टाइम कैप्सूल : इंदिरा गांधी

लाल किले के सामने गड्ढे में दफन किया गया तांबे का पात्र जिसकी सामग्री आज तक रहस्य बनी हुई है.

आम तौर पर टाइम कैप्सूल धातु का बना ऐसा पात्र होता है जिसके भीतर दस्तावेज और अमूल्य प्रतीक चिह्न रखकर इसे जमीन में दबा दिया जाता है. इसका मकसद होता है कि दशकों बाद जब इसे निकाला जाए तो वर्तमान की पीढ़ी उस समय के इतिहास को जान सके.

यह मूल रूप से विदेशों की परंपरा है. वैसे हाल के सालों में भारत के भी कुछ संस्थानों ने टाइम कैप्सूलों में दस्तावेजों को संरक्षित किया है और जिनकी चर्चा अखबारों में आती रही है. लेकिन हमारे यहां टाइम कैप्सूल से जुड़ी सबसे विवादित और चर्चित घटना 80 के दशक की है. जब न सिर्फ इससे राजनीतिक विवाद खड़ा हुआ बल्कि अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने भी इसे काफी तवज्जो दी थी. दरअसल केंद्र सरकार की एक योजना के मुताबिक 15 अगस्त, 1973 को दिल्ली में लाल किले के दरवाजे के आगे गड्ढा खोदकर एक टाइम कैप्सूल दबाया गया था. इसमें रखे गए दस्तावेजों में भारत की आजादी तक का पूरा इतिहास और महापुरुषों की जीवनियां शामिल थीं. यह पूरी सामग्री भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद ने तैयार की थी. इस टाइम कैप्सूल को कालपात्र नाम दिया गया था.

यह घटना उस समय अचानक विवाद का विषय इसलिए बन गई क्योंकि विपक्ष का आरोप था कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सुभाष चंद्र बोस जैसे स्वतंत्रता सेनानियों और कांग्रेस विरोधी नेताओं की उपेक्षा करते हुए कांग्रेसी विचारधारा और अपने परिवार को महिमामंडित करने वाले दस्तावेज ही इस कालपात्र में रखवाए हैं.  

सन 1977 में कांग्रेस सरकार का पतन हुआ और जनता पार्टी की सरकार बनी. तब सरकार ने कालपात्र को बाहर निकलवाया और उसमें सुरक्षित दस्तावेजों को पढ़ा. कहा जाता है कि उन दस्तावेजों में हो-हल्ला मचाने जैसी कोई सामग्री नहीं थी. देश की तमाम प्रमुख हस्तियों का उसमें विवरण था. नेताजी सुभाष चंद्र बोस के बारे में जानकारी भी इसमें शामिल थी. लेकिन इन दस्तावेजों का विवरण कभी मीडिया में नहीं आया और अभी तक यह एक रहस्य है कि उस कालपात्र का बाद में क्या हुआ.

इस घटना से जुड़ा एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि जहां कालपात्र जमीन में गड़वाने पर आठ हजार रुपये खर्च हुए थे वहीं इसे बाहर निकलवाने में सरकार के 58 हजार रुपये खर्च हुए.   
-पवन वर्मा