दक्षिण भारत के यशस्वी कवि शेषेंद्र

आधुनिक हिंदी कविता के दक्षिण खंड में खासे लोकप्रिय कवि शेषेंद्र शर्मा हैं। वे तेलुगु, संस्कृत और अंग्रेज़ी के खासे जानकार थे और छंद की ताकत को विभिन्न भाषाई परिवेश में समझते थे। आंध्रपदेश और तेलंगाना में वे तेलुगु के महाकवि माने जाते हैं। उनका अपना रचना संसार उनकी अपनी सोच, भावुकता और नित्यप्रति चैकस कवि की प्रस्तुति है।

शेषेंद्र सिर्फ निरे भावुक कवि नहीं है। अपनी कविताओं में समाज, जन, राजनीति को भी जानते-समझते हैं। इसी कारण उनके रचना संसार में धरती, श्रमिक और कामगार उभरते हैं प्रतिबद्धता के साथ। हिंदी में आई उनकी रचनाएं बताती हैं कि उनकी कितनी साफ राजनीतिक समझ है और अपनी कविताओं में वे कितनी साफ बात कहते हंै। एक कवि जो भाषाओं का ही मर्मज्ञ न हो बल्कि देश की संस्कृति और संगीत को समझता हो वह जब रचता है तो उसकी रचना जाति, वर्ग, वर्ण  और भाषा से परे एक वैश्विक रूप ले लेती है।

आज़ादी के बाद के भारत के 50-60 साल की आज़ादी के अनुभव को कवि ने अपनी यात्राओं से समृद्ध किया और उस अनुभूति और संवेदना को स्वर दिया। उनकी एक कविता है ‘मेरा पथ’। एक अंश देखें-

जो मेरे देश के शरीर पर से दौड़ता

गाँवों और बस्तियों से होता हुआ

जलती हुई स्क्त नालिका की तरह

बहता है-

वही है मेरा पथ

मंदिरों से भरपूर दक्षिणी भारत में भी खेती-किसानी करने वाले छोटे किसान और भूमिहीन सारे दिन-रात एक करके फसल उपजाते हैं । ज़मीन समतल होने पर बीज भूमि में पड़ते हंै। जब फसल लहलहाती है तो उसे वह पशुओं-चिडिय़ों से बचाता है। वह जब उसे बेचने निकलता है तो बिचौलियों के चलते आधे-पौने दामों पर उसे अपनी फसल बेचनी पड़ती है। घर लौट कर वह जब हिसाब-किताब लगाता है तो पाता है कि खेतों में बीच फसल तक की मेहनत के बाद भी वह और उसका परिवार भूखा है। तब कवि उसके साथ विरोध का झंडा उठा लेता है-

‘यह जो अपने कंघों पर हल उठा कर

अपनी भूख कमाता है

उसी का हक है। उस भूख को मिटाने का।

जो फसल इस साल उगी। अगर उससे

इसके दुख नहीं मिटे – तो अब के बरस

दरातियां थामे हुए हाथ इन खेतों में उगेंगे।

मनुष्य की संघर्षशीलता को मनुष्य की दुर्दशा के दौरान ही देखा परखा जाता है। हर युग में मनुष्य को संघर्ष का सहारा लेना ही पड़ता है। कवि शेषेंद्र इस बात को अच्छी तरह जानते थे। उन्होंने लिखा-

एक नन्हा नक्षत्र दिन नहीं बनता

हमें दहकता हुआ सूरज चाहिए’

मैं तुम्हारा ध्वज बन कर, आकाश में लहराऊंगा।

यह प्रतिबद्धता थी कवि शेषेंद्र की। वे संघर्षशील का साथ उसके साथ चलते हुए देते थे। उस दौर के भारतीय समाज में इंस्पेक्टर राज, लाइसेंस राज और ठेकाराज का बोलबाला था। भ्रष्टाचार पनप रहा था। शासन में लूट-खसोट का बोलबाला था। आज भी हालात वैसे ही हैं। लेकिन कवि शेषेंद्र ने युग सत्य की सही झांकी को अपनी रचनाओं में पेश करते हुए उसका मुकाबला करने की पुरजोर वकालत की ।

उनकी रचनाओं में वह ताकत थी जिसके कारण वे तेलुगु, हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी में पाठकों तक पहुंचती और पढ़ी जाती। उनकी रचनाओं को पाठकों तक पहुंचाने के भगीरथी प्रयास में आज उनके पुत्र सात्यिकी अपनी ओर से सतत सक्रिय हैं। वे कहते हैं उनके पिता का यह मानना था कि ‘भारतीय भाषा परिवार में हिंदी शीर्षस्थ है। कविता, गद्य और दूसरी विधाओं के मूल्यांकन में हिंदी से सशक्त भाषा कोई और नहीं है।

कवि शेषेंद्र शर्मा की हिंदी कविताओं का अनुवाद किया उनके मित्र ओमप्रकाश ‘निर्मल’ ने। एक कविता ‘मुकाबला’

भाई! हम कर सकते हैं बंदूकों का मुकाबला

किंतु नहीं कर सकते तानाशाह – प्रश्नों का सामना

कवि शेषेंद्र के सात कविता संग्रह हैं। इनमें से कुछ कविताएं ‘मेरी धरती, मेरे लोग’ में हैं। यह इस संग्रह में अगर गलतियां न होती और समुचित सफाई साज- सज्जा के साथ प्रकाशन किया जाता तो कवि शेषेंद्र के प्रति न केवल श्रद्धा बढ़ती बल्कि हिंदी के पाठक भी समुचित तरीके से उन्हें जान-समझ पाते।