2जी मामले में केंद्र सरकार की मुश्किलें और बढ़ती दिख रही हैं. इसकी वजह यह है कि अब पूर्व वित्त सचिव डी सुब्बाराव द्वारा जुलाई, 2008 में लिखा गया एक पत्र सामने आया है. इसमें जो लिखा गया है उससे केंद्र और सीबीआई के लिए 2जी घोटाले में पहले से ही मुश्किलों में घिरे गृहमंत्री पी चिदंबरम का बचाव करना और मुश्किल हो गया है.
गौरतलब है कि जनता पार्टी के अध्यक्ष सुब्रमण्यम स्वामी ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करते हुए मांग की है कि इस मामले में चिदंबरम की कथित भूमिका की जांच की जाए. इसका विरोध करते हुए सीबीआई का सबसे बड़ा तर्क यह था कि स्पेक्ट्रम आवंटन के संबंध में 10 जनवरी, 2008 को तत्कालीन संचार मंत्री ए राजा ने जो आशय पत्र जारी किए नुकसान उन्हीं से हो चुका था. इसके बाद चिदंबरम कुछ नहीं कर सकते थे क्योंकि सरकार कानूनी अनुबंधों से बंधी थी. सुप्रीम कोर्ट को दिए गए अपने लिखित जवाब में सीबीआई का कहना था, ‘यह कहना सही नहीं होगा कि प्रत्येक लाइसेंस के लिए 1,600 करोड़ रुपये हासिल करने और आशय पत्र की सभी शर्तें पूरी करने के बाद भी लाइसेंस को रद्द करने का विकल्प खुला था.’
लेकिन हाल ही में सामने आए इस नोट की मानें तो स्पेक्ट्रम की कीमतें दो हिस्सों में वसूली जा सकती थीं. नोट के शब्द हैं, ‘कानूनी और प्रशासनिक रूप से यह तर्कसंगत है कि स्पेक्ट्रम की कीमतें दो हिस्सों मंे वसूली जाएं–पहला, एक बार ही चुकाई जाने वाली एक तय राशि के रूप में जो सार्वजनिक संसाधन का इस्तेमाल निजी लाभ के लिए करने के लिए हो और दूसरा, स्पेक्ट्रम के उपयोग से होने वाले लाभ में सरकार की हिस्सेदारी के रूप में’.
यानी एक तरह से देखा जाए तो आशय पत्र जारी हो जाने के छह महीने बाद भी सरकार में इस बात को लेकर सहमति थी कि स्पेक्ट्रम की और ज्यादा कीमत वसूलना कानूनी और प्रशासनिक आधार पर पूरी तरह संभव है. लेकिन ऐसा नहीं किया गया. इसकी वजह इस पत्र के दूसरे पन्ने के पांचवें पैराग्राफ में बताई गई है- ‘ऐतिहासिक कारणों से, जीएसएम के लिए 6.2 Mhz तक और सीडीएमए के लिए 5 Mhz तक के स्पेक्ट्रम आवंटन पर कोई चार्ज नहीं वसूला जा सकता, न तो नए ऑपरेटर से और न ही पुराने ऑपरेटर से.’
इससे साफ हो जाता है कि गलती सुधारने के लिए काफी वक्त था लेकिन चिदंबरम की ऐसी कोई इच्छा नहीं थी
गौर करें कि अभी सरकार अपने बचाव में यह तर्क दे रही है कि कम कीमत में स्पेक्ट्रम आवंटन के उसके फैसले की वजह जनहित थी. लेकिन नोट में सरकार द्वारा स्पेक्ट्रम की अतिरिक्त कीमत नहीं वसूलने के पक्ष में दिया गया तर्क कहीं से भी इस बात को साबित नहीं करता. अगर ऐसा होता तो नोट में ‘ऐतिहासिक कारण’ जैसे भारी-भरकम शब्द की जगह सस्ती कीमत पर सेवाओं के व्यापक प्रसार जैसा तर्क होता.
चार जुलाई, 2008 का यह पत्र राजा, चिदंबरम और प्रधानमंत्री के बीच उसी दिन निर्धारित एक बैठक के मद्देनजर तैयार किया गया था. छह जुलाई, 2008 को एक अन्य पत्र में सुब्बाराव ने इस बात का फिर से जिक्र किया- ‘चार जुलाई, 2008 के पत्र में वर्णित मुद्दों पर प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री और दूरसंचार मंत्री के साथ चर्चा हुई. इस बैठक में दूरसंचार सचिव और मैं भी उपस्थित था. इस पत्र के सभी मुद्दों पर हमारी सहमति थी.’
इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि 2001 में निर्धारित स्पेक्ट्रम की कीमतों के आधार पर आवंटन करने के ए राजा के फैसले पर प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री दोनों सहमत थे. पत्र से यह भी साफ होता है कि बैठक में स्पेक्ट्रम की नीलामी या फिर उसके बाजार मूल्य पर आवंटन जैसे मुद्दों पर कोई चर्चा ही नहीं हुई. इससे यह भी पता चलता है कि लाइसेंस की इतनी कम कीमत वसूलने के पीछे अनुबंध की बाध्यता जैसी वजह बाद में सोची गई. अगर राजा द्वारा हड़बड़ी में जारी आशय पत्र में सुधार या लाइसेंस आवंटन को रद्द करने संबंधी कोई चर्चा हुई होती तो इसका जिक्र पत्र में जरूर मिलता. नौ जनवरी, 2008 तक यानी राजा द्वारा आशय पत्र जारी करने से ठीक एक दिन पहले चिदंबरम का सार्वजनिक विचार था कि या तो 2जी स्पेक्ट्रम की बोली लगवाई जाए या फिर बाजार मूल्य पर इसकी कीमतें निर्धारित की जाएं. लेकिन 15 जनवरी, 2008 को चिदंबरम ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर कहा कि 10 जनवरी, 2008 को ए राजा द्वारा जारी आशय पत्र को अब खत्म मामला समझा जाए. इस घटनाक्रम में गौर करने की बात यह है कि सभी 150 लाइसेंसों का आवंटन 27 फरवरी से सात मार्च के बीच हुआ था. यानी गलती सुधारने के लिए काफी वक्त था लेकिन चिदंबरम की ऐसी कोई इच्छा नहीं थी.
अचानक हुए इस हृदय परिवर्तन पर चिदंबरम ने कोई सफाई नहीं दी है. सीबीआई द्वारा दाखिल की गई चार्जशीट में भी इस बात की कोई जानकारी नहीं दी गई कि आखिर वित्तमंत्री ने अचानक ही अपना रुख क्यों बदल लिया. इससे कई लोग हैरानी के साथ यह सवाल भी पूछ रहे हैं कि इसके बाद भी सीबीआई ने चिदंबरम से पूछताछ करना या उनका बयान रिकॉर्ड करना जरूरी क्यों नहीं समझा.
2जी आवंटन की आधिकारिक फाइल में आशय पत्र रद्द करने का विरोध करता एकमात्र कथन दूरसंचार विभाग का है. आठ फरवरी, 2008 को तत्कालीन दूरसंचार सचिव सिद्धार्थ बेहुरा ने वित्त मंत्रालय को पत्र लिखकर बताया कि 4.4 Mhz वाले स्पेक्ट्रम का आरंभिक आवंटन लाइसेंस की शर्तों का हिस्सा है. अगर इसकी कीमत वसूली जाएगी तो इससे स्वस्थ प्रतिस्पर्धा को नुकसान पहुंचेगा और साथ ही वर्तमान आशयपत्र धारक कोर्ट की शरण में चले जाएंगे. लेकिन फाइल में कहीं से भी इस बात की जानकारी नहीं मिलती कि दूरसंचार विभाग की इस आपत्ति पर चिदंबरम ने कभी गंभीरता से विचार किया हो या फिर राय के लिए इसे कानून मंत्रालय को भेजा गया हो.
चार जुलाई की बैठक का एकमात्र मकसद था 6.2 Mhz से ऊपर के स्पेक्ट्रम आवंटन की कीमत निर्धारित करना. प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री और ए राजा के बीच बाजार संचालित प्रक्रिया से कीमत तय करने पर सहमति बनी थी. यहां एक और दिलचस्प बात है कि शुरुआती स्पेक्ट्रम (जिसकी कीमत तय नहीं की गई) की जो सीमा 4.4 Mhz थी वह बढ़कर 6.2 Mhz कैसे हुई इसकी कोई स्पष्ट जानकारी उपलब्ध नहीं है.
जो बात लोगों को खटक रही है वह है सरकार का दोहरा रवैया. सरकार 6.2 Mhz के ऊपर के स्पेक्ट्रम को तत्कालीन बाजार दर पर ही आवंटित करने की इच्छुक थी, लेकिन 6.2 Mhz तक के स्पेक्ट्रम के लिए उसकी ऐसी कोई इच्छा नहीं थी. मान लेते हैं कि 6.2 Mhz तक के स्पेक्ट्रम के लिए बाजार कीमत नहीं वसूलने के पीछे सोच यह थी कि ऑपरेटरों को हुआ यह फायदा अपने आप नीचे तक पहुंचेगा जिससे उन्हें कम कीमत पर सेवा मिलेगी और मोबाइल का प्रसार बढ़ेगा. तो सवाल उठता है कि यही तर्क 6.2 Mhz के ऊपर के स्पेक्ट्रम धारकों पर भी तो लागू हो सकता है.
यानी बैठकें हुईं, कागजों के ढेर लगे और सहमति बनी कि स्पेक्ट्रम का आवंटन तत्कालीन बाजार दर के हिसाब से हो, इसके बावजूद नतीजा सिफर रहा.