनिया को लेखक खोलकर रख देता है। पुराने और नए लामाओं के बीच सोच का अंतर राजनैतिक प्रक्रिया में भागीदारी के प्रश्न को देखने का नजरिया बदल देता है। टीवी के आने से लामाओं की दुनिया बदली है और बाहरी दुनिया राजनीति में भाग लेकर कार्य करने की इच्छा भी बढ़ी है।

‘दूसरा बड़ा परिवर्तन मठों में केबिल कनेक्शन वाले टीवी का पहुंचना है. जिन पुरातन इमारतों का सन्नाटा सदियों तक आदमी की जांघ की हड्डी से बने वाद्ययंत्रों से टूटता था उनमें रहने वाले लामा अब सीरियलों और फिल्मों पर खूब बात करते हैं। उन दिनों बाइक के एक विज्ञापन का जिंगल हुड़ीबाबा बाकी किशोरों की तरह लामाओं में भी हिट था। टीवी अपने साथ वर्षों तक चलने वाला लंबा शास्त्रार्थ लेकर आया था। पुराने भिक्षुओं का कहना था, औरत की अर्धनग्न देह और फिल्मों की हिंसा ब्रह्मचारियों को भ्रष्ट करेगी। युवाओं का कहना था जबरदस्ती होगी तो चोरी छिपे कहीं और देखेंगे जिससे झूठ अपराधबोध जैसी विकृतियां आएंगी. अंतत: टीवी जीता और साधना के नीरस जीवन में रंगीन दुनिया दाखिल हो गईं।’

इस रंगीन दुनिया ने तंत्र में मदिरा के जगह पेप्सी को पहुँचा दिया तो ‘टीजी रिनपोछे लुमला विधानसभा से चुनाव भी लड़े’ इस बात की भी सूचना मिलती है। इस यात्रा संस्मरण ने मात्र यात्रा का ही विवरण नहीं दिया, बल्कि यात्राओं के भीतर के जरूरी अहसास को मूर्त कर दिया। मुक्तिबोध जिसे ज्ञान और संवेदन की साझेदारी मानते हैं वह यात्रा और उसके अहसास के सीझने में ही सम्पन्न होती है।

युग बदला, लोग पैदल पथ से बैलगाड़ी से होकर मोटर कार और हवाई जहाज की दुनिया में आ गए। अनुभवों की दुनिया में गाँव से बढ़कर देश, विदेश सब कुछ शामिल हुआ। शिक्षा ने इस समझ के दायरे विस्तृत किए। अब यात्राएं केवल लेखा जोखा भर नहीं है, बल्कि मनुष्य की निर्मिति में उनकी सहायक भूमिका है। ये यात्रा संस्मरण उसी निर्मिति के एक रूप को दिखाने का कार्य करते हैं। अज्ञेय के शब्दों में ‘घुम्मकड़ी एक प्रवृत्ति ही नहीं, एक कला भी है। देशाटन करते हुए नये देशों में क्या देखा, क्या पाया, यह जितना देश पर निर्भर करता है उतना ही देखने वाले पर भी। एक नजर होती है जिसके सामने देश भूगोल की किताब के नक्शे जैसे या रेल-जहाज के टाइम-टेबल जैसे बिछे रहते है; एक दूसरी होती है जिसके स्पर्श से देश एक प्राणवान प्रतिमा-सा आपके सामने आ खड़ा होता है-आप उसकी बोली ही नहीं, हृदय की धड़कन तक सुन सकते हैं। ‘

सुन सको तो सुनो घुमक्कड़ों की आवाज और सफरी झोले के साथ निकल पड़ो अपनी यात्रा पर …