गाज़ा में मातम है। दज़र्नों जीवन पत्थरों और मिट्टी के मलवे के नीचे सिसक रहे हैं। उस मलवे के नीचे, जिसके भीतर से बारूद का धुआँ उठ रहा है। और जो निर्जीव हो चुके हैं, उनके परिजनों को पता भी नहीं है कि वे उन्हें खो चुके हैं। युद्ध में मौतों का आँकड़ा 10,000 पहुँचने को है। अंतरराष्ट्रीय समुदाय धर्मों के आधार पर बँट चुका है। इंसान की किसी को परवाह नहीं। जो इजरायल के समर्थक हैं, वे उसे गोला-बारूद दे रहे हैं। जो हमास के समर्थक हैं, वे उसे गोला-बारूद दे रहे हैं। तबाही का सामान हर किसी के पास है। लेकिन किसी को यह चिन्ता करने का समय नहीं है कि हमने इजरायल-हमास-फिलिस्तीन की इस जंग में कितने ही निर्दोष इंसानों को खो दिया है। गोली और बारूद की आँखें नहीं होतीं, जो यह पहचान कर सकें कि सामने वाला निर्दोष है। इजरायल की बमबारी में गाज़ा में यह तबाही साफ़ दिख रही है।
अमेरिका के राष्ट्रपति इजरायल जाते हैं, तो उसके साथ खड़े दिखते हैं। उसे और बारूद देने का वादा करते हैं। वापस लौटकर दोमुहाँपन दिखाते हुए एक साँस से इजरायल के बमों से तबाह हुए गाज़ा और वेस्ट बैंक के नागरिकों के लिए पानी, बिजली, दवाओं और विस्थापितों के लिए 100 मिलियन डॉलर की मदद की बात करते हैं, तो दूसरी साँस में इजरायल की मदद के लिए अमेरिकी कांग्रेस से 14.3 अरब डॉलर की अतिरिक्त सैन्य सहायता की सिफ़ारिश भी करते हैं। अमेरिका का कौन-सा चेहरा वास्तविक है, यह कोई नहीं जानता!
दिलचस्प है कि जिस संयुक्त राष्ट्र को इजरायल को वर्तमान जगह बसाने का दोषी माना जाता है, उसी संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने सुरक्षा परिषद् की बैठक में कहा कि हमास ने इजरायल पर हमला बेवजह नहीं किया है। संयुक्त राष्ट्र प्रमुख ने कहा कि फिलस्तीन के लोग 56 साल से घुटन भरे क़ब्ज़े का सामना कर रहे हैं। भले इजरायल ने उनके बयान की तत्काल निंदा करते हुए उनके इस्तीफ़े की माँग कर दी; लेकिन गुटेरेस का यह बयान बहुत-ही अहम है। वर्तमान युद्ध से पहले भी इजरायल ने गाज़ा को तीन तरफ़ से घेरा हुआ है और बँटबारे के समय मिली ज़मीन से कहीं ज़्यादा गाज़ा हिस्से पर क़ब्ज़ा कर लिया है।
शान्ति की बात करने वालों को ताक़तवर कैसे चुप करवाने की कोशिश करते हैं, यह मशहूर पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग के उदाहरण से ज़ाहिर हो जाता है। थनवर्ग ने इजरायल-हमास के बीच जारी युद्ध के बीच गाज़ा के लोगों का समर्थन करते हुए वहाँ इजरायल के हमलों में हो रही मौतों पर दु:ख जताया था और एक्स (पहले ट्वीटर) पर एक पोस्ट में लोगों से इसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने की अपील की थी। इजरायल ने इसके जवाब में अपनी प्रतिक्रिया में थनबर्ग को अपने स्कूल सिलेबस से हटाने का फ़ैसला किया और ग्रेटा थनबर्ग को संबोधित करते हुए लिखा- ‘हमास ने अपने रॉकेट्स के लिए पर्यावरण के लिहाज़ से बेहतर चीज़ों का इस्तेमाल नहीं किया था, जिनसे मासूम इजरायली नागरिकों की बर्बर हत्याएँ की गयीं। हमास के हमले में मारे गये लोग आपके दोस्त हो सकते हैं।
यहाँ यह बताना ज़रूरी है कि इजरायल पर गाज़ा और लेबनान में हमलों के दौरान वाइट फॉस्फोरस बम इस्तेमाल करने का आरोप लगता रहा है। यह इतना ख़तरनाक बम है कि हवा से ऑक्सीजन सोख लेता है और प्रभावित व्यक्ति की हड्डियों तक को गला देता है। अमेरिका पर दूसरे विश्व युद्ध में जर्मनी के ख़िलाफ़ और बाद में भी ऐसे बम इस्तेमाल करने का आरोप लगा है। बता दें कि सन् 1980 में जिनेवा कन्वेंशन में इन बमों के रिहायशी इलाक़ों में इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगा दिया गया था।
कन्वेंशन ऑन सर्टेन कन्वेंशनल वेपन (सीसीडब्ल्यू) ने इसके लिए जो प्रोटोकॉल बनाया, उस पर 115 देशों ने हस्ताक्षर किये; लेकिन इनमें इजरायल शामिल नहीं था। गाज़ा में आबादी, अस्पतालों और धार्मिक स्थलों पर इजरायल के हमले बताते हैं कि उसने इंसानी ज़िन्दगियों की परवाह नहीं की। वैसे ही, जैसे हमास के आतंकियों ने इजरायल में हमला करते हुए नहीं की थी और निर्दोष नागरिकों को या तो मौत के घाट उतार दिया था या बंधक बनाकर उन्हें अपने साथ ले गये थे, जिनमें महिलाएँ भी थीं। इन लोगों की रिहाई की बात अभी भी पूरी तरह सिरे नहीं चढ़ी है। न ही युद्ध विराम की कोई गम्भीर पहल हुई है। उलटे इजरायल ज़मीनी हमले की तैयारी कर रहा है, जिसके लिए उसे उसके सहयोगी अमेरिका ने फ़िलहाल रोका हुआ है। यह माना जाता है कि गाज़ा की ज़मीन भीतर से हमास की बनायी बारूदी सुरंगों से अटी पड़ी है और वहाँ घुसना इजरायल के सैनिकों के लिए तबाही का सबब भी बन सकता है।
हरकत अल-मुकावामा अल-इस्लामिया (हमास) की स्थापना एक इस्लामिक प्रतिरोध आन्जोसन के रूप में फिलिस्तीनी मौलवी शेख़ अहमद यासीन ने की थी। अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने 11 जुलाई, 2000 को कैंप डेविड शिखर सम्मेलन में तब के इजरायली प्रधानमंत्री एहुद बराक और फिलिस्तीनी अथॉरिटी के चेयरमैन यासिर अराफ़ात को साथ लाने में सफलता हासिल की थी; लेकिन इस शिखर सम्मेलन में कोई नतीजा नहीं निकल पाया। उलटे दोनों देशों की दुश्मनी और बढ़ गयी। यह आरोप लगते रहे हैं कि फिलिस्तीन की स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहे और शान्ति के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित यासिर अराफ़ात की मौत के पीछे भी कथित रूप से इजरायल का हाथ था।
इजरायल दावा कर रहा है कि उसने गाज़ा में बम गिराकर हमास के कमांडरों को मार दिया। यदि हमास के ठिकानों को लेकर उसकी जानकारी इतनी ही पुख़्ता थी, तो फिर उसने गाज़ा के आबादी वाले इलाक़ों में हज़ारों निर्दोष नागरिकों को क्यों अपने बमों से मरने दिया? क्यों उसने फिलिस्तीनियों से गाज़ा छोड़ने को कहा? इजरायल में प्रधानमंत्री नेतन्याहू की कई नीतियों का विरोध है। वहाँ की राजनीति ने नेतन्याहू को मजबूर किया है कि वह हमास के ख़िलाफ़ आक्रामक रुख़ दिखाएँ। लेकिन गाज़ा की आबादी वाली बस्तियों पर हमले के बाद दुनिया में उनके समर्थकों की संख्या घटी है। ऐसे ही हमास को लेकर भी फिलिस्तीन के लोग बँटे हुए हैं। हमास की चर्चा जब होती है, तो उसे फिलिस्तीन के साथ जोड़ा जाता है। लेकिन फिलिस्तीन में ऐसे बहुत लोग हैं, जो मानते हैं कि फिलिस्तानी समुदाय स्वतंत्रता की लड़ाई और बेहतर तरीक़े से लड़ सकता था।
भारत की बात करें, तो इजरायल के साथ खड़े होने वाली प्रधानमंत्री मोदी की प्रतिक्रिया बहुत जल्दी में की गयी। उनके बयान का यह असर हुआ कि भारत की आबादी भी धार्मिक आधार पर बँट गयी। हमारे ज़्यादातर टीवी चैनल निष्पक्षता छोड़ खुले रूप से इजरायल के समर्थक बन गये और भाजपा का सोशल मीडिया भी हमास / फिलिस्तीन के ख़िलाफ़ आग उगलने लगा। सवाल अमेरिका को इजरायल को सैन्य सहायता देने पर भी हैं। नहीं भूलना चाहिए कि साल 1946 से साल 2023 तक अमेरिका इजरायल को 264 अरब डॉलर की सहायता दे चुका है, जो अमेरिका की तरफ़ दी जाने वाली सबसे बड़ी सहायता है। निश्चित ही इजरायल के गाज़ा के लिए सभी ज़रूरी सप्लाई काट देने से वहाँ रोटी, पानी, दवाई और आम ज़रूरतों के लिए लड़ रहे लोगों को मदद की ज़रूरत है। इसके लिए युद्ध विराम होना ज़रूरी है। दुनिया हमास के कृत्य का समर्थन किये बगैर इजरायल की कार्रवाई की निंदा कर सकती है और उस पर मानवीय बस्तियों पर हमला न करने का दबाव डाल सकती है।
ईरान सहित कई मुस्लिम देशों के फिलिस्तीन या हमास के साथ खड़ा होने से तनाव विकट होता जा रहा है, जो मध्य-पूर्व में बड़े युद्ध का रास्ता खोल सकता है। इजरायल को उसके मित्र देशों- अमेरिका-फ्रांस आदि से समर्थन और हथियार मिल रहे हैं। दुनिया पहले ही यूक्रेन-रूस युद्ध से भय में है और उसे लगता है कि ये युद्ध विश्व युद्ध की शक्ल भी अख़्तियार कर सकते हैं।
संसार में युद्धों के विशेषज्ञ बहुत हो गये हैं। हथियार बनाने वाले बहुत हो गये हैं। शान्ति की बात करने वाले गिनती में ही रह गये हैं। कहावत है कि दुनिया में हर कोई वही बेचता है, जो उसके पास होता है। इसलिए युद्धों और हथियारों के विशेषज्ञ युद्ध बेच रहे हैं। दुनिया को आज युद्धों के विशेषज्ञों की नहीं, एक और महात्मा गाँधी की ज़रूरत है!