डाकू गब्बरा सिंह : पं नेहरू के जन्मदिन का तोहफा

फिल्म शोले में गब्बर सिंह का किरदार और यह डायलॉग कि जब पचास-पचास कोस दूर कोई बच्चा रोता है तो उसकी मां कहती है… वास्तव में उस असली गब्बर या गब्बरा सिंह से प्रेरित था जिसका चंबल में पचास के दशक में आतंक था. गब्बरा (गब्बर सिंह के साथी अपने सरदार को इसी नाम से पुकारते थे) का जन्म मध्य प्रदेश के भिंड में एक गरीब गुज्जर परिवार में हुआ था और बीस साल की उम्र में वह कुख्यात डाकू कल्याण सिंह के गुट में शामिल हुआ. लेकिन जल्दी ही उसने खुद अपना गुट बना लिया. चंबल में अपनी धाक जमाने के लिए गब्बरा ने कई गांवों में बेवजह हत्याएं की, अपहरण किए और ताबड़तोड़ डकैतियां कीं. गब्बरा ने अपना आतंक कायम करने के लिए एक और रणनीति अपनाई. कहा जाता है कि वह ग्रामीणों को पकड़कर उनकी नाक काट देता था और उसने अपने जीवनकाल में दर्जनों लोगों की नाक काटी थी. इन घटनाओं का असर यह हुआ कि इस डाकू का नाम चंबल के साथ-साथ दिल्ली में केंद्र सरकार के लिए भी क्रूरता का पर्याय बन गया और तब प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने खुद मध्य प्रदेश पुलिस प्रमुख केएफ रुस्तम को इस डकैत का सफाया करने की योजना पर काम करने को कहा था.

कहा जाता है कि 1957 में गब्बरा ने एक गांव के 22 बच्चों को लाइन में खड़ा करके सिर्फ इसलिए गोली मार दी थी कि उसे शक था कि गांव के लोग उसकी मुखबिरी करते हैं. इस डकैत पर राजस्थान, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश की तत्कालीन सरकारों ने कुल पचास हजार का इनाम घोषित किया था.

इस डकैत के आतंक का अंत 1959 में हुआ जब मध्य प्रदेश पुलिस के एक विशेष दस्ते ने एक मुठभेड़ में उसे मार दिया. यह मुठभेड़ 13 नवंबर को हुई थी और इसकी सूचना देते हुए रुस्तम ने नेहरू को संदेश दिया था कि यह उनके जन्मदिन का तोहफा है.                              

पवन वर्मा