रचनात्मकता बहुत बड़े अवसरों की मोहताज नहीं होती. वह सीमित संसाधनों में भी अपनी छाप छोड़ जाती है. बीती सात और आठ अप्रैल को राजधानी नई दिल्ली के ईस्ट ऑफ कैलाश स्थित आर्या ऑडिटोरियम में फर्स्ट फ्रेम अंतरराष्ट्रीय छात्र फिल्म महोत्सव के दौरान युवा फिल्मकारों की बनाई फिल्मों ने एक बार फिर इस बात को साबित किया. इस बार इस महोत्सव में आठ देशों के अलग-अलग मीडिया संस्थानों से 130 फिल्में आई थीं जिनमें से चुनिंदा फिल्मों को आखिरी दौर के लिए चुना गया. इन फिल्मों के कथ्यों की नवीनता तथा प्रस्तुतिकरण के अंदाज ने दर्शकों तथा निर्णायकों का मन मोह लिया.
इस फिल्म महोत्सव को देखते हुए हमारे समय के जानेमाने फिल्मकार अनुराग कश्यप की एक बात बार-बार याद आती रही. उन्होंने बाजार के दबाव और जनपक्षधर सिनेमा बनाने से जुड़े एक सवाल के जवाब में कहा था कि ‘जिस दिन फिल्म बनाने के साधन यानी रील और कैमरा कलम और कागज की तरह सस्ते हो जाएंगे, मैं भी एकदम अपने मन की फिल्में बनाना शुरू कर दूंगा, जिनमें किसी का हस्तक्षेप नहीं होगा.’ यह बात 100 फीसदी सच है कि बाजार के संसाधनों का इस्तेमाल करते हुए आप उसके दबाव से बच नहीं सकते हैं लेकिन यहीं पर फर्स्ट फ्रेम जैसे छोटे-छोटे आयोजन एक सार्थक हस्तक्षेप करते हैं और एक विकल्प के रूप में हमारे सामने आते हैं. ये युवाओं को प्रेरित करते हैं. अगर आप में लगन है तो आप एक साधारण कैमरे और यहां तक कि अपने स्मार्ट फोन के कैमरे के जरिए भी दुनिया के सामने अपना नजरिया पेश कर सकते हैं. स्पष्ट है कि बड़ी रचना करने के लिए महंगी कलम नहीं बल्कि बड़ी दृष्टि की आवश्यकता होती है.
मसलन अंतरराष्ट्रीय वृत्त चित्र श्रेणी में प्रथम पुरस्कार पाने वाली अजय कनौजिया की फिल्म घुमंतु, वास्तव में शादीपुर डिपो के निकट स्थित झुग्गी बस्ती कठपुतली कॉलोनी की कहानी कहती है. इस कॉलोनी में कठपुतली कलाकार, सपेरे, नट-नटिनी, बंदर-भालू नचाने जैसे पारंपरिक मनोरंजक व्यवसायों से जुड़े लोग रहते हैं. फिल्म सांस्कृतिक बदलाव के इस दौर में इन कलाकारों पर उपजे पहचान के संकट और इनकी रिहाइश से जुड़ी अनिश्चितता को बखूबी पेश करती है.
इसी तरह नेशनल स्कूल स्टूडेंट फिल्म श्रेणी में पहला पुरस्कार पाने वाली अमृतेंदु रॉय की फिल्म फुटबॉल बेहद आम लगने वाला लेकिन जरूरी सवाल उठाती है. प्रतिस्पर्धा के इस दौर में जहां हर बच्चे को पढ़ाई में अव्वल आने की होड़ में झोंक दिया जाता है वहां बच्चों के पास अपना मनपसंद खेल खेलने तक का वक्त नहीं है.
नई दिल्ली स्थित मधुबाला इंस्टीट्यूट ऑफ कम्युनिकेशंस ऐंड इलेक्ट्रॉनिक मीडिया द्वारा आयोजित समारोह का यह छठा संस्करण कई मायनों में न केवल पूर्ववर्ती संस्करणों से अलग था बल्कि खास भी था. एक तो इस समारोह में पहली बार बड़े पैमाने पर अंतरराष्ट्रीय भागीदारी सुनिश्चित की गई वहीं दूसरी ओर कोलंबो अंतरराष्ट्रीय छात्र फिल्म महोत्सव इस समारोह का फेस्टिवल पार्टनर बना. इसके तहत दोनों देशों के फिल्म प्रेमियों को लगातार पांच दिनों तक दिल्ली और कोलंबों में फिल्मों का एकसाथ लुत्फ लेने का मौका मिला. इसके अलावा फर्स्ट फ्रेम देश का पहला ऐसा छात्र फिल्म महोत्सव बन गया जिसे क्राउडफंड (आम जनता से पैसे जुटाकर आयोजन) किया गया. फिल्मोत्सव के छठे संस्करण की यूट्यूब पर लाइव स्ट्रीमिंग भी की गई. इतना ही नहीं फर्स्ट फ्रेम लाईव सर्किल और टॉक-शाप जैसे नए प्रयोग भी किए गए. इस वर्ष निर्णायक मंडल में एम्मी तथा बाफ्टा अवार्ड के निर्णायक मंडल के सदस्य रह चुके माइक बेरी जैसे दिग्गज शामिल थे, जिनके अनुभव युवा फिल्मकारों के लिए खासी अहमियत रखते हैं.
फर्स्ट फ्रेम 2014 में बेस्ट नेशनल फिक्शन श्रेणी में क्रिस्टो टॉमी की फिल्म कनयाका को पहला पुरस्कार दिया गया. वहीं कचरा बीनने वालों के जीवन पर केंद्रित स्मृति सिंह की फिल्म दिस फिल्थी लाइफ को सर्वश्रेष्ठ राष्ट्रीय वृत्तचित्र का पुरस्कार दिया गया.
इस फिल्म महोत्सव की निदेशिका प्रोफेसर एम बी जुल्का ने समारोह के महत्व को रेखांकित करते हुए बताया कि अब तक आयोजित कुल छह संस्करणों के दौरान 500 से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय फिल्मों का मंचन किया जा चुका है. इस तरह यह उभरते फिल्मकारों के लिए अपनी क्षमताओं को दुनिया के समाने लाने का एक विशिष्ट अवसर है.
इसमें कोई दो राय नहीं कि फर्स्ट फ्रेम जैसे फिल्म महोत्सव युवाओं को अपने हुनर को उजागर करने का अवसर देते हैं. यही नहीं, इनके जरिए वे प्रतिष्ठित फिल्मकारों तथा अन्य हस्तियों के संपर्क में भी आते हैं जो उनके अनुभव के दायरे को वह आयाम देते हैं जो भविष्य में उनके काम आता है.