जंतर-मंतर के बाद गांधी का जंतर चाहिए

अन्ना हजारे के अनशन की सफलता से पैदा हुआ उत्साह अचानक एक मायूसी में बदलता दिख रहा है. जो लोग दिल्ली के जंतर-मंतर को मिस्र का तहरीर चौक मान रहे थे और सोशल नेटवर्क के ठिकानों पर अपने-अपने जंतर-मंतर बना रहे थे वे पा रहे हैं कि हजारे और उनकी टीम कई दुविधापूर्ण सवालों से घिरी है. एक तरफ खुद हजारे नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार जैसे उन मुख्यमंत्रियों की तारीफ में जुटे हैं जिन्होंने सांप्रदायिक राजनीति की है या सांप्रदायिक राजनीति का साथ दिया है तो दूसरी तरफ शांति भूषण और प्रशांत भूषण का परिवार जमीन-जायदाद में अपने निवेश की सफाइयां दे रहा है. तीसरी तरफ दिग्विजय सिंह और मायावती जैसे नेता हैं जिनकी शिकायत है कि हजारे ने लोकपाल बिल तैयार करने वालों की जो समिति बनाई है वह समाज के दबे-कुचले तबकों की नुमाइंदगी नहीं करती.

निश्चय ही यह सब लिखने का मकसद यह सपाट निष्कर्ष परोसना नहीं है कि जंतर-मंतर से जो लड़ाई शुरू हुई वह नकली या खोखली थी. सच तो यह है कि तमाम आरोपों के बावजूद हजारे और उनकी टीम का अपना एक नैतिक बल है जो उन्हें भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ने का अधिकार भी देता है और एक तरह की स्वीकार्यता भी. उनके सरोकार असंदिग्ध हैं और उनकी क्षमताएं भी. हजारे की सादगी हो या दूसरों का समर्पण, ये सब अमर सिंह या दिग्विजय सिंह जैसों की आलोचना से ऊपर हैं और वे बेहतर लोकपाल विधेयक तैयार कर सकते हैं.

लेकिन जंतर-मंतर पर इकट्ठा हुजूम को सिर्फ लोकपाल नहीं चाहिए था. लोकपाल उसके लिए भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई का एक बड़ा प्रतीक भर है और मौजूदा व्यवस्था की सड़ांध और जकड़न से पैदा हताशा और गुस्से ने उसे हजारे के पीछे खड़ा कर दिया था. यह अनायास नहीं है कि इस मुहिम के दौरान लोगों ने बार-बार दूसरी आजादी की बात की.

जंतर-मंतर पर इकट्ठा हुजूम को सिर्फ लोकपाल नहीं चाहिए था. लोकपाल उसके लिए भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई का एक बड़ा प्रतीक भर है

लेकिन दूसरी आजादी आसानी से नहीं आती. क्रांतियों में तकलीफ होती है, मोहभंग आता है, हताशा के पड़ाव भी मिलते हैं और कई बार प्रतिगामी ताकतें नये सिरे से सत्ता हासिल कर लेती हैं. 1789 की फ्रांसिसी क्रांति ने समता, स्वतंत्रता और भाईचारे से पहले रॉबस्पेरी जैसे उत्पीड़क और नेपोलियन जैसे अधिनायकवादी दिए और पांच गणतंत्रों का सफर तय करके अपने मुकाम तक पहुंची. रूसी क्रांति को भी दोहरी प्रसव पीड़ा से गुजरना पड़ा- पहले मेंशेविक आए और फिर बोल्शेविक क्रांति हुई. मिस्र में नयी व्यवस्था अपने नये सपनों से तुकतान बैठाने में लगी है और तहरीर चौक पर इंकलाब की तहरीर लिखने वाले नौजवान कुछ मायूस-से हैं.

लेकिन यह क्रांतियों की निष्फलता का दर्शन नहीं है. इन सबका मकसद बस यह याद दिलाना है कि क्रांतियां एक दौर में या एक झटके में पूरी नहीं होतीं. वे लगातार चलती रहने वाली प्रक्रिया होती हैं. जंतर-मंतर के आंदोलन का तुलना फ्रांसिसी या रूसी क्रांति से करना किसी डायनासार और चींटी की तुलना करना है. कायदे से जंतर-मंतर तहरीर चौक भी नहीं हो पाया था. दिल्ली में बैठे और खाए-पिए-अघाए एक वर्ग के लिए वह तफरीह चौक ही था जहां जमीर का मॉल बना हुआ था. नौकरी के बाद जैसे लोग शाम को मॉल और मल्टीप्लेक्स के चक्कर लगाते हैं, वैसे ही जंतर-मंतर के लगाने लगे थे. और तो और, आम तौर पर बड़ी भारी फीस वसूलने वाले और सबके लिए शिक्षा के अधिकार की मुखालफत करने वाले दिल्ली के कई स्कूल अपने बच्चों को यह नयी सैरगाह घुमाने ले आए. निश्चय ही बच्चों में आदर्श और संघर्ष के बीज बोए जाने चाहिए, लेकिन अच्छा होता इसकी शुरुआत स्कूलों से होती.

बहरहाल, यह इस आंदोलन की सीमा भर है, इसकी समग्र सच्चाई नहीं. क्योंकि बेशक, अरसे बाद जंतर-मंतर पर एक ऐसा अनशन दिखा जिसके आगे सरकार बेबस और मजबूर नजर आई. लेकिन यह बेबसी आंदोलन की ताकत या मुद्दों की गंभीरता से कहीं ज्यादा सरकार की अपनी कमजोरी और तात्कालिक जरूरत से पैदा हुई थी. भ्रष्टाचार के लिए लगातार सार्वजनिक आलोचनाएं झेल रही सरकार भ्रष्टाचार के खिलाफ एक मुहिम को इतना बड़ा होता नहीं देख सकती थी जिससे उसका सिंहासन हिलने लगे. उल्टे वह यह जताने की कोशिश में है कि उसके इरादे पाक-साफ हैं और इसीलिए उसने हजारे और उनके साथियों की मांग मान ली है. वैसे भी लोकपाल विधेयक से उसे कोई वास्तविक खतरा नहीं है. अगर होता तो इस आंदोलन के साथ उसका सलूक कुछ और होता. आखिर इसी जंतर-मंतर पर कहीं ज्यादा बुनियादी सवालों के साथ इसी सरकार के सामने 20 दिन से ज्यादा भूखी रहकर मेधा पाटकर लौट गई थीं और किसी के कानों में जूं तक नहीं रेंगी थी. मेधा जंगल-जमीन, बांध और विकास के वे बुनियादी सवाल उठा रही थी जो भारतीय सत्ता और मीडिया दोनों को असुविधाजनक लगते हैं.

असल में जंतर-मंतर पर हुए आंदोलन को पिछले आंदोलनों के हश्र से सीखने की भी जरूरत है और भारतीय समाज की आकांक्षाओं से तुकतान बैठाने की भी. हजारे से पहले बाबा आमटे और सुंदरलाल बहुगुणा और कई दूसरे लोगों ने जो आंदोलन चलाए उन्हें सरकारों ने या सफलतापूर्वक छला और पचा लिया या फिर अविश्वसनीय बनाकर छोड़ दिया. इस बार भी खेल यही लग रहा है- इस फर्क के सिवा कि आंदोलनकारियों को फिलहाल पुराने हश्र याद हैं और उन्होंने वादों के जूस पीने की जगह लिखित और दस्तावेजी किस्म के समझौते किए. निश्चय ही इस बार उनकी तैयारी कहीं ज्यादा पक्की है. हजारे ने जान-बूझकर लोकपाल की प्रारूप समिति में सदाचारी समाजसेवियों की जगह ऐसे प्रतिबद्ध वकीलों और जानकारों को जगह दी है जो बिल की ड्राफ्टिंग में जरूरी जिरह कर सकें और उसे नखदंतहीन होने से बचा सकें. इस लिहाज से भरोसा किया जा सकता है कि हजारे अपने पहले मकसद में कामयाब होंगे.

हजारे के कंधों पर देश की उम्मीदों का जो नया भार आ गया है, उसकी यह जायज मांग है कि वे अपने आंदोलन के लक्ष्यों का वैचारिक खाका तैयार करें

मगर फिर हजारे क्या करेंगे? उनका एलान है कि वे इसके बाद चुनाव सुधार और दूसरे मुद्दों पर आंदोलन चलाएंगे और लोगों को जगाएंगे. लेकिन मुश्किल यह है कि हजारे की समूची लड़ाई फिलहाल संसदीय राजनीति के आदर्शवादी मुहावरों से आगे नहीं जाती. इसीलिए संसदीय राजनीति उनसे डरी हुई है और उनकी मुहिम को लोकतंत्र के विरोध की तरह पेश कर रही है. लेकिन जो लोग हजारे के आंदोलन में राजनीतिक संस्थाओं और संसदीय परंपराओं के अवमूल्यन का खतरा देखते हैं वे भूल जाते हैं कि इनका सबसे ज्यादा अवमूल्यन संसद के भीतर से हुआ है. जब हमारे ईमानदार प्रधानमंत्री अपनी चुनावी जीत को 2008 में सांसदों की खरीद-फरोख्त की शर्मनाक कोशिश के विरुद्ध तर्क की तरह इस्तेमाल करते हैं और गुजरात के मुख्यमंत्री अपने बहुमत को दंगों के दाग धोने के लिए इस्तेमाल करते हैं तो संसदीय राजनीति कमजोर पड़ती है. दरअसल यह हमारी संसदीय राजनीति से बढ़ रहा मोहभंग ही है जो हजारे और उनके नैतिक बल को वह स्वीकार्यता देता है जिससे सत्ताएं डरती हैं और उन्हें अपने साथ समायोजित करने के अभियान में जुटती हैं.

लेकिन हजारे की चुनौती इसीलिए बड़ी हो जाती है. अब तक उनके बयानों से लगता है कि वैचारिक तौर पर एक मध्यवर्गीय आदर्शवाद उनका मार्गदर्शक रहा है. लेकिन यह चश्मा कुछ ज्यादा सपाट है और किसी वैकल्पिक रास्ते की तलाश में मददगार नहीं होता. इस नजरिये में विकास का मतलब शायद 24 घंटे बिजली, साफ-सुथरी सड़कें, चमकता-दमकता कारोबार, यथास्थिति बनाए रखने वाली कानून-व्यवस्था, चुस्त दफ्तरशाही और दुनिया भर का पूंजीनिवेश है. गुजरात और नरेंद्र मोदी को हजारे शायद इसीलिए बेहतर राज्य और बेहतर मुख्यमंत्री मानते हैं. लेकिन अगर विकास की उनकी सोच में एक मानवीय समाज होता, समता और ममता से जुड़ा कोई सपना होता, न्यायपूर्ण शासन की अपनी एक अवधारणा होती तो शायद उनकी राय कुछ अलग होती. कहने का मतलब यह कि हजारे के कंधों पर देश की उम्मीदों का जो नया भार आ गया है, उसकी यह जायज मांग है कि वे अपने आंदोलन के लक्ष्यों का वैचारिक खाका तैयार करें. अगर यह खाका नहीं होगा तो उनका आंदोलन राजधानियों में धरना-प्रदर्शन और उसके साथ जुटे मध्यवर्गीय उत्साह से आगे नहीं जा पाएगा. दूसरी बात यह कि हजारे को भारतीय समाज की जटिलताओं को नये सिरे से पहचानना होगा और अपने आंदोलन में सबको भागीदार बनाना होगा और उसे सबका आंदोलन बनाना होगा. तब उनकी मुहिम सिर्फ भ्रष्टाचार के नहीं, जातिवाद और सांप्रदायिकता के कहीं ज्यादा जहरीले और तोड़ने वाले कारकों के खिलाफ भी होगी. हो सकता है, तब उनके आंदोलन में सिर्फ अनशन नहीं, कुछ दूसरे हथियार भी जुड़ें.

इन बदलावों में एक आदमी उनकी मदद कर सकता है और वे हैं महात्मा गांधी. दरअसल गांधी उनकी मदद में पहले से आ खड़े हुए हैं. हजारे ने उनका ही अस्त्र उठाया और बाकी देश ने उन्हें गांधी मानते हुए ही समर्थन दिया. लेकिन असली गांधी ने अपने अनुभव से यह पहचाना था कि यह देश सिर्फ राजनीतिक ही नहीं, सामाजिक दासता की बेड़ियों से भी बंधा है और बदलाव की लड़ाई अलग ढंग से लड़नी होगी. अस्पृश्यता और सांप्रदायिकता के खिलाफ अपनी लड़ाई को बहुत दूर तक खींचने के बावजूद गांधी इन्हें पूर्ण पराजित नहीं कर सके थे और यह काम किसी दूसरे और उतने ही जिद्दी गांधीवादी को करना होगा. ऐसा जिद्दी गांधीवादी जब अपनी कसौटियां बनाएगा तो वह शांति भूषण से यह जरूर पूछेगा कि किसी मुकदमे की पेशी के लिए उन्हें 25 लाख क्यों चाहिए. 25 लाख रु में न्याय होगा तो गरीब आदमी का न्याय कैसे होगा. ऐसा जिद्दी गांधीवादी होगा तो वह अपने आसपास दिखने वाले नागरिक समाज से बाहर जाकर उस अदृश्य भारतीय समाज से अपनी ताकत हासिल करेगा जिसे यह व्यवस्था कुछ नहीं देती. उसकी नजर उस आख़िरी आदमी पर होगी जिसे देखते हुए गांधी ने अपना जंतर बनाया था.

ऐसा नहीं कि हजारे की नज़र वहां नहीं है. रालेगण सिद्धि में वह इसी सिद्धि में लगे रहे हैं. उसी का प्रताप है कि जंतर-मंतर उन्हें बुला रहा है और मूलतः अंग्रेजी मुहावरे वाला नागरिक समाज उनकी अभ्यर्थना में लगा है. लेकिन हजारे को जंतर-मंतर नहीं बनाता, रालेगण सिद्धि बनाता है, उनकी मुहिम हर शहर में जंतर-मंतर बनाने की नहीं, हर गांव में रालेगण सिद्धि बनाने की होनी चाहिए. उम्मीद और भरोसा करें कि हजारे और उनके सिपाही नये जनांदोलनों की अपेक्षाओं के मुताबिक खुद को बदलेंगे और अपनी लड़ाई को ज्यादा बड़े मोर्चों तक ले जाएंगे.