50 साल की उम्र में जब अमूमन लोग रिटायरमेंट की उम्र की ओर बढ़ रहे होते हैं और सुखद भविष्य के ताने-बाने बुनने में अपनी ऊर्जा लगा रहे होते हैं, उस उम्र में एक आदमी कैमरे की एबीसीडी जानना शुरू करता है. कैमरे की भाषा को समझने के साथ-साथ उसका प्रयोग शुरू करता है. इस उम्र में फिल्मकार बनने की सोचता है और आठ साल में कैमरे और मानवीय संवेदना, सामाजिक सरोकार और संघर्ष के स्वरों का मेलजोल कराने में इतना माहिर हो जाता है कि जब 58वें राष्ट्रीय पुरस्कार की घोषणा होती है तो उसकी दो फिल्मों को एक साथ रजत कमल श्रेणी में रख लिया जाता है. सोशल ऐक्टिविज्म करते-करते वीडियो ऐक्टिविज्म करने वाले इस 58 वर्षीय शख्स का नाम है मेघनाथ, जिनकी दो फिल्में ‘लोहा गरम है’ और ‘एक रोपा धान’ को इस साल राष्ट्रीय पुरस्कार देने की घोषणा की गई है.
उनकी फिल्मों को राष्ट्रीय पुरस्कार देने की घोषणा इस साल हुई है. लेकिन इसके काफी पहले ही उनकी फिल्मों की पहचान राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थापित हो चुकी है. दुनिया भर में इनकी या इनकी फिल्मों की ख्याति को आंकना हो तो इसे 2003 में इनके द्वारा बनाई गई फिल्म ‘विकास बंदूक की नाल से’ से समझा जा सकता है. मेघनाथ ने यह फिल्म बनाई तो थी हिंदी में लेकिन उस फिल्म की ताकत को समझने वाले लोगों ने उसे अपनी भाषाओं में तेजी से ढाल लिया. इंग्लिश, फ्रेंच, स्पेनिश में उसे बनाया जा चुका है. दुनिया के 50 से अधिक विश्वविद्यालयों में उसका प्रदर्शन हो चुका है. विकास का एजेंडा सेट करने से पहले उस फिल्म को दिखाया जाता है. यूट्यूब पर जाएं तो पता चलता है कि अब तक 5,26,000 से ज्यादा लोग उस एक फिल्म को देख चुके हैं.
लेकिन यह सब मेघनाथ की बाहरी दुनिया है. रांची, जहां वे रहते हैं, उस छोटे-से शहर में उन्हें जानने-पहचानने वालों की जमात कुछ ज्यादा नहीं. कुछ ही लोग हैं, जो उनके नाम के साथ-साथ काम से भी परिचित हैं. कई ऐसे भी हैं जिनके बीच उनकी पहचान खद्दर वाला हाफ कुरता पहनकर झकझक सफेद दाढ़ी-बाल लहराते हुए हीरो पुक पर सवार शहर की सड़कों पर इधर-उधर घूमते रहनेवाले एक बुजुर्ग शख्स भर की है. मेघनाथ जान-पहचान के इस दायरे को और ज्यादा बढ़ाना भी नहीं चाहते. रांची शहर के बाहरी हिस्से में एक छोटे से घर में कैद होकर अपने फिल्मकार साथी बिजू टोप्पो के साथ फिल्मों की दुनिया मे खोए रहना ही उन्हें ज्यादा भाता है. उस छोटे-से मकान को लोग ‘अखड़ा’ के नाम से जानते हैं और बिजू टोप्पो मेघनाथ के वे साथी हैं जिनके साथ उन्होंने फिल्मी यात्रा शुरू की थी जो अब भी जारी है. इस साल मेघनाथ और बिजू दोनों को संयुक्त रूप से राष्ट्रीय पुरस्कार मिलेगा. मेघनाथ कहते हैं, ‘सब बिजू ही करता है, मैं तो उसके साथ रहता हूं.’ बिजू से पूछिए तो कहते हैं, ‘सब दादा करते हैं, मैं तो उनके कहे अनुसार करता हूं.’ दोनों एक-दूसरे को क्रेडिट देते रहते हैं.
मेघनाथ और बिजू हमेशा एक साथ फिल्मों पर काम करते हैं, एक साथ फिल्में बनाते हैं. लेकिन एक विषय पर दोनों की सोच में बड़ा फर्क है. मेघनाथ फीचर फिल्मों के निर्माण से तौबा करते नजर आते हैं तो बिजू कहते हैं, ‘क्यों नहीं बनाएंगे फीचर फिल्म, जरूर बनाएंगे लेकिन वह अपने तरीके की फिल्म होगी. अपना विषय होगा, अपने लोग नायक-नायिका होंगे, परिवेश भी अपना होगा, लेकिन बनाएंगे तो जरूर.’ इस बात पर मेघनाथ हंसते हुए कहते हैं, ‘जब बिजू बनाएगा तो समझिए मैं भी बनाऊंगा.’
मेघनाथ अपने बारे में बात करने से बचते हैं. वे कहते हैं, ‘मैं बंबई का बंगाली हूं लेकिन मुझे झारखंडी कहलाना ज्यादा संतोष प्रदान करता है.’ मेघनाथ पिछले दो दशक से झारखंड में रच-बस गए हैं. बंबई में पिताजी उद्योगपति थे. वहां से कोलकाता चले आए. सेंट जेवियर्स कॉलेज से पढ़ाई-लिखाई पूरी हुई. पढ़ाई के दौरान ही सेंट जेवियर्स कॉलेज के केमिस्ट्री विभाग के अध्यक्ष मशहूर समाजसेवी फादर जेराल्ड बेकर्स से मुलाकात हुई. मेघनाथ बताते हैं, ‘बेकर्स से पहली मुलाकात 1971 के रिफ्यूजी कैंप में हुई, उनसे ही समाजसेवा की प्रेरणा मिली और फिर एमए की पढ़ाई बीच में ही छोड़कर झारखंड के पलामू इलाके में चले आए. छोटे-छोटे चेक डैमों के निर्माण के लिए ग्रामीणों व सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर आंदोलन करने में लग गए. फिर कोयलकारो आंदोलन हुआ तो उसमें भी शरीक हुए और जब अलग राज्य निर्माण के लिए झारखंड आंदोलन चला तो उसमें भी भाग लिया.’ यह पूछने पर कि फिल्मों मंे अचानक कैसे टर्न हो गए, कहते हैं, ‘अचानक कुछ नहीं हुआ. बचपन से ही फिल्मों के परिवेश से परिचित था. पलामू में काम करने के दौरान ही लगा कि फिल्मों से इन बातों को स्वर दिया जा सकता है. फिर मैंने किसी छात्र की तरह इसे सीखने का निर्णय लिया. 1988-89 में एेक्टिविस्ट फिल्म वर्कशॉप हुआ तो उसमें भाग लिया.
फिर दिल्ली जाकर आनंद पटवर्धन के साथ रहा. उनसे बहुत कुछ सीखा. वहीं पर ‘फ्रॉम बीहाइंड द बैरिकेट’ फिल्म को असिस्ट किया. बाद में पुणे में जाकर फिल्म एप्रेसिएशन कोर्स किया. एक छात्र की तरह सब सीखता रहा और फिर जब झारखंड लौटा तो बिजू, सुनील मिंज, जेवियर आदि मित्रों के साथ फिल्म बनाने में लग गया. साथी फिल्म बनाते रहे, उसमें मैं भी अपनी भूमिका का निर्वहन करता रहा.’ जनजीवन के संघर्ष को ही प्रमुख विषय बनाए जाने के सवाल पर मेघनाथ हंसते हुए बताते हैं कि अनजाने में ही सही, बचपन में उन्होंने पहला संघर्ष और आंदोलन अपने पिताजी के खिलाफ ही किया था. पिताजी की बंबई में फैक्टरी थी. मजदूर उनके खिलाफ अंादोलनरत थे. मेघनाथ भी उनके आंदोलन में शामिल हो गए. वे बताते हैं, ‘बाद में जाना कि मैं अपने पिता के खिलाफ ही आंदोलन में चला गया था. संघर्ष को सामूहिक स्वर देना ही तो फिल्मों का काम है, फिल्में मनोरंजन का साधन नहीं हैं, यही तो समझाने की कोशिश करता हूं, नए लड़कों को. सौ में दस भी समझ जाएंगे तो समझूंगा कि फिल्मों को कॉलेजों में पढ़ाते रहने का मेरा मकसद सफल हो रहा है…’
‘सिनेमा के सामाजिक, सांस्कृतिक प्रयोग की संभावनाएं तलाश रहा हूं’
मशहूर फिल्म ऐक्टिविस्ट मेघनाथ से अनुपमा की बातचीत
आपकी दो फिल्मों को इस बार राष्ट्रीय पुरस्कार के लिए चुना गया है. आपकी नजर में इन दोनों फिल्मों की खासियत क्या है?
सम्मान या पुरस्कार मिलना, न मिलना अलग बात है लेकिन हर फिल्म की अपनी खासियतें तो होती ही है. राष्ट्रीय पुरस्कार समारोह के लिए हमारी दो फिल्में ‘एक रोपा धान’ और ‘आयरन इज हॉट’ का चयन हुआ है. एक संघर्ष की फिल्म है, दूसरी रचना की. आयरन इज हॉट यानी ‘लोहा गरम है’ में संघर्ष है, ‘एक रोपा धान’ में रचना है. ‘लोहा गरम है’ में हमने यह दिखाने की कोशिश की है कि स्पंज आयरन फैक्टरियां कैसे झारखंड, उड़ीसा और छत्तीसगढ़ में लोगों की जिंदगियां खत्म कर रही हैं. ‘एक रोपा धान’ किसानों को प्रेरित करने वाली फिल्म है.
जिनके सवालों को लेकर आप फिल्में बनाते हैं, वही उन्हें न देख सकें तो फिर डॉक्यूमेंट्री फिल्मों खासकर अल्टरनेटिव धारा की फिल्मों का मकसद क्या है?
यह सच है कि भारत में मुख्यधारा की सिनेमा की जो ताकत है, उसका जो चक्रव्यूह है, उसके सामने डॉक्यूमेंट्री या अल्टरनेटिव धारा की फिल्मों की कोई औकात नहीं. हमारे पास सबसे बड़ी चुनौती स्क्रीनिंग की है. लेकिन तकनीक के विकास से चीजें अब आसान हो रही हैं. अब आप उनके बीच फिल्में दिखा सकते हैं जिनके सवालों पर या जिन्हें प्रेरित करने के लिए फिल्में बनाते हैं. रही बात मकसद की तो मेरा मानना है कि ऐसी फिल्मों का मकसद सिनेमा के सामाजिक व शैक्षणिक प्रयोग के आधार को मजबूत करना है. भारत में यह होना अभी बाकी है. सिनेमा मनोरंजन के लिए होता है, मनोरंजन का माध्यम है, ऐसा मानने वाले तो अधिकतर मिलेंगे ही. दक्षिण के राज्यों में एमजी रामचंद्रन, करुणानिधि, एनटी रामाराव जैसे लोग सिनेमा का राजनीतिक प्रयोग भी मजबूती से कर इस परंपरा को स्थापित कर चुके हैं. लेकिन इस सशक्त विधा के सामाजिक, सांस्कृतिक और शैक्षणिक प्रयोग का अध्याय शुरू होना अभी बाकी है.
जनता की प्रतिक्रिया के आधार पर देखें तो आपको अपनी किस फिल्म को बनाकर सबसे ज्यादा संतुष्टि मिली?
हमें सबसे ज्यादा सुकून तो ‘कोड़ा राजी’ बनाते हुए मिला. अपने इलाके के लोग कैसे चाय बगान में काम करने बंगाल व पूर्वोत्तर के हिस्से में पहुंचे और वहां पहुंचने पर किन मुश्किलों और चुनौतियों का सामना करते हुए अपनी जिंदगी गुजार रहे हैं, यह करीब से देखने-समझने का मौका मिला. आज भी चाय बगान इलाके से मजदूर आते हैं और कोड़ा राजी की चर्चा करते हैं. वैसे ‘विकास बंदूक की नाल से’ फिल्म का अपना महत्व रहा. उस फिल्म को देखने के बाद उड़ीसा के कोरापुट, पुरसिल आदि इलाके के ग्रामीणों ने कॉरपोरेट लुटेरों से बचने के लिए अपने-अपने गांव में गेट लगा दिए. ‘चींटी लड़े पहाड़ से’ फिल्म का व्यापक स्तर पर पलामू के महुआडांड़, कोयलकारो आदि इलाके में प्रदर्शन हुआ. ‘आयरन इज हॉट’ और ‘गांव छोड़ब नाहीं’ जैसी फिल्में जिंदल और मित्तल जैसी कंपनियों से लड़ रहे आंदोलनकारियों को ऊर्जा प्रदान करती हैं.
क्या भविष्य में फीचर फिल्म बनाने के बारे में भी सोचते हैं?
ना, कतई नहीं. उस बारे में तो कभी सोचते ही नहीं. जो कर रहा हूं, यदि उसे ही अच्छे से कर सकंू तो यही मेरे लिए ज्यादा होगा.