जिस राज्य में एक निर्दलीय विधायक मुख्यमंत्री बन सकता हो, प्रदेश का मुख्यमंत्री चुनाव हार सकता हो, कुछ जनप्रतिनिधि चाहे किसी की भी सरकार हो मंत्री की कुर्सी से चिपके रह सकते हों और सरकार जाते ही मुख्यमंत्री सहित कई मंत्री सालों जेल की शोभा बढ़ा सकते हों, उस प्रदेश में कुछ भी होने पर आश्चर्य कैसे हो सकता है?
इस साल झारखंड में इंटर की परीक्षा में कुल 2.93 लाख छात्र-छात्राओं ने परीक्षा दी थी. रिजल्ट आया तो 1.25 लाख से भी कम प्रतिभागी सफल हो सके. यानी लगभग 55 प्रतिशत प्रतिभागी फेल हो गए. इस कुल रिजल्ट में यदि विशेष तौर पर साइंस के परीक्षार्थियों की बात करें तो इस साल परीक्षा पास करने वाले प्रतिभागियों की प्रतिशतता 28.05 पर जाकर सिमट गई. इंटर साइंस में कुल 1,04,333 परीक्षार्थी शामिल हुए, उनमें 75,067 फेल हो गये.
खैर इसमें कोई बड़ी बात नहीं. कहा जा सकता है कि परीक्षा में सख्ती की वजह से या प्रश्नपत्र थोड़ा कठिन आने की वजह से कमजोर छात्र फेल हो गए होंगे. मगर खास बात यह है कि इन फेल होने वाले विद्यार्थियों में करीब सोलह सौ ऐसे भी हैं जिन्होंने इंजीनियरिंग और मेडिकल की प्रतिष्ठित प्रवेश परीक्षाओं में अपनी सफलता का परचम लहरा दिया है. लेकिन इंटरमीडिएट की परीक्षा में वे अपनी नैया पार लगाने में कामयाब नहीं हो सके. यानी कि हाथी तो दरवाजे से बाहर निकल गया मगर उसकी पूंछ अटक गई. इसके अलावा इस वर्ष 12वीं कक्षा के तमाम विद्यार्थी ऐसे भी हैं जिन्होंने इंजीनियरिंग या मेडिकल की प्रवेश परीक्षा तो पास कर ली है लेकिन उनमें प्रवेश के लिए जरूरी न्यूनतम अंक पाने से चूक गए हैं.
2006 से लेकर 2011 के बीच सिर्फ दो साल ही ऐसे रहे जब इंटर साइंस में पास होने वाले परीक्षार्थियों की संख्या 50 प्रतिशत के करीब थी
इसे लेकर बवाल मचा, हंसी-मजाक भी बनाया गया और झारखंड एकेडमिक काउंसिल यानी जैक, जिसके जिम्मे परीक्षा का संपूर्ण संचालन का जिम्मा होता है, उसे कोसा भी गया. सरकार के खिलाफ बयानबाजी हुई तो राज्य के शिक्षा मंत्री के खासमखासों की ओर से जवाब आया, ‘जान-बूझकर थोड़े ही न किसी को फेल किया गया है, ऐसा होता तो शिक्षा मंत्री के बेटा-बेटी भी कैसे फेल हो जाते!’ जैक की अध्यक्ष व राज्य की पूर्व सचिव लक्ष्मी सिंह तहलका से बातचीत में कहती हैं, ‘यह जो इंजीनियरिंग मेडिकल की प्रवेश परीक्षाएं होती हैं, उसने तो सबसे ज्यादा न्यूसेंस क्रीयेट कर रखा है. इंटर की पढ़ाई होगी नहीं, कोई बच्चा इंटर का कोर्स साल भर देखेगा नहीं, पढ़ेगा नहीं तो रिजल्ट तो गड़बड़ होगा ही. और उस पर ग्यारहवीं की परीक्षा भी देर से होती है जिससे बारहवीं के लिए पढ़ने का मौका ही नहीं मिलता.’
बात सिर्फ इस साल के रिजल्ट की नहीं है. इस बार जब सोलह सौ नये किस्म के परीक्षार्थी इंटर साइंस में फेल हुए तो पानी सिर के ऊपर से गुजरते हुए दिखने लगा. मगर झारखंड में हो ऐसा वर्षों से रहा है. 2009 में करीब 50 प्रतिशत विद्यार्थी ही इंटरमीडिएट (विज्ञान) में यहां सफल हो सके थे. उसके अगले साल 2010 में रिजल्ट का ग्राफ एक झटके में गिरा. सफल विद्यार्थियों की प्रतिशतता 30 पर पहुंच गई और अब 2011 में दो प्रतिशत की गिरावट के साथ ग्राफ 28 पर पहुंच गया है. सिर्फ तीन साल की ही बात नहीं, अगर उसके पहले के तीन साल को भी शामिल करें तो 2006 से लेकर 2011 के बीच सिर्फ दो साल यानी 2008 और 2009 ही ऐसे रहे जब इंटर साइंस में पास होने वाले परीक्षार्थियों की संख्या 50 प्रतिशत के करीब थी. यह उस शाखा में 12वीं की परीक्षा में सफल विद्यार्थियों का ग्राफ है जो छात्र-छात्राओं और अभिभावकों के बीच सबसे लोकप्रिय है. इंटर के बाद ही करियर की दृष्टि से संभावनाओं के द्वार खुलते हैं, लेकिन झारखंड में संभावनाओं के इस प्रवेश द्वार पर ही आज सबसे ज्यादा ब्रेक लग रहा है.
जैक ऑफिस में चतरा जिले के हंटरगंज से अपने बेटे के साथ पहुंचे एक अभिभावक रामेश्वर राम कहते हैं, ‘हो सकता है शिक्षा मंत्री ने अपनी पहुंच और पैरवी का असर न दिखाया हो लेकिन उनके बाल-बच्चों के फेल होने से हजारों और छात्र-छात्राओं का क्या वास्ता है? मंत्रियों के बेटे-बेटियों के पास तो करियर के हजारों विकल्प हैं, हमारे बच्चों के पास क्या है?’
आठ वर्षों में जिस तेजी से विद्यार्थियों की संख्या में इजाफा हुआ है, उस अनुपात में बजट में इजाफा बिलकुल भी नहीं हुआ है
कोरी बातें
24 जून को केंद्रीय शिक्षा मंत्री कपिल सिब्बल रांची पहुंचकर राजनीति और भ्रष्टाचार के अन्योन्याश्रय संबंधों को स्वीकार कर लेने के बाद शिक्षा के मसले पर शैक्षणिक प्रवचन देते हैं. वे कहते हैं कि शिक्षा का अधिकार लाकर केंद्र सरकार बड़ी क्रांति करने वाली है. हम आइडेंटिफिकेशन नंबर देंगे. तब यह पता चलेगा कि जब कोई बच्चा पांचवीं से छठी में गया तो वह क्या कर रहा है! सिब्बल कुछ घंटे के दौरे पर अपनी बात ही कहने आए थे, इसलिए कहे जा रहे थे. वे आंकड़ों की पोथी लेकर भी आए थे, सो आंकड़ों के हवाले से भी बात की. यह ज्ञानवर्द्धन भी किया कि अभी भारत में 100 में 14 बच्चे ही कॉलेज पहुंच पाते हैं, 2020 तक हम इस संख्या को बढ़ाकर 30 करेंगे. और भी कई आंकड़े बताए. उन आंकड़ों से सुनहरे भविष्य का तानाबाना रचकर शाम को विदा हो गए.
जिस समय सिब्बल यह सब रांची में कह रहे थे, उसी समय रांची के बाहरी हिस्से में बने झारखंड एकेडमिक काउंसिल के भवन के बाहर और अंदर परिसर में सैकड़ों की संख्या में दूर-दराज से आए छात्र अपने अधर में फंसे भविष्य को निकालने की कोशिशों में लगे थे. गिड़गिड़ाने के साथ कई वाक्य एक साथ निकल व आपस में टकरा रहे थे. इंटर का विद्यार्थी दशरथ कहता है – सर, मेरे रिजल्ट में एक भी सब्जेक्ट का मार्क्स नहीं चढ़ा है. प्लीज देख लीजिए न. दो दिन से ऑफिस में आ रहा हूं. सर, आवेदन तो ले लीजिए. बताइए न कब तक मार्क्स का पता चलेगा. एडमिशन का टाइम भी खत्म हो जाएगा. सर, प्लीज थोड़ी सी हेल्प करिए ना. वगैरह-वगैरह. जैक अधिकारियों और कर्मियों से सभी सवालों का एक ही रटा-रटाया जवाब मिलता है- सब कुछ प्रक्रिया से होगा न!
श्रीराम सिंह (रोल नं 10329) केमेस्ट्री में फेल है. उसे 51 नंबर मिले हैं. 24 नंबर प्रैक्टिकल में और 17 नंबर थ्योरी में. यदि 17 की बजाय उसे 18 नंबर मिले होते तो 5 नंबर का ग्रेस मिल जाता और वह सफल हो जाता. वह अपने घर का इकलौता चिराग है. पिताजी खेती करते हैं, बेटे को इंजीनियर बनाना चाहते हैं. लेकिन इस एक नंबर ने सारा खेल खराब कर रखा है. पिंटू, धनंजय, मोहित, रोहन सब के सब एक नंबर से फेल हुए हैं. दीपक को आईआईटी में 264वां स्थान मिला है. उसे 54 प्रतिशत अंक मिले हैं. वह विकलांग है और ग्रामीण इलाके से आता है. बिलख कर रोते हुए वह कहता है, ‘मैं हमेशा अव्वल रहा हूं, इंजीनियर की परीक्षा भी पास कर ली लेकिन सिर्फ एक प्रतिशत की वजह से मेरा सपना अब कभी पूरा नहीं हो पाएगा.’
कुछ अन्य विद्यार्थियों की किस्मत दीपक से भी बहुत बुरी है. इटकी कॉलेज, इटकी की आरती कुमारी को कंबाइंड इंजीनियरिंग परीक्षा उड़ीसा में 1025वीं रैंक मिली है लेकिन झारखंड इंटरमीडिएट बोर्ड की परीक्षा में गणित में उसके सिर्फ 4, और रसायन शास्त्र में शून्य अंक आए हैं. पीकेएम इंटर कॉलेज के मुकेश साहू की भी कंबाइंड इंजीनियरिंग परीक्षा उड़ीसा में 980वीं रैंक है पर झारखंड बोर्ड की परीक्षा के साइंस के सभी विषयों में आश्चर्यजनक रूप से उन्हें एक भी अंक प्राप्त नहीं हुआ है.
लगभग 900 माध्यमिक स्कूलों को ही उत्क्रमित करके हायर सेकंडरी का दर्जा दिया गया. शिक्षक वही रह गए, सुविधाएं वही रहीं लेकिन दर्जा बढ़ गया
दिल्ली से आए सिब्बल सपनों का तानाबाना बुनकर वापस दिल्ली चले जाते हैं. झारखंड के दूर-दराज के इलाकों से पहुंचे सैकड़ों छात्र अपने सपनों को टूटते हुए देखते रहते हैं. और इन दोनों के बीच झारखंड की सरकार जमशेदपुर के उपचुनाव में फंसी रहती है. राज्य के शिक्षा मंत्री बैद्यनाथ राम कहते हैं, ‘हम भविष्य में बदलाव के लिए मजबूत बुनियाद तैयार कर रहे हैं. सरकार बच्चों के भविष्य के लिए चिंतित है, अगली बार से सब कुछ ठीक दिखेगा. मन लगाकर पढाई करो.’ फिर बैजनाथ राम के चट्टे-बट्टे यह बात कहने लगते हैं कि मंत्रीजी ने खुद ही आज लगभग 150 कॉपियों को सरसरी तौर पर देखा है, वे गंभीर हैं, देखिएगा कुछ न कुछ सार्थक होगा. सार्थक क्या होगा, यह ठोस तौर पर बताने वाला कोई नहीं.
झारखंड में ऐसे ही चलता है सब कुछ. यह राज्य ही एक प्रयोगशाला की तरह है. यहां सिब्बल की तरह कई लोग बेमौसमी बरसात करते रहते हैं. यहां की राज्य सरकार हंसुआ की शादी में खुरपी का गीत गाती रहती है. सपनों के सौदागरों का राज्य है यह. इन सबके बीच झारखंड के हजारों छात्र अपने भविष्य को लेकर इधर-उधर मारे-मारे फिर रहे हैं. सब भविष्य में ठीक होने की बात कह रहे हैं लेकिन कोई यह नहीं बता रहा कि अगर वर्तमान की गतिविधियों पर ही भविष्य की बुनियाद टिकी हुई होती है तो वे वर्तमान में करें तो क्या करें!
कोई नीति नहीं है तो दुर्गति तय है !
झारखंड में तरह-तरह की नीतियों को लेकर बहस का दौर चलता रहता है. कभी एमओयू की बाढ़ आती है. कभी एंटी नक्सल मूवमेंट को लेकर दांव-पेंच खेले जाते हैं लेकिन पिछले दस साल में शिक्षा की बद से बदतर होती स्थिति पर सरकारों ने शायद ही कभी गंभीरता से बात की हो. दस साल राज्य बने हो गए, राज्य में शिक्षा नीति नहीं बन सकी. प्राथमिक शिक्षा जिसे प्रारंभिक बुनियाद कहते हैं, उसमें झारखंड 33वें स्थान पर है. बच्चों की शिक्षा और उससे जुड़ी आर्थिक नीति के विषय पर काम करने वाले अनुसंधानकर्ता कुमार संजय कहते हैं, ‘सरकार के पास शिक्षा को लेकर कोई विजन ही नहीं है. वर्ष 2003-04 में सरकार के कुल बजट का लगभग 14 फीसदी शिक्षा के लिए था, वह वर्ष 2010-11 में जरा-सा बढ़कर सिर्फ 17 फीसदी हुआ है. आठ वर्षों में जिस तरह से विद्यार्थियों की संख्या में इजाफा हुआ है, उस अनुपात में बजट में इजाफा कतई नहीं हुआ है.’
कुमार संजय की बातें सही दिशा में जाती हुई दिखती हैं और एक साथ कई सवालों का जवाब भी देती हैं. रिजल्ट के बाद शिक्षा मंत्री और जैक अध्यक्ष लक्ष्मी सिंह, दोनों ही प्रकारांतर से कहते हैं कि परीक्षार्थियों की संख्या भी बढ़ रही है, इसलिए फेल होने वालों की संख्या बढ़ती हुई दिख रही है. यह भी अजीब किस्म की बात है. क्या यह खुश होने वाली बात नहीं है कि राज्य में परीक्षार्थियों की संख्या बढ़ रही है? इस बढ़ोतरी के अनुपात में बजट और जरूरी संसाधन बढ़ाना शायद सबसे सार्थक कदम होता. लेकिन परीक्षा के परिणामों को तर्कसंगत ठहराने की कोशिश की जा रही है. आखिर परीक्षार्थियों की संख्या में बढ़ोतरी से असफल छात्रों की प्रतिशतता में अप्रत्याशित बढ़ोतरी को कैसे जायज ठहराया जा सकता है?
राज्य के 12 जिले शिक्षा के स्तर पर अति पिछड़े हैं. करीब 100 प्रखंडों में कोई सरकारी इंटर कॉलेज नहीं है. कुछ कॉलेजों के भवन हैं लेकिन शिक्षक नहीं हैं
बात इंटर के रिजल्ट की हो रही है, आज चिंता उस पर जताई जा रही है लेकिन बुनियाद इतनी कमजोर पड़ती है यहां कि आगे चलकर वैसे परिणाम आते ही रहेंगे. मसलन एक बात सर्व शिक्षा अभियान की करें. स्कूल चलें हम अभियान के तहत सरकार का दावा है कि उसने रिकॉर्ड संख्या में बच्चों को स्कूल तक पहुंचाया. लेकिन यह भी उतना ही सच है कि आज भी छह से 14 साल के ढाई लाख से अधिक बच्चे स्कूल की पहुंच से बाहर हैं. कुमार संजय कहते हैं, ‘सरकार बजट में जो चौदह फीसदी में खर्च करती थी, उसमें 78 फीसदी प्राथमिक शिक्षा पर और सिर्फ 20 फीसदी माध्यमिक शिक्षा पर खर्च होता था.’ बजट के ये आंकडे़ भी कुछ हद तक सच्चाई बयान करते हैं. पहले तो पूरा बजट ही कम है उस पर माध्यमिक शिक्षा का बजट तो ऊंट के मुंह में जीरे सरीखा ही है. यानी एक तो बुनियाद ठीक नहीं और फिर ऊपर से संसाधनों का टोटा तो फिर इंटरमीडिएट का रिजल्ट 28 फीसदी न हो तो क्या हो?
बातें और भी हैं. सरकार ने 2005 तक सभी बच्चों का स्कूलों में नामांकन का लक्ष्य रखा था. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. 2010 तक सभी ड्राप आउट बच्चों को स्कूलों में वापस लाना था, यह नहीं हो सका. शिक्षा के प्रति सरकार की मंशा का पता इस बात से भी लगाया जा सकता है कि 2003-04 में तो समाज कल्याण का 47 फीसदी बजट प्राइमरी और सेकेंड्री एजुकेशन के लिए था लेकिन 2010-11 में यह घटकर 36 फीसदी रह गया है. जब देश भर में शिक्षा की होड़ मची हुई है, रांची निजी स्कूलों का हब माना जाता है और कोचिंग संस्थानों का भी, तब झारखंड में शिक्षा को लेकर सरकारी रवैया ऐसा है. 12वीं का रिजल्ट इन सभी बातों का मिला-जुला परिणाम है. तहलका से बातचीत में पूर्व शिक्षा मंत्री बंधु तिर्की कहते हैं, ‘वर्तमान शिक्षा मंत्री के पास कोई विजन नहीं है. वे न कभी स्कूलों का निरीक्षण करने जाते हैं, न कुछ नया हो रहा है.’ तिर्की गर्व के भाव से कहते हैं कि मैं जब मंत्री था तो स्कूलों में जाता था लेकिन अब सब कुछ विभागीय अधिकारियों पर छोड़ दिया गया है तो उसके परिणाम तो भुगतने ही होंगे. तिर्की आज जब सत्ता में नहीं हैं तो ऐसी बातें कर रहे हैं लेकिन झारखंड में यह हर कोई जानता है कि किस मंत्री के कार्यकाल में शिक्षा विभाग में कैसे-कैसे खेल होते रहे हैं और जैक किस तरह भ्रष्टाचार का अखाड़ा भी बना रहा.
आरोप-प्रत्यारोप लगते रहते हैं, लग रहे हैं लेकिन इस बीच झारखंड में शिक्षा को लेकर कई सवाल हैं, जिन्हें न तो विरोधी पक्ष उठा रहा है और न ही सत्ता पक्ष वाले ही उसे लेकर चिंतित हैं. कारण भी वाजिब हैं, विरोधी दल वाले भी तो जो आज हो रहा है वह कभी कर चुके हैं. झारखंड में स्कूलों-कॉलेजों का अभाव व्यापक पैमाने पर है. स्कूलों पर ही पुलिस और माओवादियों की ताकत दिखाई जाती है. पुलिसवालों का कैंप स्कूल में ही लगता है, माओवादी भी निशाने पर सरकारी स्कूलों को ही लेते हैं. स्कूलों की प्रगति की दशा यह है कि लगभग 900 माध्यमिक स्कूलों को ही उत्क्रमित करके हायर सेकेंडरी का दर्जा दिया गया. शिक्षक वही रह गए, बिल्डिंग और सुविधाएं भी वही रहीं लेकिन दर्जा बढ़ गया. तो नतीजा यह होने लगा कि जिन शिक्षकों को प्राथमिक और माध्यमिक की कक्षा लेने में ही जद्दोजहद का सामना करना पड़ता था, वे उच्च माध्यमिक की कक्षाओं में जाकर पाठ पढ़ाते हैं. सरकार की अगंभीरता का पता इससे भी लग सकता है कि यहां अब तक कोई राज्य शिक्षक सेवा बोर्ड का गठन नहीं हो सका है, जो शिक्षकों की नियुक्ति करता है. झारखंड में एससीइआरटी का गठन नहीं हो सका है, जिसके जिम्मे पाठ्यक्रम तैयार करने का काम होता है. सब कुछ भगवान भरोसे छोड़कर बेहतर परिणाम की उम्मीद की जाती है. शिक्षाविद बीपी केसरी कहते हैं कि नेताओं की प्राथमिकता में शिक्षा है ही नहीं. उन्हें सिर्फ इस बात की चिंता रह गई है कि उनकी जेबें कैसे भरेंगी और अगला चुनाव कैसे जीतेंगे. अगर इस विभाग में भी पैसे का खेल करने को मिलेगा तो वे लोग शिक्षा को प्राथमिकता में शामिल कर लेंगे.
उधर जैक अध्यक्ष लक्ष्मी सिंह कहती हैं, ‘दलालों, कोचिंग संस्थानों और शिक्षकों का ऐसा गठजोड़ कायम हो गया था यहां कि वे मर्जी से सारा खेल करते थे. अब उस पर रोक लगाई जा रही है तो सभी चिल्ला रहे हैं कि यह क्या हो गया!’ लक्ष्मी सिंह पूछती हैं, ‘क्या यह सब एक दिन में ही हो गया. सभी जैक के खिलाफ आंदोलन कर रहे हैं, उनको क्या यह पता नहीं है कि जैक सिर्फ एक एजेंसी भर है, जिसका मुख्य काम परीक्षा लेना, कॉपियों की जांच करवाना, परिणाम प्रकाशित करना होता है, छात्रों की शैक्षणिक स्थिति सुधरे, शिक्षक नियमित कक्षाएं लें और सभी गुणात्मक शिक्षा की दिशा में कदम उठाएं, इसके लिए समग्रता में शिक्षा विभाग की नीति काम करती है.’ लक्ष्मी सिंह का कहना भी ठीक है लेकिन परीक्षा परिणाम के बाद सबसे ज्यादा नारेबाजी उनके व जैक के खिलाफ ही हो रही है. जानकार मानते हैं कि जैक के खिलाफ आंंदोलन को हवा देने के कई और कारण भी हैं. जैक के मार्फत शिक्षा की दुकानदारी चलाने वाले कई गुटों का वर्चस्व खत्म हुआ है तो जाहिर-सी बात है, वे इस आंदोलन को परवान चढ़ाने का काम करेंगे ही.’
जैक के खिलाफ हमेशा आवाज उठाने वाले माले विधायक विनोद सिंह तहलका से बातचीत करते हुए सवालिया लहजे में कहते हैं, ‘जैक को सरकार की ओर से कोई अनुदान नहीं मिलता और न यहां काम करने वालों को सरकार वेतन देती है तो इतना तामझाम मेंटेन कैसे होता है? आलीशान भवन कैसे बना? यह सब बच्चों की ट्यूशन फीस, परीक्षा फीस, प्रमाणपत्र आदि के नाम पर वसूली जाने वाली रकम से होता है.’ विनोद सिंह आगे कहते हैं कि चाहे पूर्व शिक्षा मंत्री प्रदीप यादव हों या बंधु तिर्की सबने मनमाने ढंग से अपने-अपने लोगों की जैक में नियुक्तियां करवाई हैं. वे अपने हिसाब से उनसे काम भी करवाते रहे हैं. अब जब उसके परिणाम पराकाष्ठा की ओर दिखने लगे हैं तो सबको चिंता हो रही है.
विनोद सिंह जो कह रहे हैं उसे दूसरे रूपों में भी समझा जा सकता है. शिक्षा की स्थिति दिन-ब-दिन बद से बदतर होती गई लेकिन इस पर कभी कोई गंभीर बहस नहीं हुई. कोई बडा राजनीतिक आंदोलन नहीं चला. विनोद सिंह के मुताबिक राज्य की शिक्षा के स्तर पर यूजीसी का कहना है कि झारखंड के 24 में से 12 जिले ऐसे हैं जो शिक्षा के स्तर पर अति पिछड़े हैं. लगभग 100 प्रखंड ऐसे हैं जहां कोई भी सरकारी इंटरमीडिएट कॉलेज नहीं है. कुछ नये कॉलेजों के भवन तो तैयार हो गए हैं लेकिन वहां न कोई शिक्षक हैं न पढ़ाई की ही शुरुआत हुई है. शिक्षकों के अभाव में 1000-2000 रुपये देकर किसी को भी पढ़ाने का जिम्मा दिया जा रहा है. पूरी शिक्षा प्रणाली ही आज ठेके पर चल रही है. आने वाले समय में राज्य में 40 मॉडल स्कूल खुलने वाले हैंैं. इनके लिए 90 फीसदी अनुदान केंद्र सरकार से मिलेगा पर इसे चलाने के लिए फिर वही ठेका नीति अपनाई जाएगी. राज्य में कस्तूरबा विद्यालय, मॉडल स्कूल या ऐसे विद्यालय जिन पर सरकार गर्व करती है, ठेके पर ही हैं. तो फिर ऐसे में शिक्षा का क्या होगा?
आज रिजल्ट के बहाने रिजल्ट की बात की जा रही है, लेकिन समग्रता में शिक्षा की बात कोई नहीं कर रहा. यह कोई नहीं पूछ रहा कि पहले स्कूलों में मॉडल टेस्ट पेपर भी सरकार की तरफ से दिए जाते थे. लेकिन बाद में ऐसा करना बंद कर दिया गया. तब जिन बच्चों के पास पुस्तकें उपलब्ध नहीं हो पाती थीं वे इन्हें पढ़कर कम से कम पास हो जाते थे. इंटर की कक्षाओं में अलग-अलग संकाय में करीब 84 विषय व मैट्रिक में 24-25 विषय हैं पर इतने सारे विषयों के लिए न तो शिक्षक उपलब्ध हैं और न ही किताबें.
फिलहाल नया खेल यह है कि कॉपियों की विशेष स्क्रूटनी करवाई जा रही है जिसमें यह बात खुलकर सामने आई है कि पास विद्यार्थी को फेल और फेल को पास कर दिया गया है. वैसे तो काउंसिल अपनी गलतियों को छिपाने के लिए अधिकतर के अंकों में कोई बदलाव नहीं कर रही है लेकिन कुछ लोगों को स्क्रूटनी कराना महंगा भी पड़ा है. मसलन रोल नं 40071 को गणित में 35 अंक मिले थे जिन्हें घटाकर 12 कर दिया गया है और भौतिकी के 30 को 23 कर दिया गया. हालांकि कुछ ऐसे भी हैं जिनके नंबर बढ़े हैं. जैसे रोल नं 10537 को सीएमएस में पहले 34 अंक की जगह अब 54 अंक मिल गए हैं. इसी विषय में रोल नं 10349 को 06 के बदले 26 अंक मिले हैं.
इस तरह के रवैये पर राज्य के शिक्षा मंत्री का कहना है कि कॉपी जांचने में सख्ती बरती गई है और स्क्रूटनी से सच्चाई सामने आ गई है. पास करने लायक बच्चे पास होंगे ही, लेकिन पास बच्चों को फेल करने का कोई औचित्य नहीं है. इस तरह की घटना के बाद पूर्व शिक्षा मंत्री बंधु तिर्की को राजनीति करने का मुद्दा मिल गया है और वे मांग कर रहे हैं कि काउंसिल को सुपरसीड करके दोषियों पर कार्रवाई की जाए.
राजनीति होती रहेगी लेकिन बच्चों के भविष्य के साथ खेल करने वालों को नहीं बख्शा जाना चाहिए. छात्र नेता नाजिया कहती हैं कि आखिर सरकार को और कितने प्रमाण चाहिए. विशेष स्क्रूटनी ने कॉपियों की जांच में गड़बड़ी को खोल कर रख दिया है.